मैंने 23 जून 1965 को बीदर जिले के पुलिस अधीक्षक के रूप में पदभार संभाला था। तब मैं कांस्टेबलों से उन नियम-कानूनों के बारे में पूछा करता था, जिन्हें लागू कराने की जिम्मेदारी उनकी थी। मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि अधिकतर पुलिसकर्मियों को केवल हैदराबाद पुलिस एक्ट के बारे में ही जानकारी थी, क्योंकि वर्ष 1949 तक बीदर हैदराबाद स्टेट का ही हिस्सा हुआ करता था। मैसूर, मद्रास, बंबई और हैदराबाद स्टेट के जिलों के बंटवारे को लेकर बड़े घालमेल की स्थिति थी। वर्ष 1963 में जब कॉमन मैसूर पुलिस एक्ट पास किया गया, तब भी हालात जस के तस बने रहे, क्योंकि नए पुलिस एक्ट के तहत किसी को प्रशिक्षित नहीं किया गया था और उसकी प्रतियां तक संबंधित अधिकारियों को वितरित नहीं की गई थीं।
तब मैंने नियम बनाया था कि हर पुलिसकर्मी के पास मैसूर पुलिस एक्ट की एक प्रति होनी ही चाहिए। तब इस दस्तावेज का मूल्य एक रुपए हुआ करता था। लेकिन मैं देखता हूं कि आज तलक इन हालात में कोई सुधार नहीं आया है। बात केवल पुलिस विभाग तक ही सीमित नहीं है, यह समस्या स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि तमाम विभागों की है। आज भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत विभागीय अधिकारियों के पास उनसे संबंधित कानूनों की प्रतिलिपि होना अनिवार्य किया गया हो। और यह स्थिति तब है, जबकि हमारे यहां कानूनों की भरमार है।
भ्रम की स्थिति का आलम कुछ यूं है कि अधिकारियों के बीच भी तालमेल का अभाव रहता है। विभागीय व्यवस्था में अकसर बाएं हाथ को पता नहीं होता कि दायां हाथ क्या कर रहा है। मोदी सरकार ने शुरुआत में कुछ घिसे-पिटे कानूनों को खत्म करते हुए अच्छी शुरुआत की थी, लेकिन अब फिर वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति निर्मित हो गई है। हाल ही में मुझे यह जानकर हैरत हुई कि राष्ट्रीय राजधानी में मेट्रो ट्रेन को एक सिंगल ट्रैक पर चलाने के लिए भी एक कानून की दरकार होती है! प्रशासनिक व्यवस्थाओं में अकसर अजीबोगरीब स्थितियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन ऐसा लगता है कि हम तो तमाम सीमाओं को लांघ चुके हैं।
नतीजा है भीषण भ्रम की स्थिति, क्योंकि किसी को किसी चीज के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। किसी को भी ठीक-ठीक तरह से पता नहीं है कि प्रशासनिक व्यवस्था केकिसी एक विशेष आयाम को लागू करना किसकी जिम्मेदारी है। ज्यादा से ज्यादा कानून होने का यह मतलब नहीं है कि देश में कानून-व्यवस्था लागू हो जाएगी, इसका यही मतलब है कि विभागीय व्यवस्था में भ्रम की स्थिति गहरे तक पैठ जाएगी। साथ ही अव्यावहारिक और अनुपयोगी कानून भ्रष्टाचार को भी जन्म देते हैं।
कुछ राजनेताओं को लगता है कि फाइलों पर दस्तखत कर देना भर ही देश के विकास के लिए काफी है। लेकिन फाइलें आसानी से नहीं हिलतीं। हमारे देश में फाइलों के हिलने की भी एक कीमत होती है। मैं एक ऐसे बिल्डर को जानता था, जिसे उसके बहुमंजिला को-ऑपरेटिव सोसायटी कॉम्प्लेक्स के लिए पूर्णता प्रमाण पत्र मिल गया था और इसके कारण वह कइयों की ईर्ष्या का केंद्र बन गया था। मैंने उससे उसकी कामयाबी का राज पूछा। उसने मुस्कराते हुए जवाब दिया कि उसने फाइलों को पहिये लगा दिए थे, ताकि वे एक टेबल से दूसरी टेबल तक तेजी से गति कर सकें। मैंने कहा कि मैं उसकी बात को समझा नहीं। उसने मेरी तरफ कुछ इस तरह देखा, मानो मैं कोई नादान इंसान हूं और कुछ नहीं जानता। फिर उसने स्पष्ट किया कि फाइलों के नीचे पहिये लगाने का मतलब होता है अपनी जेब ढीली करना। फिर उसने बड़े गर्व से बताया कि पूर्णता प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए ही उसने पूरे 22 लाख रुपए खर्च किए थे! मैं आश्चर्यचकित था। मैंने पूछा कि वह इस खर्चे की भरपाई कैसे करेगा? उसने जवाब दिया, कोऑपरेटिव सोसायटी के सदस्यों से वसूली करके। वास्तव में वह पहले ही उन लोगों से इस संबंध में पैसा वसूल कर चुका था। फिर उसने मुझे बताया कि यह तो फिर भी एक बड़ा काम था, सरकारी दफ्तरों से छोटे से छोटा काम कराने के लिए भी आपको जेब ढीली करनी पड़ती है।
हमारे देश में ऐसा एक कानून है, जो कहता है कि आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति की मिल्कियत एक अपराध है, लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, यह कानून जमीनी स्तर पर लागू ही नहीं किया जाता। इसी का नतीजा है कि एक मामूली बाबू भी आलीशान बंगलों में रहता है और महंगी कारें खरीदता है, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं होती। आश्चर्य नहीं कि हांगकांग स्थित प्रतिष्ठित कंसल्टिंग फर्म ‘पोलिटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी" ने भारतीय नौकरशाही को लगातार दसवीं बार एशिया में सबसे बदतर बताया है। इसके लिए उसने भारतीय कर्मचारियों की अकार्यकुशलता को सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराया था। बुनियादी ढांचे का अभाव और भीषण भ्रष्टाचार को भी इसके लिए जिम्मेदार बताया गया। फर्म ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि हालात यह हैं कि कंपनियां अदालती झंझटों में नहीं पड़ना चाहतीं, जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। उन्हें भारत की न्याय-व्यवस्था पर भी भरोसा नहीं है। ऐसे में इस बात की सख्त जरूरत है कि कानूनों की संख्या में नाटकीय कटौती की जाए और शेष कानूनों के बारे में अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जाए।
-लेखक सीबीआई के पूर्व निदेशक हैं