विभिन्न स्तरों पर 150 साल के निरंतर संघर्ष के बाद, 2005 में जो वन अधिकार कानून सामने आया, उसमें पहली बार आदिवासियों के अधिकारों को मान्यता दी जाने की बात रखी गई थी। साथ ही, उनकी निजी व पारंपरिक सामुदायिक संपत्तियों को बिना उनकी अनुमति के अधिग्रहण न करने की धारा भी बनाई गई। इसके अलावा, उद्योगीकरण और विकास के नाम पर शहरीकरण व बांध वगैरह के निर्माण के कारण अभी तक जितने भी आदिवासी बेरोजगार और विस्थापित हुए हैं, उन्हें जल्द से जल्द मुआवजा देने की बात शामिल की गई। लेकिन कई व्यावहारिक मुद्दों, लालफीताशाही, अफसरशाही, औद्योगिक लॉबी और निहित स्वार्थों वाले समूहों के हस्तक्षेप के कारण यह ऐक्ट अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया है।
कुछ विशेषज्ञ तो यह भी मानते हैं कि यह पूरी तरह उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इसके तहत आदिवासी औरतों के अधिकारों को संरक्षित करने का कोई प्रावधान नहीं है। यह कानून भूमि अधिग्रहण कानून के अधीन है और जिन आदिवासियों की संपत्तियों को सरकार मान्यता देती है, उन्हें वे आदिवासी रख तो सकते हैं, मगर बेच नहीं सकते। इसी कारण यह कानून आदिवासियों को अपनी संपत्तियों पर पूर्ण स्वामित्व अभी तक प्रदान नहीं कर पाया है। हाल में भारत और विश्व बैंक के बीच हुई बातचीत के दौरान केंद्र सरकार ने विश्व बैंक को बताया कि भारत अपने वन अधिकार कानून 2005 के तहत अनुसूचित जनजातियों की भूमि का अधिग्रहण करने से पहले उनकी राय लेने की धारा को समाप्त करेगा।
कानून मंत्रालय ने इस बाबत पर्यावरण मंत्रालय के विनियम में संशोधन भी किया है। इसी कानून में किसी भी प्रकार की परियोजना के वास्ते ग्राम सभाओं की सहमति जंगली जमीन के अधिग्रहण के लिए अनिवार्य थी। पर अब नए संशोधन के बाद ऐसा नहीं होगा। सरकार इसके लिए सड़क, रेल और पाइपलाइन जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर का जाल बिछाने के तर्क दे रही है। आज देश भर में कई ऐसी जगहें हैं, जहां संसाधन तो हैं, पर अत्यंत जीर्ण अवस्था में। सरकार उनको सुधारने की बजाय नई जगहों पर इन संसाधनों को लगाने की बात कर रही है। जाहिर है, ये संसाधन जन-सामान्यके हित में नहीं हैं, क्योंकि अगर ऐसा होता, तो सरकार जंगल काटने से पहले स्थापित संसाधनों में सुधार करती। जंगलों में पाइपलाइन इत्यादि लगाने का एक ही आशय है- उद्योगों को पिछले दरवाजे से आमंत्रण देना। उद्योगों को बढ़िया सड़कों, पाइपलाइनों और मालगाड़ियों की बहुत आवश्यकता होती है।
सरकार केवल संसाधनों के तर्क को आगे रखकर उन लोगों के नामों को छिपा रही है, जिन्हें इन सबका असल फायदा मिलेगा। ताज्जुब की बात यह है कि केंद्र सरकार विश्व बैंक की सुझाई गई नीतियों के अनुसार नहीं, बल्कि उसके सुझावों के विपरीत जाकर ऐसा कर रही है। जिस सरकार के पास अभी प्राकृतिक आपदा से जूझते हुए किसानों को मुआवजा देने की क्षमता नहीं है, इसके लिए वह राज्य सरकारों पर दबाव डाल रही है कि वे बेमौसम बारिश और ओला वृष्टि से फसल को हुए नुकसान के आंकड़ों को कम करके दिखाएं, वह सरकार अपने अनुसूचित इलाकों में भारी उद्योगों को लगाने के लिए विश्व बैंक से मदद मांग रही है। जबकि विश्व बैंक ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों के अनुसार भारत को सुझाव दिया कि वह अपने अनुसूचित इलाकों में जनजातियों की राय लिए बिना उद्योग न लगाए।
विश्व बैंक ने यह भी चेतावनी दी कि ऐसा करना नई आर्थिक सोच के विपरीत है। इसके जवाब में केंद्र सरकार ने विश्व बैंक से कहा है कि वह अपनी नीतियों को न थोपे। इस मसले पर सरकार विश्व बैंक को चुनौती देती दिख रही है। दिलचस्प बात यह है कि आज जहां दुनिया भर में आदिवासियों के हितों की बात को आगे रखने की सोच बन रही है, वहीं भारत जैसा लोकतंत्र विपरीत राह पर चल निकला है। केंद्र में नई सरकार के आने के कुछ ही महीनों में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाया गया, जिसका भाजपा से जुड़े संगठनों ने भी विरोध किया है।
फिलहाल यह अध्यादेश राज्यसभा के प्रतिकूल गणित के कारण अटका पड़ा है। वहीं खान, खनिज और कोयला जैसे कई दूसरे महत्वपूर्ण अध्यादेश आनन-फानन में लोकसभा में पास करा दिए गए हैं। जरूरत यह थी कि भूमि अधिग्रहण विधेयक और वन अधिकार कानून 2005 को और सुदृढ़ बनाकर किसानों व आदिवासियों के हितों को अगली पायदान तक पहुंचाया जाता, लेकिन सरकार इन दोनों ही कानूनों को पूरी तरह खारिज करने पर तुली हुई है। जिस प्रकार इस सरकार ने 119 साल के आंदोलन के बाद किसान हितैषी बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून को जबरन बदलने की लड़ाई छेड़ दी है, उसी प्रकार 150 साल से चल रहे आदिवासी आंदोलन की उपज की हत्या करने का मन बना लिया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)