प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को राष्ट्रीय बजट का महज 1.8 और 1.05 प्रतिशत हिस्सा ही नसीब हो पाता है। 712 विश्वविद्यालयों, 36,671 कॉलेजों और 11,445 संस्थानों के बावजूद देश में उच्चतर शिक्षा की हालत अच्छी नहीं कही जा सकती। ग्रेजुएशन में केवल 12 फीसदी विद्यार्थी विज्ञान आधारित कोर्स में, 2.87 फीसदी मेडिकल और 0.95 फीसदी विद्यार्थी कानूनी शिक्षा में पंजीकरण कराते हैं। हमारी स्नातकोत्तर शिक्षा व्यवस्था की हालत यह है कि जहां 20.58 फीसदी विद्यार्थी सामाजिक विज्ञान विषयों में और 16.92 फीसदी विद्यार्थी प्रबंध में पंजीकरण कराते हैं, जबकि कृषि और इंजीनियरिंग विषयों में छात्रों की हिस्सेदारी क्रमशः 0.61 और 6.34 प्रतिशत पर सिमटी हुई है। यही वजह है कि भारत में कौशलयुक्त श्रमबल में बेहद धीमी गति से बढ़ोतरी हो रही है।
यह नौकरशाही की उदासीनता का ही नतीजा है कि हमारी आबादी का बड़ा तबका पिछड़ता जा रहा है और लाखों लोग अकुशलता और बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर हैं। शिक्षा तक असमान पहुंच और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी के चलते हमने ऐसी व्यवस्था कायम की है, जहां कुलीनों के लिए तो रोजगार है, मगर आबादी का बड़ा हिस्सा छिपे तौर पर बेरोजगार बना हुआ है। हम अधिकारों के नाम पर बखेड़ा करते रहते हैं, जबकि पूरी दुनिया चार्टर स्कूल और ऑनलाइन शिक्षा के साथ जाने कहां पहुंच चुकी है। दिक्कत यह है कि जवाबदेही के मामले में हमारा नजरिया बिल्कुल साफ नहीं है। तार्किक चिंतन, समस्या समाधान और प्रगतिशील नैतिक मूल्यों की अनदेखी करते हुए हमारी शैक्षिक प्रणाली में बच्चों पर रटने और ग्रेड आधारित प्रतियोगिता का नाहक दबाव बनाया जाता है। अफसोस की बात यह है कि स्थिति में सुधार के जो प्रयास किए गए, वे बेमन से किए गए, और उनमें बजटीय आवंटन भी कम रहा। इसी वजह से हमारा देश मजदूरों और कॉल सेंटर के कर्मचारियों का देश बनकर रह गया है।
कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो कम जवाबदेही या सामुदायिक सहभागिता के बगैर स्कूलों का प्रबंधन शर्मनाक स्थिति में पहुंच गया है। शिक्षा के अधिकार के तहतगठित की गईं स्कूल प्रबंधन समितियों पर आसानी से स्थानीय पदाधिकारियों का कब्जा हो जाता है। अभिभावकों और विद्यार्थियों के हाथ में इतनी ताकत नहीं होती कि वे व्यवस्था को बदल सकें। स्थिति में सुधार के लिए जरूरी यह है कि स्कूल प्रबंधन समितियों को स्वतंत्र रखा जाए। इनमें अभिभावकों, शिक्षाविदों, शिक्षकों और स्थानीय पदाधिकारियों की सहभागिता होनी चाहिए। इन समितियों और अभिभावक-शिक्षक संघों को स्कूलों और शिक्षकों के प्रदर्शन की समीक्षा करने का अधिकार होना चाहिए, और इसी समीक्षा को शिक्षकों के भत्ते व पदोन्नति का आधार होना चाहिए। जवाबदेही और पर्यवेक्षण तंत्र को विकेंद्रीकृत किया जाना चाहिए, जिसमें स्कूली नेतृत्व को सम्मान या दंड देने की शक्ति अभिभावकों के पास हो।
दिक्कत दरअसल यह भी है कि हमने प्रतियोगिता के लिए प्रवेश परीक्षा को तो अपना लिया, मगर उससे पहले की प्रक्रिया की अनदेखी कर दी है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा केवल कुलीन वर्ग के विद्यार्थियों को मिल पाती है, जबकि पूरी शिक्षा व्यवस्था में ग्रामीण-शहरी और लिंग असमानता का फर्क बना रहता है। खासकर सरकारी स्कूलों के शिक्षक अनुपस्थित रहने की बीमारी का शिकार रहते हैं। इसके अलावा उनमें गुणवत्ता और स्व-प्रेरणा का भी गंभीर अभाव रहता है। इस स्थिति में सुधार के लिए सर्वशिक्षा अभियान में होने वाली फंडिंग को शिक्षकों की क्षमता निर्माण प्रक्रिया से जोड़ा जा सकता है। इसके तहत शिक्षकों की नियुक्ति अनुबंध के आधार पर होनी चाहिए। इसके अलावा शिक्षकों को शिक्षण के संदर्भ में ज्यादा स्वायत्तता भी मिलनी चाहिए। रचनात्मकता को प्रोत्साहन देने के लिए जिलों में नव प्रवर्तन केंद्रों की स्थापना होनी चाहिए। इसके अलावा एक बड़ा मुद्दा शिक्षा को वहनीय बनाने का भी है। इसके लिए एक राष्ट्रीय विद्यार्थी आर्थिक सहायता तंत्र की स्थापना होनी चाहिए, ताकि छात्रों के लिए दीर्घकालीन कर्ज की व्यवस्था की जा सके। इसके अलावा व्यक्तिगत शोधार्थियों के लिए प्रतिस्पर्धी अनुदान के लिए फंडिंग की भी व्यवस्था होनी चाहिए।
हम ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था बनने के लिए नव प्रवर्तनों की बात करते हैं। मगर इसके लिए नई व्यवस्था कायम करने के बजाय पहले से मौजूद व्यवस्था में सुधार ज्यादा जरूरी है। प्रशिक्षण की व्यवस्था, पेशेवर मानक और समुचित पर्यवेक्षण के साथ स्थानीय नियंत्रण में संतुलन लाने के लिए सतत सामुदायिक सहयोग की जरूरत होगी। बात सिर्फ अधिकारों तक सीमित नहीं है। साक्षरता को बढ़ाने के लिए हमें अपनी सोच को बड़ा और स्थानीय स्तर तक फैलाना होगा।