विदेशी पूंजी लाने की नीतियों का झंडा पिछले बीस-पच्चीस सालों से बुलंद है, पर ऐसी बेचैनी तब भी नहीं दिखी जब देश के पास विदेश व्यापार का मात्र दो-तीन हफ्ते का बिल भरने लायक विदेशी मुद्रा रह गई थी। और अगर न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर इस अध्यादेश को संसद का अपमान और लोकतांत्रिक परंपरा का उल्लंघन मानते हैं तो यह आलोचना ठीक मालूम पड़ती है। असल में सरकार ने मात्र डेढ़ महीने में यह कानून बदलने का वादा किया था। फिर विधेयक के प्रावधानों पर जब कांग्रेस ने आपत्ति की तो वह अधर में लटक गया, क्योंकि राज्यसभा से इसे कांग्रेस के समर्थन के बगैर पास कराना संभव नहीं है।
कांग्रेस का रुख इस मसले पर सरकार से अलग नहीं है, उसे बीमा की पूंजी भी विदेश ले जाने देने जैसे प्रावधानों पर जरूर आपत्ति थी। फिर विधेयक में बदलाव हुए तो मामला धर्मांतरण और गोडसे प्रेम और अजीब-अजीब तरह की बयानबाजियों से प्रधानमंत्री के अलग होने/साथ होने की सफाई पर अटका और राज्यसभा की कार्यवाही रुक गई। न प्रधानमंत्री ने अपनी जिद तोड़ी न विपक्ष ने। और तो और, विधेयक को इतना जरूरी मानने के बावजूद सरकार ने संसद के सत्र को बढ़वाने का विकल्प भी नहीं आजमाया। मंत्रिमंडल के फैसले की घोषणा करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सब कुछ बताया, पर जल्दबाजी की वजह नहीं बताई। इतनी सांप्रदायिक गरमागरमी में विदेशी पूंजी आएगी या नहीं, इस बारे में भी उन्होंने कुछ नहीं कहा।
वित्तमंत्री का अनुमान है कि इस कानून के आ जाने से करीब दो अरब डॉलर का विदेशी निवेश होगा, अर्थात करीब सवा लाख करोड़ रुपए का। पर जानकार इस अनुमान को बीस-पच्चीस हजार करोड़ से ऊपर ले जाने को तैयार नहीं हैं।अरुण जेटली और उनसे पहले मनमोहन-चिदंबरम का मानना था कि अभी हमारे यहां बीमा व्यवसाय (जीवन बीमा और वस्तु बीमा) मेंं काफी गुंजाइश है। पर असलियत यह है कि देश में शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे बीमा का पता न हो या जो अपना या अपने किसी सामान का बीमा कराना चाहता हो और उसे इस काम में कठिनाई हुई हो।
यह तथ्य भी सामने है कि बीमा राष्ट्रीयकरण के पहले बीमा लेने वालों की संख्या तो बहुत कम थी ही, बीमा-दावों के झगडेÞ बहुत थे, और कंपनियों द्वारा पैसे लेकर चंपत हो जाना आम था। आज भी विदेश की किसी कंपनी की तुलना में भारतीय जीवन बीमा निगम का दावा मंजूर करने का रिकार्ड बहुत अच्छा है और वह महंगे वकील रख कर ग्राहकों के पैसे देने में आनाकानी नहीं करता। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य बीमा से लेकर फसल बीमा जैसे जो भी नए प्रयोग हुए हैं उनका लाभ गरीबों और किसानों को मिला है या बीमा कंपनियों, मंत्रियों, अधिकारियों को, यह बहस का विषय है।
आज देश के जीवन बीमा के कारोबार में भारतीय जीवन बीमा निगम का हिस्सा अस्सी फीसद से ज्यादा है और इसके कामकाज को किसी भी सरकारी विभाग या राजनीतिक दल के दफ्तर के कामकाज से बेहतर ही माना जा सकता है। फिर यह तथ्य सबसे उल्लेखनीय है कि यह हर साल सरकार को बोनस के रूप में हजारों करोड़ रुपए देता है और वित्तीय बाजार की हर मुश्किल में सरकार और देश के काम आता है।
अब भी जिस दिन शेयर बाजार विदेशी निवेशकों के हाथ खींचने से औंधे मुंह गिरता है, एलआइसी और यूटीआइ जैसी कंपनियां ही बाजार का सहारा बनती हैं। यह अलग बात है कि केतन मेहता घोटाले की तरह कई बार राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव में इनसे गलत निवेश भी कराया जाता है और घाटा होने पर चोर को पकड़ने की जगह आम जनता की गाढ़ी कमाई को झोंक कर बाजार को संभाला जाता है। एक घोटाले में तो एक प्रधानमंत्री और उनके वित्तमंत्री के करीबी लोगों का नाम आया, पर उनमें से किसी का बाल भी बांका नहीं हुआ।
बीमा क्षेत्र का 1972 में राष्ट्रीयकरण होने से पहले देश में दो सौ पैंतालीस निजी बीमा कंपनियां थीं। इनमें से अनेक विदेशी थीं या उनके मुख्यालय विदेशों में थे। उनके भ्रष्टाचार, बीमाधारकों के पैसे हड़पने, प्रीमियम का पैसा विदेश भेजने, खुद को दीवालिया घोषित कराके पैसे हड़प जाने के किस्से लिखने बैठें तो पूरी किताब कम पड़ जाएगी। राष्ट्रीयकरण के बाद लोगों के भरोसे, पूंजी, दावों और सरकार की मदद का कैसा रिकार्ड रहा है इस पर भी किताब लिखी ही गई है।
पर इस तर्क को वे नहीं मानते, जिन्हें इस क्षेत्र में सोना ही सोना बिखरा दिखता है और हमारी सरकारें ऐसी दीवानी हुई पड़ी हैं कि अपनी तरफ से रोजगार और विदेशी पूंजी आने का तर्क जोड़ कर विदेशी धंधे वालों का समर्थन कर रही हैं। पर सिर्फ खुले पक्षधरों को देखेंगे तो धोखा खा जाएंगे। आज बीमा निजीकरण का पक्षधर पूरी बाजार-अर्थव्यवस्था है और उसका पूरा दबाव काम कर रहा है। असलमेंबाजारवादी अर्थव्यवस्था में बीमा और कुछ हद तक बैंक और शेयर बाजार पूरी अर्थव्यवस्था पर बाजार की पकड़ बनाने और मजबूत करने का काम करते हैं।
अमेरिका और यूरोप के चिकित्सा व्यवसाय और बीमा के रिश्ते को देखेंं। आज वहां हालत यह हो गई है कि बिना बीमा के किसी का इलाज संभव ही नहीं रह गया है। इतने महंगे इलाज के धंधे को बीमा के समर्थन के बगैर नहीं चलाया जा सकता। और इलाज-जांच-आॅपरेशन का महंगा धंधा न हो तो बीमा का धंधा बैठ जाए। जाहिर है, सब कुछ बीमाधारकों और मरीजों के मत्थे ही चल रहा है। अब यहां भी बीमा हो तो बेमतलब भी बड़ा इलाज होने लगा है। खैरियत यही है कि कहीं-कहीं सरकारी इलाज की व्यवस्था भी चल रही है। पर उदारीकरण के बीस-पच्चीस वर्षों में जिस तेजी से निजी क्षेत्र का दखल इलाज के काम में बढ़ा है वह जल्दी ही सरकारी व्यवस्था को बेमानी बना देगा।
मामला अकेले इलाज के धंधे का नहीं है कि स्वास्थ्य-बीमा हो तो फलां-फलां अस्पताल में ‘कैसलेस’ इलाज होगा (यह कभी नहीं बताया जाता कि इसका पैसा कब और कैसे वसूला गया है) और कहां दस-पांच फीसद खर्च करके। यह बात अब शिक्षा पर भी लागू होने लगी है। पर उससे भी ज्यादा घर, गाड़ी, फर्नीचर, घरेलू सामान और मोटा खर्च कराने वाली हर चीज पर यही व्यवस्था लागू होती दिखती है।
अगर बीमा चाहिए तो घर के दरवाजे-चौखट, बिजली की फिटिंग और प्लंबर का काम फलां-फलां कंपनी का ही होना चाहिए। देसी बढ़ई का काम हो, बिजली की फिटिंग बिना नाम या बीमा कंपनी की सूची से अलग नाम वाली कंपनी का हुआ नहीं कि आपके घर का, फर्नीचर का, घरेलू सामान का बीमा ही नहीं होगा। अर्थात बीमा एक पूरे पैकेज की तरह चलता है और यही सभी बाहरी आर्थिक ताकतों द्वारा बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश के लिए सीमा बढ़ाने की खातिर दबाव बनाने का काम करता है।
बीमा निजीकरण और विदेशी निवेश की वकालत पहलेपहल रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर आरएन मल्होत्रा की अगुआई वाली समिति ने की थी। समिति ने विदेशी पूंजी के लाभ की जगह देश में तब मौजूद राष्ट्रीयकृत कंपनियों के कामकाज की कमियां गिनाई थीं। पर असल में यह हमारी जरूरत नहीं है।
विदेशों का, खासकर विकसित देशों का बीमा बाजार अपनी संभावनाएं पूरी कर चुका है। वहां अब विस्तार की गुंजाइश नहीं है। बल्कि अमेरिका वगैरह में महंगी चिकित्सा-व्यवस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं क्योंकि वहां की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा खर्च करा कर भी सबको बढ़िया इलाज देना संभव नहीं रह गया है। अब वहां के मरीज बाहर सस्ता इलाज कराने जाते है। वहां बीमा कंपनियों के लिए महंगे और चंट वकीलों को रख कर भी मजबूत ग्राहक आंदोलन से पार पाना संभव नहीं हो पा रहा है। जापान में सबसे ज्यादा बीमा कंपनियां बंद हुई हैं या उनकी जायदाद नीलाम हुई है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में बीमा वाले ग्राहकों के भुगतान का प्रतिशत चालीस है, जबकि हमारा जीवन बीमा निगम सत्तानबे फीसद दावे मंजूर करता है। आज भी बाजार के अस्सी फीसद से ज्यादा हिस्से परकब्जे के बावजूद एलआइसी का अपने लगभग सात सौ ग्राहकों से ही कानूनी विवाद है, जबकि बीस फीसद से कम हिस्से वाली निजी कंपनियों (जो प्राय: विदेशी भागीदारी वाली हैं) के खिलाफ पिछले साल दो लाख से ज्यादा कानूनी मामले दर्ज हुए।
इन तथ्यों से बीमा निजीकरण और विदेशी हिस्सेदारी बढ़ाने वालों की बेचैनी तो समझी जा सकती है, अपनी सरकार और राजनीतिक दलों की बेचैनी को समझना आसान नहीं है। कायदे से तो अभी के छब्बीस फीसद के अनुभव को ही आधार बना कर कुछ कड़ाई की जानी चाहिए थी। पर जब सरकार इतनी बेचैन हो, मुख्य विपक्षी दल समर्थन देने को तैयार बैठा हो, ‘जनता परिवार’ इन बातों को अपनी चिंता लायक ही न मानता हो तो जो हो रहा है उसके अलावा बीमा क्षेत्र का हश्र और क्या हो सकता है!