नरेगा : प्रधानमंत्री के नाम गणमान्य नागरिकों की चिट्ठी

सेवा में,                                                                                                                            13 अक्तूबर 2014

श्री नरेन्द्र मोदी

प्रधानमंत्री, भारत

 

 

प्रिय प्रधानमंत्री जी,

हम लोग यह चिट्ठी भारत के राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम(नरेगा) के भविष्य के प्रति अपनी गहरी चिन्ता का इजहार करने के लिए लिख रहे हैं।

 

 

साल 2005 में राजनीतिक दलों की सर्वसम्मति से नरेगा अमल में आया। ऐसे लाखों लोग जिनका गुजर-बसर बड़ी मुश्किल से चल पा रहा है, उनकी जिन्दगी के लिए जरुरी आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिहाज से नरेगा एक दूरगामी कदम है।

 

 

अनेक बाधाओं के बावजूद , नरेगा से महत्वपूर्ण परिणाम हासिल हुए हैं। बड़े थोड़े से खर्च ( फिलहाल यह देश की जीडीपी का महज 0.3% है) से नरेगा के अंतर्गत चिह्नित कार्यस्थल पर हर साल तकरीबन 5 करोड़ लोगों को रोजगार मिल रहा है। नरेगा के अंतर्गत काम करने वाले कामगारों में ज्यादातर संख्या महिलाओं की है, और नरेगा कामगारों में तकरीबन आधी तादाद दलित तथा आदिवासी समुदाय के लोगों की है। बहुविध शोध-अध्ययनों का निष्कर्ष है कि नरेगा से व्यापक सामाजिक फायदा हुआ है, साथ ही इससे उत्पादक परिसंपत्ति के सृजन में मदद मिली है।

 

हाल के शोध-अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि नरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार का स्तर समय बीतने के साथ अपेक्षाकृत कम हुआ है। मिसाल के लिए, नरेगा के अंतर्गत हुए रोजगार सृजन के बारे में आधिकारिक आकलन कमो-बेश उतना ही है जितना कि द्वितीय भारत मानव विकास सर्वेक्षण के स्वतंत्र आकलन में बताया गया है। नरेगा में भ्रष्टाचार निश्चित ही एक समस्या है लेकिन अनुभवों से जाहिर है कि भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है और नरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने की लड़ाई सामाजिक कल्याण की अन्य योजनाओं में भी पारदर्शिता के नये मानक स्थापित करने में सहायक सिद्ध हुई है।

 

इसमें कोई शक नहीं कि नरेगा कार्यक्रम बेहतर हो सकता था और उसे बेहतर होना चाहिए। तो भी, यह बात स्वीकार की जानी चाहिए कि नरेगा से जो फायदे हुए हैं वे अपने आप में ठोस और महत्वपूर्ण हैं और अपने आप में इस बात की दलील हैं कि नरेगा को सफल बनाने के लिए आगे प्रयास किए जाने चाहिए।

 

इन बातों के आलोक में, यह जानकर बड़ी चिन्ता हो रही है कि नरेगा के प्रावधानों को कमजोर या फिर उनका दायरा संकुचित करने की बहुविध कोशिश( जिनमें कुछ पिछली सरकार के वक्त की हैं) हो रही है। मजदूरी (वास्तविक पदों में) ठहराव का शिकार है और मजदूरी के भुगतान में होने वाली देरी से उसका वास्तविक मूल्य और ज्यादा कम हो रहा है।

 

अधिनियम का एक शुरुआती प्रावधान है कि मजदूरी के भुगतान में विलंब होने पर इस एवज में मुआवजा दिया जाएगा लेकिन इसे हटा लिया गया है। मजदूरी और सामान का अनुपात 60:40 से घटाकर 51:49 करने की बात चल रही है जबकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि ऐसा करने से नरेगा के कार्यों की उत्पादकता बढ़ेगी। पहली बार ऐसा हो रहा है कि केंद्र सरकार राज्यों को नरेगा के मद में होने वाले खर्चको सीमित ऱखने के बारे में कह रही है जो कि मांग के अनुसार काम देने के सिद्धांत के विपरीत है।

 

आखिर में एक बात यह कि केंद्र सरकार नरेगा को देश के सर्वाधिक गरीब 200 जिलों तक सीमित करने संबंधी संशोधन के बारे में सोच रही है। यह अधिनियम की बुनियादी प्रतिज्ञा के खिलाफ है। अधिनियम की बुनियादी प्रतिज्ञा ऐसे लाभदायी रोजगार प्रदान करने की है जो बुनियादी आर्थिक सुरक्षा प्रदान करे और यह एक मानवाधिकार है। गौरतलब है कि भारत के अपेक्षाकृत समृद्ध जिले भी बेरोजगारी या फिर गरीबी से निकट भविष्य में मुक्त हो सकेंगे, ऐसा नहीं जान पड़ता।

 

संदेश यही निकलता प्रतीत होता है कि नई सरकार नरेगा को लेकर प्रतिबद्ध नहीं है और इसे यथासंभव संकुचित करना चाहती है। आपसे हमारी पुरजोर विनती है कि इस रुझान को रोकें और यह सुनिश्चित करें कि नरेगा कार्यक्रम को वह सारी मदद मिल सके जो उसे बरकरार रखने और आगे बढ़ाने के लिए जरुरी है।

 

 

विश्वासभाजन,

दिलीप अबरु (प्रोफेसर,अर्थशास्त्र, प्रिन्स्टन यूनिवर्सिटी)

प्रणब वर्धन ( प्रोफेसर एमरिटस्, अर्थशास्त्र , यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले)

वी भास्कर ( प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास, आस्टिन)

अश्विनी देशपांडे (प्रोफेसर, अर्शास्त्र, डेल्ही स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स)

ज्यां द्रेज (विजिटिंग प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग, रांची यूनिवर्सिटी)

मैत्रीश घटक (प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स)

जयति घोष ( प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी)

दीप्ति गोयल (असि. प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, डेल्ही स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स)

हिमांशु (असि. प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी)

राज़ी जयरमण (एसो. प्रोफेसर, युरोपियन स्कूल ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नॉलॉजी)

के पी कन्नन (पूर्व निदेशक, सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, त्रिवेंद्रम)

अनिर्बण कार (एसो. प्रोफेसर, डेल्ही स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स)

रीतिका खेड़ा (एसो. प्रोफेसर,आईआईटी दिल्ली)

अशोक कोटवाल (प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया)

एस. महेन्द्र देव (निदेशक, इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च)

सृजिक मिश्र (एसो. प्रोफेसर, इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च)

दिलीप मुखर्जी (प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, बोस्टन यूनिवर्सिटी)

आर नागराज ( प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च)

सुधा नारायणन (असि. प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च)

पुलिन नायक (प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, डेल्ही स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स)

नलिनी नायक (रीडर, अर्थशास्त्र, दिल्ली यूनिवर्सिटी)

भरत रामास्वामी (प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली)

देबराज रे (प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, न्यूयार्क यूनिवर्सिटी)

अतुल शर्मा (पूर्व वाइस चांसलर, राजीव गांधी यूनिवर्सिटी)

अभिजीत सेन (पूर्व सदस्य, योजना आयोग)

जीमोल उन्नी (निदेशक, इंस्टीट्यूट ऑफ रुरल मैनेजमेंट, आनंद)

सुजाता विसारिया (असि. प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, हांगकांग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी)

विजय व्यास (पूर्व सदस्य,प्रधानमंत्री के आर्थिक परामर्श परिषद के पूर्व सदस्य)

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