सतशिवम- लोकपाल या राज्यपाल?- हरि जयसिंह

पूर्व प्रधान न्यायाधीश पी. सतशिवम को केरल का राज्यपाल बनाए जाने पर कई बुनियादी कानूनी और राजनीतिक मुद्दे उठे हैं, जिन पर अकादमिक दृष्टिकोण के साथ बहस की जानी चाहिए। लेकिन तब भी इसे एक ऐसे व्यक्ति की योग्यताओं के साथ न्याय नहीं किए जाने की तरह ही देखा जाएगा, जिसने यह पद पाने के लिए किसी तरह की ‘लॉबिंग" नहीं की थी।

अनेक क्षेत्रों से इस आशय के प्रश्न उठे हैं कि क्या देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश को इस तरह का कोई पद स्वीकार करना चाहिए। इस पर मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि यह तो किसी भी व्यक्ति का निजी निर्णय है और उसके विवेक पर निर्भर करता है। इसके लिए उसे स्वयं को नैतिकता के उच्च पदों पर विराजित कर देने वाले ऐसे व्यक्तियों के परामर्श की आवश्यकता नहीं है, जो शायद अपने जीवन में ही उन उच्च नैतिक मानकों का पालन नहीं करते होंगे।

मैं इस बात से इनकार नहीं करूंगा कि राज्यपाल के पद का अतीत की सरकारों या मौजूदा सरकार द्वारा राजनीतिकरण नहीं किया गया है। वास्तव में कांग्रेस की सरकारें तो बेहद ढिठाई के साथ राजभवनों का इस्तेमाल अनचाहे राजनेताओं के ‘डंपिंग ग्राउंड" की तरह करती रही हैं। अपने दस साल के राज में यूपीए सरकार ने घोटाले के आरोपों का सामना कर रहे अपने राजनेताओं को राजभवन की सुरक्षित दीवारों के भीतर भेजने का कोई मौका नहीं गंवाया, क्योंकि राज्यपाल जैसे पद पर आसीन किसी व्यक्ति पर इस तरह की कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती। केरल के राज्यपाल पद पर शीला दीक्षित की नियुक्ति इसका सबसे बड़ा उदाहरण था।

यह याद रखा जाना चाहिए कि दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों में शीला दीक्षित को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था और वे कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन संबंधी घोटालों से जुड़े आरोपों का सामना भी कर रही थीं। कांग्रेस नेताओं को अपनी पार्टी के उस निर्णय को याद रखते हुए यह बात समझना चाहिए कि राज्यपाल पद के राजनीतिकरण की शिकायत करने का उन्हें कोई नैतिक अधिकार नहीं है।

हम इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि संवैधानिक मूल्यों और राजनीतिक प्रणाली के संचालन तंत्र के बीच एक बुनियादी द्वैत है और राजनीति का मकसद हमेशा ही संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करते हुए आगे बढ़ना नहीं होता। मेरेडिथ ने कहा था कि नैतिकता और मूल्यों के मामलों में हमें सबसे ज्यादा वही अनुचित छलता है, जो कि हमारे भीतर ही मौजूद है।

जहां तक कांग्रेस द्वारा लगाए गए इस आरोप का सवाल है कि जस्टिस पी. सतशिवम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को ‘खुश" करने के लिए पुरस्कृत किया गया है, तो मेरा मानना है कि इस तरह के आरोप सबसे ज्यादा जस्टिस सतशिवम के साथ ज्यादती हैं, क्योंकि प्रधान न्यायाधीश के रूप में उनका कार्यकाल बेदाग रहा था। खुद सतशिवम ने इन आरोपों का बेहद साफगोई से जवाब दिया है। उन्होंने कहा है कि ‘जब हम उस मामले (तुलसी प्रजापति एनकाउंटर केस में अमित शाह के खिलाफ दर्ज एफआईआर) की जांच कर रहे थे, तब किसी को भी यह नहींपता था कि शाह आगे चलकर भाजपा अध्यक्ष बनेंगे। वैसे भी हमने शाह को इस मामले में क्लीनचिट नहीं दी है। वास्तव में मैंने तो सोहराबुद्दीन मामले को भी महाराष्ट्र में शिफ्ट करवा दिया था। एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश पर इस तरह के आरोप लगाना अनुचित है।"

वास्तव में हमें इस मामले से जुड़े एक बड़े पहलू पर ध्यान देना चाहिए। देश के कुछ प्रमुख कानूनविदों, अखिल भारतीय अभिभाषक संघ और केरल अभिभाषक संघ द्वारा इस बारे में ध्यान आकृष्ट कराया गया है। अखिल भारतीय अभिभाषक संघ के अध्यक्ष आदीशचंद्र अग्रवाल का कहना है कि ‘पी. सतशिवम लोकपाल पद के उम्मीदवार थे और उन्हें केरल का राज्यपाल बनाने का निर्णय लेकर केंद्र सरकार ने उन्हें लोकपाल जैसे महत्वपूर्ण पद से वंचित कर दिया है। देश का पहला लोकपाल किसी पूर्व प्रधान न्यायाधीश को ही होना चाहिए, जबकि राज्यपाल तो किसी को भी बनाया जा सकता है।" आदीशचंद्र अग्रवाल की बातों में दम है। मैं इस बात पर उनसे सहमत हूं कि लोकपाल पद के लिए पी. सतशिवम एक बेहतर विकल्प हो सकते थे। लेकिन हम इस बारे में कुछ भी नहीं जानते कि प्रधानमंत्री का दिमाग किस तरह से काम करता है।

हो सकता है, राजनीतिक आधार पर अन्य राज्यपालों की नियुक्तियां करने के बाद प्रधानमंत्री मोदी शायद यह साबित करना चाह रहे हों कि उनके कुछ निर्णय ‘राजनीति से ऊपर" भी हो सकते हैं। बहरहाल, यदि मोदी यही साबित करना चाहते थे, तो भी देश में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं थी, जो अपनी नैतिक निष्ठा के आधार पर राज्यपाल बनने की योग्यता रखते हों। लोकपाल जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए उन्हें सतशिवम की उम्मीदवारी को इस तरह से खत्म नहीं करना चाहिए था। लेकिन भारतीय राजनीति हमेशा से इसी तरह शीर्ष पद पर बैठे व्यक्तियों के निर्णयों से ही संचालित होती रही है। राजनीति के शीर्ष पद निश्चित ही सम्राट विक्रमादित्य और उनके प्रख्यात सिंहासन की तरह नहीं होते। आज की राजनीति में राज्यसत्ता से उस तरह की न्यायप्रियता और औचित्य के निर्वाह की अपेक्षा रखना कठिन ही है।

बहरहाल, फैसला तो हो चुका। अब हमें यही अपेक्षा करनी चाहिए कि जस्टिस सतशिवम अपनी निष्ठा और निष्पक्षता से राज्यपाल के पद का उन्न्यन करेंगे। वे पहले ही कह चुके हैं कि वे कोई राजनेता नहीं हैं और किन्हीं भी राजनीतिक कारणों से राजभवन का इस्तेमाल नहीं होने देंगे। शायद इस बात को जानकर ही देश के पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केवी विश्वनाथन ने पी. सतशिवम को लिखे अपने पत्र में कहा था कि ‘एक न्यायाधीश के रूप में आप हमेशा दृढ़ और निर्णयशील रहे। प्रधान न्यायाधीश के रूप में आपके द्वारा दिखाए गए प्रशासनिक कौशल की आज भी सराहना की जाती है।"

यही कारण है कि राज्यपाल के पद का अतीत में जिस तरह से राजनीतिक कारणों से और संवैधानिक मानकों के खिलाफ उपयोग किया जाता रहा है, उसके मद्देनजर हमें जस्टिस सतशिवम को केरल का राज्यपाल बनाए जाने के निर्णय को एक सांत्वना की तरह लेना चाहिए। इसीलिए यह उम्मीद भी की जानी चाहिए कि तमिलनाडु के एरोड़े जिले के एक दूरस्थ गांव के पूर्व किसानपी.सतशिवम राज्यपाल के पद को उसकी वांछित गरिमा लौटाने में सफल रहेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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