प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने अपने वादे के अनुरूप जो शुरुआती
काम किए हैं, उनमें से एक उल्लेखनीय काम उमा भारती को जल संसाधन और खासकर
गंगा के पुनरुद्धार की जिम्मेदारी सौंपना रहा है। उमा इस चुनौती के लिए
सर्वाधिक उपयुक्त कही जा सकती हैं, क्योंकि एक वही हैं, जिन्होंने यूपीए के
शासनकाल में सोनिया गांधी से मिलकर गंगा को बचाने की पहल करने की अपील की
थी।
पर क्या गंगा को जीवन देना इतना आसान है? असल में इसमें इतनी
ज्यादा दिक्कतें हैं कि पिछली यूपीए सरकार इस संबंध में सिर्फ योजनाएं
बनाकर रह गई। इस संबंध में जो थोड़े-बहुत काम हुए भी, वे राजनीतिक
इच्छाशक्ति के अभाव में बीच में ही दम तोड़ गए। गंगोत्री से निकलकर ऋ
षिकेश-हरिद्वार होते हुए बंगाल की
खाड़ी में समाने से पहले 2,525
किलोमीटर लंबा सफर तय करने वाली गंगा का जो हाल बीते कुछ दशकों में हुआ है,
उसका नतीजा यह है कि हरिद्वार के आगे उसका जल आचमन लायक नहीं समझा जाता।
वैज्ञानिक
आधारों पर बात करें, तो नदियों के प्रति सौ मिलीलीटर जल में कोलीफार्म
बैक्टीरिया की तादाद 5000 से नीचे होनी चाहिए, पर बनारस में गंगा के सौ
मिलीलीटर जल में 58000 कोलीफार्म बैक्टीरिया पाए गए हैं। केंद्रीय प्रदूषण
नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मुताबिक बैक्टीरिया की संख्या सुरक्षित
मात्रा से 11.6 गुना ज्यादा है। ये हालात गंगा में मिलने वाले बगैर उपचारित
सीवेज के कारण पैदा हुए हैं, जो इसके तट पर मौजूद शहरों से निकलता है। इसी
साल फरवरी में स्मृति ईरानी द्वारा पूछे गए एक सवाल के जवाब में तत्कालीन
पर्यावरण मंत्री वीरप्पा मोइली ने राज्यसभा में बताया था कि गंगा के किनारे
मौजूद शहरों से रोजाना 2.7 अरब लीटर सीवेज का गंदा और विषैला पानी निकलता
है। इन शहरों में मौजूद ट्रीटमेंट प्लांट्स इसमें से सिर्फ 1.2 अरब लीटर
सीवेज की सफाई कर पाते हैं। देश की दूसरी नदियों का हाल इस तथ्य से बयान
हो जाता है कि हमारे शहरों-कस्बों से रोज 38.2 अरब लीटर सीवेज का गंदा पानी
निकलता है, जिसमें से सिर्फ 31 फीसद सीवेज के ट्रीटमेंट की व्यवस्था देश
में हैं। ऐसे में नदियों में मिलने वाले प्रदूषण का अंदाजा आसानी से लगाया
जा सकता है।
हमारे देश में गंगा व अन्य नदियों को तीन तरह के
प्रदूषणों का सामना करना पड़ रहा है। पहला तो शहरों-कस्बों से नालों के रूप
में मिलने वाला सीवेज ही है। दूसरा औद्यागिक अवशेष (कचरे) और खतरनाक
रसायनों का प्रदूषण है। तीसरे, खाद और कीटनाशकों के वे अवशेष हैं, जो खेतों
की सिंचाई के पानी से रिसकर नदी में मिल जाते हैं। हरिद्वार क्षेत्र तक
आते-आते उत्तराखंड की 12 नगरपालिकाओं के तहत 89 सीवेज नाले गंगा में मिल
जाते हैं। हरिद्वार में तीन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स हैं, जो पूरी क्षमता
से काम करने के बावजूद सीवेज का सारा पानी साफ नहीं कर पाते हैं।
इसके
बाद गंगा किनारे पड़ने वाला बड़ा शहर कानपुर है, जहां बेशुमार औद्योगिक
कचरा इसमें प्रवाहित होता है। इसी तरह इलाहाबाद में आधा दर्जन बड़े नालों का
पानी सीधे गंगा में गिरता है। हालांकि एक दशक पहले यहां के 58 नाले गंगा
कीदुर्दशा कर रहे थे, पर मौजूदा आधा दर्जन नालों के प्रदूषण का यथावत गंगा
में मिलना कोई राहत नहीं दे रहा है। बनारस में भी रोज एक तिहाई से ज्यादा
सीवेज गंगा में बिना ट्रीटमेंट के मिल रहा है। इस शहर के 33 नालों का गंदा
पानी गंगा में न मिले, इसे रोकने का कोई ठोस उपाय नहीं किया गया है।
सरकार
ने गंगा को साफ करने की ठानी है, जिसके लिए उसकी सराहना की जानी चाहिए,
किंतु यहां कुछ और चीजों को ध्यान में रखना होगा। मसलन, गंगा छोटी नदी नहीं
है। 2,525 किमी लंबी गंगा विभिन्न् प्रांतों में बहते हुए लाखों की
रोजी-रोटी का इंतजाम भी करती है। पर्यावरण व वन मंत्रालय के तुलनात्मक
आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो गंगा की साफ-सफाई के काम की मुश्किलों का अंदाजा
हो जाता है। जैसे लंदन की 346 किमी लंबी टेम्स नदी को स्वच्छ बनाना इसलिए
आसान रहा, क्योंकि उसके किनारे सिर्फ 14 लाख लोग बसे हैं, जबकि गंगा किनारे
बसे शहरों में पांच करोड़ लोग रहते हैं। पैसे के खर्च का भी बड़ा अंतर है।
टेम्स की सफाई पर सिर्फ 5 अरब रुपयों (डॉलर नहीं) का खर्च आया, जबकि गंगा
की सफाई पर 200 अरब रुपए पहले ही खर्च हो चुके हैं। अब नए सिरे से गंगा की
सफाई का जिम्मा लेने पर और भी ज्यादा रकम खर्च हो सकती है।
बहरहाल,
इतना तो तय है कि गंगा की स्वच्छता का कोई भी अभियान इसके किनारे बसे लोगों
को साथ जोड़े बिना मुमकिन नहीं है। यह काम न तो प्रचार अभियान और शिक्षण से
होगा और न ही बड़े संगठनों को भारी-भरकम बजट मुहैया कराने से। यह तभी
मुमकिन है, जब लोग गंगा की महत्ता को समझते हुए इसे स्वच्छ रखने वाले दैनिक
अनुशासन से जुड़ें और इसकी साफ-सफाई की जिम्मेदारी में अपना हिस्सा भी तय
करें। जिस रोज जनता समझ जाएगी कि उसका वजूद नदियों की वजह से ही है, इन
पुण्यसलिलाओं के साज-संभाल के काम में आसानी होने लगेगी और उनके संरक्षण के
सरकारी और गैरसरकारी आयोजन भी सार्थक साबित होने लगेंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)