खाद्य पदार्थो की लगातार बढ़ती कीमतों ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा
है. इस मूल्य वृद्धि को अकसर मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन से जोड़ कर
देखा जाता है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि देश में खाद्यान्नों के उत्पादन
में लगातार वृद्धि हुई है. फिर क्या वजह है खाद्य पदार्थो के मूल्य में
होनेवाली वृद्धि की? क्या इसके पीछे जमाखोरों और सट्टेबाजों का हाथ है?
आखिर किस तरह कम की जाये खाद्यान्नों की कीमत? इन्हीं सवालों का जवाब दे
रहे हैं हमारे विशेषज्ञ.
भारत में महंगाई ने पिछले चार वार्षो में आम आदमी की कमर तोड़ कर दख दी
है. दुनिया में जहां महंगाई दर कम हुई है, भारत में लगातार बढ़ी है. दरअसल,
वैश्विक स्तर पर कीमतों के घटने के पीछ दो-तीन कारण काम करते हैं. उदाहरण
के तौर पर अमेरिका में कपास की खेती को देखें. 2005 में मैंने एक स्टडी की
थी कि अमेरिका में कपास का कुल उत्पादन 3.9 अरब डॉलर का था. इसके लिए वहां
की सरकार ने किसानों को 4.7 अरब डॉलर की सब्सिडी दी. साथ ही इंडस्ट्री को
18 करोड़ डॉलर दिये कपास की उपज को खरीदने के लिए. यहां किसानों को सहायता
दी गयी और इंडस्ट्री को भी. इससे इंटरनेशनल मार्केट में कपास की कीमतें 42
फीसदी गिर गयीं.
इसी तरह यूरोप में दूध के प्रोडक्शन को अच्छी खासी सब्सिडी मिलती है.
वहां की सरकार दुग्ध उत्पादों को हर स्तर पर खरीदती है. मक्खन, ‘चीज’ जैसे
सभी डेयरी प्रोडक्ट पर सब्सिडी देती है. इसलिए वहां वस्तुओं का मूल्य गिर
जाता है. लेकिन भारत में खेती की लागत देख कर लोगों को लगता है कि यहां के
किसानों को खेती करना नहीं आता. जबकि भारत में न किसानों को सब्सिडी मिलती
है, न ही उपभोक्ता को. यह एक बड़ा कारण है जिससे हमारे यहां महंगाई नजर आती
है. लेकिन इसके बावजूद कोई कारण नहीं था कि भारत में पिछले पांच साल में
महंगाई बढ़े, क्योंकि कहीं पर पैदावार में कमी नहीं हुई. सिवाय सीजनल
वेरियशन के कि कभी थोड़ा मौसम खराब हो गया, तो टमाटर या आलू की उपज पर फर्क
पड़ गया या किसी अन्य सब्जी की कमी आ गयी.
जब देश में हर साल पैदावार बढ़ रही है, फिर क्या कारण है कि महंगाई भी
बढ़ रही है? इस पर ध्यान नहीं दिया गया. ध्यान इसलिए नहीं दिया गया,
क्योंकि हमारे देश के अर्थशास्त्री किताबों में दर्ज बातों से आगे नहीं
देखेते. टेक्स्ट बुक में लिखा है कि महंगाई तब बढ़ती है, जब सप्लाई और
डिमांड (मांग और आपूर्ति) मिसमैच होता है. लेकिन पैदावार यानी सप्लाई तो कम
हुई ही नहीं, फिर महंगाई क्यों बढ़ी? उदाहरण के तौर पर 2012-13 में भारत
के पास रिकॉर्ड गेहूं और धान का सरप्लस था. जून में देश में 820 लाख टन का
भंडार था गेहूं और धान का. फिर भी गेहूं और धान की कीमतें बढ़ी हैं. प्याज
की पैदावार में मात्र चार प्रतिशत का घाटा हुआ था लेकिन कीमतें छह सौ फीसदी
बढ़ीं. यही बाकी सब्जियों का हाल था. प्याज की कीमतें अब थोड़ा नीचे आयी
हैं, तो आजकल अंडे के दाम आसामनछू रहे हैं. पांच रुपये में एक अंडा मिल
रहा है. इस पर यह दलील कि खपत बढ़ने के कारण दाम बढ़ रहे हैं, यकीन से परे
है. खपत एक ही दिन में नहीं बढ़ जाती है. मुङो याद है दिसंबर के महीने में
जब मैं मुंबई में था, वहां दो हफ्तों के अंदर देखा गया कि अंडे के दाम ढाई
से पांच रुपये हो गये. क्या दो हफ्ते में देश में लोग अंडा अधिक खाने लगे
या मुर्गियों ने अंडे देने कम कर दिये! इससे जाहिर होता है कि देश के
अर्थशास्त्री स्थिति का ठीक आकलन नहीं कर रहे हैं. यही कारण है कि देश की
आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है.
प्याज और सब्जियों के अलावा भी महंगाई के कई फैक्टर हैं. इसलिए इसे
व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है. एक और उदाहरण देखिए. हवाई जहाज
में एक ही रूट के टिकट की कीमतें इंटरनेट पर हर क्लिक के साथ बढ़ जाती
हैं.आज देश में दिल्ली से गोवा जाना महंगा है और दिल्ली से दुबई या बैंकॉक
जाना सस्ता है. खाद्य पदार्थ की कीमतें बढ़ने पर कहा जाता है कि एग्रीकल्चर
प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) की वजह से महंगाई बढ़ रही है. अब हवाई
जहाज में तो एपीएमसी है नहीं, फिर क्या कारण है कि कीमतें बढ़ रही हैं? इसी
तरह फ्लैट की कीमतें आसमान छू रही हैं. रियल स्टेट में भी एपीएमसी नहीं है
फिर क्यों वहां कीमतें बढ़ रही हैं? जबकि हम यह भी मानते हैं कि अधिकतर
मकान खाली पड़े हैं. अगर डिमांड और सप्लाई से कीमतें तय होती हैं, तब तो
मकानों की कीमत गिरनी चाहिए. लेकिन नहीं गिर
रही हैं. मतलब साफ है कि कारण कहीं और है पर उसका समाधान कहीं और ढूंढ़ा
जा रहा है. जाहिर है यह सब राजनीति से प्रेरित है. यहां राजनीति से
तात्पर्य इकोनॉमिक्स की पॉलिटिक्स से है. भारत में ऑर्गनाइज्ड रिटेल
रिलांयस फ्रेश, इजी डे, बिग बाजार जब आये, तो इन्होंने कहा कि हमें मंडी
में टैक्स देना पड़ता है. अगर टैक्स में छूट मिल जाये, तो हम सस्ता बेच
सकते हैं. सरकार ने इनको छूट दे दी. इसके बावजूद जब प्याज के दाम सौ रुपये
थे, तब रिलायंस फ्रेश जैसे रिटेल स्टोर एक रुपये कम कर 99 रुपये किलो में
बेचते थे. अब बताया जाये कि इन रिटेलों को जिन बिचौलियों को समाप्त करने की
दलील के साथ लाया गया, वह कहां खत्म हुए? इन लोगों ने किसानों को क्या
फायदा दिया? स्पष्ट है कि इनमें और अढ़ातियों में कोई फर्क नहीं है. हाल
में कुछ रिपोर्ट्स आयी हैं, जो कहती हैं कि किसानों से पचास पैसे पर प्याज
खरीदी गयी थी और मार्केट में सौ रुपये में बेची गयी.
कहा जाता है कि बीच में सप्लाइ चेन और कोल्ड स्टोरेज न होने से चीजें
महंगी बिक रही हैं. पर रिलायंस फ्रेश के पास तो कोल्ड स्टोरेज होना चाहिए
फिर उन्होंने क्यों नहीं सस्ते बेचे? सच्चई यह है कि सिर्फ कृषि ही नहीं,
हर सेक्टर में एक कार्टल (मूल्य-संघ) काम करता है और कीमतें तय करता है.
इसके लिए मैं आपको बीस साल पीछे ले जाऊंगा, जबमैंनेइंडियन एक्सप्रेस में
एक रिपोर्ट की थी. देश को उस रिपोर्ट ने बहुत झकझोड़ा था. मैंने उसमें कहा
था कि देश में अंडे के दाम जामा मसजिद के पास एक छोटे से कमरे में बैठा एक
आदमी तय करता है. मैं उससे वहां मिलने भी गया था. इस बात को ऐसे समझने की
जरूरत है कि जनसंख्या के लिहाज से दिल्ली और चंडीगढ़ दोनों में फर्क है.
फिर सप्लाई और डिमांड की बात यहां कैसे लागू होती है. फिर भी दोनों जगह एक
चीज की वही कीमत है. ऐसा इसलिए है क्योंकि कीमत पर एक कार्टल का नियंत्रण
है. आज देश में मात्र चार-पांच लोग हैं मार्केट में जो यह तय करते हैं कि
देश में अंडे की कीमतें क्या होंगी. इसी तरह से प्याज में 12-15 घराने हैं,
जिन्हें होलसेल डीलर कहते हैं, वही इसके पूरे व्यापार को डिटरमाइन करते
हैं. हवाई जहाज में भी मात्र चार कंपनियां हैं. रियल स्टेट में पंद्रह
कंपनियां हैं जो तय करती हैं कि कीमतें क्या होंगी. हर जगह कार्टल ऑपरेट कर
रहे हैं. सप्लाइ और डिमांड का कीमतों के बढ़ने से कोई स्पष्ट रिश्ता नहीं
रह गया है. कार्टल ही उपभोक्ता को लूटते हैं और उत्पादक को भी.
इस बात को ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब दिल्ली में सब्जियां महंगी हुईं
थीं, तो तत्कालीन मुखमंत्री शीला दीक्षित ने कहा था,’मैं हाथ जोड़कर
प्रार्थना करती हूं कि मुनाफाखोर कीमतें न बढ़ायें.’ मुख्यमंत्री को अगर
हाथ जोड़ना पड़े, तो यह स्पष्ट है कि उसकी भी सीमाएं हैं. इसे ऐसे समझ सकते
हैं कि दिल्ली की आजाद मंडी हो या ओखला मंडी, वहां चेयरमैन सरकार नियुक्त
करती है. अब तक वहां कांग्रेस का आदमी रहा है. हाल में सरकार बदली है, तो
वह दूसरी पार्टी का हो जायेगा. महाराष्ट्र की मंडियों में कांग्रेस या
शिवसेना और पंजाब में अकालियों का मिलेगा. ये मंडियां राजनीतिक पार्टियों
के लिए पैसे की थैली के तौर पर काम कर रही हैं. जाहिर है कि महंगाई में
दोनों की भूमिका है.
हाल ही में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट आयी है, जिसके
मुताबिक पंजाब में तकरीबन बीस हजार आढ़तिये हैं. मंडिया पंजाब में बहुत हैं
और उनका कहना है कि हर साल सरकार एक हजार करोड़ रुपया आढ़तियों को ‘कुछ भी
न करने के लिए’ देती हैं. देश में गेहूं और धान की कीमतें एफसीआइ देती है.
लेकिन सरकार किसानों को पेमेंट आढ़तियों के माध्यम से करती है. इसके लिए
आढ़तिये ढाई प्रतिशत कमीशन लेते हैं. यह कमीशन किसलिए? जबकि किसान कब से
मांग कर रहे हैं कि उन्हें सीधे पेमेंट की जाये. अगर आढ़तियों को साल में
एक हजार करोड़ रुपया बिना किसी काम के मिल रहा है, तो समझा जा सकता है कि
इससे राजनीतिक दलों को कितना फायदा होता होगा. पंजाब सरकार हाइकोर्ट के
आदेश के बाद भी इसमें अड़ंगे लगा रही है. आढ़तियों के दुष्चक्र को तोड़ने
का काम सरकार का है और इसके लिए सिर्फ ईमानदार नीयत चाहिए.
अब बात इस पर कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य कैसे मिले. इसे
दुर्भाग्य ही कहेंगे कि कि आज देश में एफडीआइ रीटेल के लिए आसानरास्ते
तलाशे जा रहे हैं. कोई भी रीटेल ज्यादा से ज्यादा फायदा कमाने के इरादे से
ही किसी देश में आता है. इसके लिए वो सस्ता अनाज और सस्ती सब्जियां चाहता,
जिसे महंगे दामों में बेच सके. इसे बदकिस्मती ही कहेंगे कि कमीशन फॉर
एग्रीकल्चर कॉस्ट इन प्राइसेस (सीएसीपी), जिसका काम किसानों की उपज के लिए
वास्तविक मूल्य की घोषणा करना है, वो कह रही है, देश में मार्केट को तय
करना चाहिए कि कीमतें क्या हों. उसने एक चार्ट बनाया, जो अखबारों में खूब
छपा. जिसमें बताया गया कि कौन-कौन से राज्य कृषि के लिहाज से मार्केट
फ्रेंडली हैं. इसमें बिहार टॉप पर था और पंजाब सबसे निचले पायदान पर. अब
देखिए, बिहार में एपीएमसी नहीं है, तो मंडियां नहीं हैं. इसलिए अगर धान की
कीमत1310 रुपये है, तो वहां के किसानों को 800 या 900 रुपये मिलते हैं.
पंजाब में किसान को पूरे1310 रुपये मिलते हैं, क्योंकि वहां पर मंडियां
हैं. ऐसे में मार्केट फ्रेंडली का मतलब क्या हुआ? किसानों को मार दो? अगर
आप पंजाब को मार्केट फ्रें डली कर देंगे, तो पंजाब में भी किसानों को
बिहारवाली कीमतें मिलेंगी. इससे क्या किसानों को फायदा होगा? इसका अर्थ
स्पष्ट है कि सरकार चाहती है कि किसान मरें. अगर सरकार सच में किसानों का
हित चाहती है, तो सारे देश में मंडिया बनायी जायें ताकि किसानों को उनकी
उपज का वाजिब दाम मिले. लेकिन यह नहीं हो रहा है, बल्कि किसानों को खेती
से बेदखल करने के इरादे ही दिख रहे हां. प्रधानमंत्री खुद कहते हैं कि देश
को सत्तर फीसदी किसानों की जरूरत नहीं. वह कहते हैं कि इकोनॉमिक पॉलिसी ऐसी
हो, जो इनको खेती से निकाल कर इंडस्ट्री में लेबर बनाये. इसी के साथ भूमि
अधिग्रहण बिल को भी समझने की जरूरत है. जयराम रमेश ने कहीं गलती से कह दिया
था कि यह इतना अच्छा बिल है कि अगले बीस साल में इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी.
उन्होंने बिल्कुल ठीक कहा, क्योंकि अगले बीस साल में खेतीवाली जमीन रहेगी
ही नहीं, तो किसान अपने आप ही खत्म हो जायेंगे. सरकार अगर वास्तव में
महंगाई कम करना चाहती है, तो उसे सबसे पहले कार्टल को तोड़ना होगा. इसके
बाद किसानों को खेती से बेदखल करनेवाली मौजूदा कृषि नीतियों में बदलाव की
पहल करनी होगी है. देश में आज सिर्फ तीस प्रतिशत किसान हैं जिन्हें मंडियों
का फायदा मिलता है. यानी शेष सत्तर फीसदी का कोई विकास नहीं हो रहा है,
उल्टा तीस परसेंट को खत्म करने की बात हो रही है. जबकि देश में किसानों के
लिए मंडियों का एक जाल बिछाना चाहिए, ताकि उन्हें उनकी उपज का वाजिब दाम
मिले. खेती को सुदृढ़ और टिकाऊ और आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाने के जरूरत
है. तब जाकर महंगाई को नियंत्रित किया जा सकता है.
महात्मा गांधी ने कहा था- ‘कंट्री लाइक इंडिया मीट प्रोडक्शन बाय दी
मासेस. नॉट प्रोडक्शन फॉर दी मासेस. यानी लोग अन्न पैदा करेंगे, तभी उनका
आर्थिक विकास होगा. तब नहीं, जब लोगों के लिए बाहर से अनाज आयेगा. यह चीज
हमें वापस लाना है और कृषि में यह बहुत महत्वपूर्ण है.
(बातचीत : प्रीतिसिंह परिहार)