दीर्घकालीन राजनीति के तकाजे- पवन कुमार गुप्त

जनसत्ता 23 दिसंबर, 2013 : बहुत समय बाद राजनीति शब्द अपने सही अर्थ के नजदीक आया है। बहुत दिनों बाद आम आदमी में राजनीति से एक उम्मीद जगी है। बहुत-से लोग जो निराशहो गए थे, नए ढंग से सोचने लगे हैं। बात शायद 1944 की है। डॉ सुशीला नैयर ने गांधीजी से पूछा था कि आपने ऐसा क्या किया कि हिंदुस्तान की गिरी-पड़ी जनता उठ खड़ी हुई? गांधीजी का जवाब था कि ज्यादा कुछ नहीं, बस इतना ही कि जो (बात) यहां के साधारण लोगों के मन में थी पर उसे कह नहीं पाते थे उसे उन्होंने शब्द दे दिए। जमाना बदल गया, महात्मा गांधी जैसे लोग भी नहीं हैं। पर आज वैसा ही कुछ हो रहा है।

मेरे एक मित्र, आदिलाबाद के रवींद्र शर्मा, बहुत संक्षेप में पते की बात कह जाते हैं। वे कहते हैं, हमारे देश में उलटा होने लगा है। देश के अंदर राजनीति होनी चाहिए और बाहर कूटनीति; पर बहुत समय से देश के अंदर कूटनीति, और देश के बाहर तो कोई नीति ही नहीं लगती। अपने से ताकतवर से हम डरे रहते हैं, चाहे वह चीन हो या अमेरिका। हमारी सरकारों की सर्वोपरि चिंता यही रहती है कि कहीं वे नाराज न हो जाएं। पर देश के अंदर हम तमाम चालाकियां और पैंतरेबाजी करते रहते हैं।

आपसी लगाव और अपनापन लगभग नदारद हो गया है। देश के अंदर अपनों से परायों-सा व्यवहार करते हैं और बाहर वालों से आत्मीयता का। याद कीजिए कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने बड़े रंज में क्या कहा था- कि यहां देश में उनके बारे में क्या कहा जाता है और देश के बाहर उन्हें कितनी इज्ज़त मिलती है। मनमोहन सिंह के चेहरे पर, जब वे देश में होते हैं, मुस्कराहट कम ही देखने को मिलती है। यहां तो वे अक्सर ‘स्थितप्रज्ञ’ की मुद्रा में ही अधिक दिखाई पड़ते हैं। पर जब वे अमेरिका जाते हैं तब उनकी मुस्कराहट देखने लायक होती है। यह स्थिति प्रधानमंत्री से लेकर प्राय: सभी कुलीन वर्ग की है। देश के अंदर उन्हें बहुत अच्छा नहीं लगता। कोई गंदगी को लेकर परेशान रहता है, कोई यहां की बेतरतीबी से, कोई आलस और धीमी गति से, तो कोई अव्यवस्था से। कोई न कोई कारण मिल ही जाता है।

आजादी के दो दशक बाद ही राजनीति का चरित्र बदलने लगा था। धीरे-धीरे राजनीति में सीधी-सच्ची बातें, जनसामान्य के हित की बातें, सिद्धांतों की बातें खोखली होने लगीं। जनसामान्य के साथ शीर्ष राजनीति करने वालों का संपर्क और लगाव लगभग नदारद है। यह बदलाव तेजी से हुआ, और राजनीति, डॉ लोहिया के शब्दों में, सिर्फ ‘शिखर राजनीति’ में तब्दील हो गई। इस राजनीति की शुरुआत, हर अन्य राजनीतिक विकृति की तरह, कांग्रेस से हुई और फिर वह अन्य दलों में भी घर कर गई। सभी राजनीतिक दल, वे भी जो कांग्रेस के घोर विरोधी रहे, पार्टी के अंदरूनी और बाहरी मामलों में, कांग्रेस का ही अनुकरण करने लगे। विरोधी दलों में वे नेता भी जो साधारण और गरीब परिवारों से आए थे, जिन्होंने कष्ट झेला और देखा हुआ था, उन्हें भी अपने गांव-कस्बे की जगह दिल्ली, पटना, लखनऊ ही ज्यादारास आने लगे। इटावा में सैफई को अपनी तर्ज पर सुंदर बनाने की जगह उसे लखनऊ या दिल्ली जैसा बनाने की ही कोशिशें ज्यादा होती रहीं। यह रोग इतना बढ़ा कि जनसामान्य राजनीति को हिकारत की नजर से देखने लगा।

अण्णा हजारे के नेतृत्व में और अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों के मजबूत सहयोग से एक बदलाव की शुरुआत करीब दो वर्ष पहले हुई। देश में एक जोश आया, अंदर भरे गुस्से को व्यक्त होने का मौका मिला। बीच में एक समय ऐसा भी आया जब लगा कि अब तो निराशा और घनीभूत हो जाएगी।

पर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के चुनाव लड़ने के तरीके, दिल्ली के चुनाव में मिली सफलता और उसके बाद जो उनका रवैया रहा है उससे तो बड़े-बड़ों को उन्हें गंभीरता से लेना पड़ रहा है। बहुत-से अच्छे और देश के प्रति संवेदनशील पर अब तक अपने को किनारे पर रखे लोगों को उन्होंने सोचने और निर्णय लेने को मजबूर कर दिया है, कि अब भी राजनीति से दूर रहे तो स्वयं को माफ नहीं कर पाएंगे। ऐसे लोगों को देश के लिए कुछ करने का एक मौका दिख रहा है।

अरविंद केजरीवाल इस पूरी प्रक्रिया में एक ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जो पत्रकारों की और बड़े दलों की तमाम कोशिशों के बाद भी बेमतलब की बहसों में न फंस कर असली मुद्दों को सामने ला पाते हैं। बहुत दिनों बाद हर बहस भाजपा बनाम कांग्रेस या ‘सेक्युलर’ बनाम ‘नॉन सेक्युलर’ में फंस कर नहीं रह जाती।

यह बहुत आवश्यक था कि इस तरह की गुंजाइश बने कि सही बात पर चर्चा हो, न कि खोखले मुद्दों पर। यह देख कर हताशा होती थी कि क्यों राजनीति में हर बहस कांग्रेस बनाम भाजपा में तब्दील हो जाती है। केजरीवाल का एक बड़ा योगदान यह भी है कि बहस के मुद्दे बदल रहे हैं, ध्रुवीकरण से हट कर बात हो रही है।

पिछले कुछ दशकों में तेजी से पूंजीवादी व्यवस्था को

स्वीकार करती दुनिया के राजनीतिक दलों और वैश्विक संस्थाओं में उदारवादी (लिबरल) राजनीति और मुहावरों का चलन भी उसी तीव्रता से बढ़ा है। इसने दुनिया का बड़ा नुकसान किया है। शुरू-शुरू में जहां समता, लोकतंत्र, सर्वधर्म समभाव, मानव अधिकार आदि सरोकारों की तरफ दुनिया का ध्यान आकर्षित हुआ, वहीं दुनिया में हर तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप और दांव-पेच करने वाले- चाहे अमेरिकी सरकार हो, विश्व बैंक हो, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष हो- भी ‘लिबरल’ राजनीति से जुड़ी भाषा और मुहावरे इस्तेमाल करने लगे।

इससे कालांतर में ‘लिबरलिज्म’ सिर्फ लोगों को बरगलाने बनाने का एक जरिया होकर रह गया। इसकी भाषा और इसके मुहावरे खोखले हो गए हैं। केजरीवाल इन बातों को कितना समझते हैं, कहना मुश्किल है। पर दोटूक अपनी बात कहने का उनका तरीका राजनीतिक बहसों को अधिक सार्थक बनाने की ताकत रखता है। बहुत दिनों बाद मुख्यधारा की राजनीति में सिद्धांतों की बात गंभीरता से होने लगी है। अरविंद केजरीवाल के चलते दूसरे दलों को अपना रवैया थोड़ा-बहुत बदलना पड़ रहा है।

पर राजनीति मोहिनी की तरह होती है- वह कब और कैसे आदमी की नीयत और सीरत को बदल देती है, पता भी नहीं चलता। अहंकार बड़े चुपकेसेआता है, अपने तर्कों के साथ। बहुतों का अहंकार साफ-साफ झलकता है और बहुतों का विनम्रता के परदे में छिपा रहता है। पर अहंकार कैसा भी हो, होता विनाशकारी ही है। वह अलगाव पैदा करता है; सहयोग का अर्थ बदल कर दूसरों का इस्तेमाल करना हो जाता है; अपना अधिमूल्यन और दूसरों का अवमूल्यन होने लगता है और दृष्टि संकुचित हो जाती है। जो लोग जमीन से जुड़े होने का, आम आदमी का साथ देने का ईमानदारी से प्रयास करते हैं, वे भी अहंकार के शिकार हो सकते हैं। यह हमने पूर्व में देखा है।

अरविंद को गांधीजी से सीखना चाहिए। गांधीजी से अधिक जमीन और हर तबके से जुड़ा और कोई नेता इस देश में नहीं हुआ। वे सभी प्रकार के लोगों को जोड़ कर रखते थे- साधु-संतों से लेकर बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार, कारीगर, व्यापारी, उद्योगपति, सबको। और सभी के लिए उनके पास काम होता था। वे सबकी उपयोगिता समझते थे। सबको साथ लेकर चलना, यह आज किसी नेता की तो छोड़िए, किसी भी राजनीतिक दल के बूते की बात नहीं रह गई है।

महात्मा गांधी के प्रताप से, कांग्रेस से हर तबके, हर जाति का आदमी जुड़ा। पर उसमें ऐसी दरबारी संस्कृति पनपी कि वे सभी जिनकी रीढ़ की हड््डी सीधी है, वहां असहज महसूस करते हैं। शेष सभी दलों की अपनी खास पहचान बन गई है, जहां एक खास जाति या वर्ग के लोग और एक खास प्रकार की भाषा और मुहावरे हावी हैं, जो दूसरों को दूर रखते हैं। ऐसे में एक ऐसे दल की बहुत प्रासंगिकता है जहां अलग-अलग प्रवृत्ति के सभी आम लोगों के लिए जगह हो सके।

आम आदमी पार्टी के बाहर बैठे लोगों में, जो उनसे हमदर्दी रखते हैं, एक उम्मीद जगी है। अरविंद केजरीवाल ने जाने-अनजाने दो ध्रुवों में बंटी विचार की दुनिया में एक अलग जगह (स्पेस) बना दी है, जिसकी सख्त जरूरत थी। कुछ दिनों पहले उन्होंने कहा, ‘अगर हमसे कुछ भूल हुई तो जनता हमें कभी माफ नहीं करेगी।’

कुछ काम उन्होंने बहुत सोच-समझ कर किए हैं, संभवत: वे उन्हीं कार्यों के परिप्रेक्ष्य में यह कह रहे थे। पर अक्सर महत्वपूर्ण (अच्छे और बुरे) कामों के परिणाम बहुआयामी होते हैं। बहुत-से परिणाम अपने आप हो जाते हैं, जैसे ध्रुवों में बंटी बहस से अलग इस जरूरी स्पेस का बनना। आम आदमी दीन-हीन गरीब ही नहीं हुआ करते, वे भी होते हैं जो न कट्टरपंथी हैं न उदारवादी। अरविंद उन्हें अपने साथ लेकर चल पाते हैं या नहीं, यह देखना है।

अरविंद इस स्पेस के प्रति कितने संवेदनशील हैं, पता नहीं। पर उनसे यह जो काम अनजाने ही हो गया उसे बनाए रखेंगे तो उन्हें निश्चित तौर पर सफलता मिलेगी, नहीं तो देश का भारी नुकसान होगा। उनकी राजनीति तभी अलग होगी जब वे सिर्फ तात्कालिक मामलों में न उलझें और दीर्घकालीन राजनीति और मुद्दों पर भी उनकी नजर बराबर रहे। आज की परिस्थिति और चारों तरफ के दबाव ऐसे हैं कि हर वक्ततात्कालिकता हावी हो जाती है।

महात्मा गांधी ने अंग्रेजों से लड़ने के साथ, कांग्रेस के अंदर विभिन्न घटकों को भी संभाला, देश के अंदर कांग्रेस से बाहर के दवाब समूहों को भीसंभाला, और साथ-साथ रचनात्मक काम भी किए। खादी, ग्रामोद्योग और देसज तकनीक और इनसे बनी वस्तुओं की प्रदर्शनी, हरिजनों के लिए लड़ाई, सफाई अभियान, प्राकृतिक चिकित्सा, आश्रम का संचालन, वहां के भवनों का सुंदरता, प्रकृति और आर्थिकी को ध्यान में रख कर निर्माण, शौचालयों पर शोध, चरखे में सुधार, साहित्यकारों के सम्मेलन, भारतीय भाषाओं की उन्नति आदि अनेक काम साथ-साथ किए। ये सारे काम दीर्घकालीन राजनीति को ध्यान में रख कर किए गए थे। लिहाजा, अंग्रेजी साम्राज्यवाद से उनकी लड़ाई अल्पकालीन राजनीति न होकर दीर्घकालीन राजनीति का हिस्सा बन गई। उम्मीद है अरविंद यह समझते होंगे।

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