इस महीने की शुरुआत में आयी एक खबर चौंकानेवाली थी.
इसमें कहा गया था दिल्ली के 80 फीसदी परिवार यह नहीं चाहते कि उनके बच्चे
स्कूलों में दिया जा रहा मध्याह्न् भोजन खाएं.
एक अंगरेजी अखबार द्वारा कराये गये सर्वेक्षण में 99
फीसदी बच्चों ने कहा था कि वे स्कूलों में उपलब्ध कराये जा रहे भोजन से
संतुष्ट नहीं हैं. इस सर्वे के परिणाम वास्तव में हमारे देश में महान
इरादों के साथ लागू किये जानेवाले सामाजिक कार्यक्रमों से जुड़े एक कड़वे
सच को उजागर कर रहे थे. अब केंद्रीय मानव विकास मंत्रलय द्वारा मिड-डे मील
योजना को लागू कराने के मामले में राज्यों के प्रदर्शन पर जारी एक रैंकिंग,
उस सर्वेक्षण के परिणामों को पुष्ट कर रही है. इस रैंकिंग में दिल्ली को
मिड-डे मील योजना के क्रियान्वयन के मामले में देश में सबसे निचला स्थान
दिया गया है.
इस मोरचे पर निराशाजनक प्रदर्शन करनेवाले राज्यों में
दिल्ली के साथ प्रतियोगिता करनेवाले राज्य हैं- असम, ओड़िशा, मेघालय और
झारखंड. रैंकिंग में 77.79 अंकों के साथ कर्नाटक शीर्ष स्थान पर है. एक
सुखद बदलाव की तरह 70.36 अंकों के साथ बिहार बेहतर प्रदर्शन करनेवाले शीर्ष
पांच राज्यों में नजर आ रहा है. फिलहाल, देश में जिस तरह से एक राज्य को
दूसरे राज्य के खिलाफ खड़ा करने और ‘किसका विकास मॉडल बेहतर’ की बहस जोरों
पर है, 53.86 अंकों के साथ गुजरात का 25वें पायदान पर होना, एक नयी बहस को
जन्म देने की शक्ति रखता है.
यह बहस गैर-जरूरी नहीं है. ऐसी कोई बहस इस तथ्य को
रेखांकित करने के लिए जरूरी है कि वास्तव में देश में जिस ‘समृद्धि’ को
विकास कहा जाता है, वह किस तरह से ‘अभिजात्योन्मुख’ है. लेकिन, इस बहस से
कहीं ज्यादा अहम सवाल उन बच्चों का है, जिनके पोषाहार और शिक्षा को
सुनिश्चित करने के लिए इस कार्यक्रम की नींव रखी गयी थी. इस कार्यक्रम की
असफलता लाखों बच्चों को स्कूल से दूर रखने का कारण बन सकती है. पिछले कुछ
महीनों से मिड-डे मील योजना के संबंध में लगातार जिस तरह की नकारात्मक
खबरें पूरे देश से आ रही हैं, उसे देखते हुए इस चिंता का गहराना स्वाभाविक
है. मंत्रलय की रैंकिंग राज्यों से इस योजना के क्रियान्वयन के पूरे ढांचे
पर पुनर्विचार की मांग कर रही है.