उत्तराखंड में आयी विभीषिका में विद्युत परियोजनाओं की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं. केदारनाथ में मंदाकिनी नदी बहती है. फाटा व्यूंग और सिंगोली भटवाड़ी नाम से केदारनाथ के नीचे इस नदी पर दो विद्युत परियोजनाएं बन रही हैं.
प्रत्येक में 15-20 किमी की सुरंगें पहाड़ में खोदी जा रही हैं. इन सुरंगों को बनाने में भारी मात्र में डायनामाइट का प्रयोग किया गया है. इनके धमाकों से पहाड़ दरक गये हैं और उन पर उग रहे पेड़ कमजोर हो गये हैं. बादल फटने पर ये पानी को थाम नहीं पाये. बाढ़ के साथ मिट्टी और पेड़ बड़ी मात्र में बहे और इन्होंने कहर बरपाया.
इस भयानक अनुभव को देखते हुए जल विद्युत परियोजनाओं पर पुनर्विचार करने की जरूरत है.
ऊपर बताये गये प्रत्यक्ष प्रभाव के अतिरिक्त इन परियोजनाओं का बादल फटने में भी योगदान है. सामान्य परिस्थितियों में बादल पानी की बूंदों को लेकर ऊपर उठता रहता है. किन्हीं विशेष परिस्थिति में यह ऊपर नहीं उठ पाता है. बूंदें अपनी जगह टिकी हुई बड़ी और भारी होती जाती हैं तथा एकदम से गिर पड़ती हैं. इसे बादल फटना कहते हैं.
केदारनाथ से लगभग 100 किलोमीटर नीचे श्रीनगर जल विद्युत परियोजना बन रही है. इसमें टिहरी बांध की तरह 30 किमी की झील बनी है. इन सभी परियोजनाओं के कारण स्थानीय पर्यावरण में भारी बदलाव हो रहा है. अलकनंदा में माहसीर नाम की मछली होती है. इसका निवास नदी के निचले हिस्से में होता है किंतु अंडा देने के लिए यह ऊपर जाती है.
बांध की अड़चन के कारण यह ऊपर अपने प्रजनन क्षेत्र तक नहीं जा पायेगी. मछलियों, केंचुओं तथा कछुओं का भोजन ‘गाद’ होती है. यह बांध की झील में जमा हो जायेगी. ये जीव जंतु भूखे रह जायेंगे. इसके अतिरिक्त परियोजना के निर्माण में भारी मात्र में जंगल काटे गये हैं या फिर झील में डुबाये गये हैं. इन मानवीय कृत्यों के कारण स्थानीय वायुमंडल में बदलाव आ रहा है.
इन परियोजनाओं का दूसरा पक्ष राष्ट्र की ऊर्जा सुरक्षा का है. सरकार की नीति है कि ऊर्जा की संपूर्ण भूख को पूरा किया जाये जो कि संभव नहीं है चूंकि ऐसी भूख कभी पूरी होती ही नहीं. ऊर्जा की खपत को हम आयातित तेल, कोयले तथा यूरेनियम पर निर्भर होते जा रहे हैं.
यदि पश्चिम एशिया के देशों ने हमें तेल देना बंद कर दिया तो हम 15 दिन में ही घुटने टेक देंगे. जल विद्युत के लिए नदियों को नष्ट करके हम ऊर्जा की इस अनंत भूख की पूर्ति नहीं कर पायेंगे.
तीसरा पक्ष अंतरराष्ट्रीय है. विकसित देशों का दबाव है कि हम थर्मल ऊर्जा का उत्पादन कम करें, क्योंकि इसमें हुए कार्बन उत्सजर्न से वे प्रभावित होते हैं. हमें इस सलाह से दोहरा नुकसान है. दूसरे देशों द्वारा बढ़ते कार्बन उत्सजर्न से हम प्रभावित होंगे और उनको बचाने के चक्कर में हम अपनी नदियों को नष्ट कर देंगे और हमारा पर्यावरण दोबारा दूषित होगा.
चौथा पक्ष जनहित का है. परियोजनाओं के दुष्परिणाम गरीब पर पड़ते हैं. वे नदी से मिलनेवाले बालू और मछली से वंचित हो जाते हैं. जल स्नेत सूखते हैं और खेती प्रभावित होती है. झील में पनपने वाले मच्छर औरउससे निकलनेवाली मीथेन गैस से उसका स्वास्थ बिगड़ता है.
दूसरी ओर बिजली महानगरवासियों को आराम देने के लिए चली जाती है. इस प्रकार परियोजना के माध्यम से गरीब के संसाधन छीन कर अमीरों को पहुंचाये जा रहे हैं. ये परियोजनाएं अधर्म की मूर्तियां हैं. ये आर्थिक विकास में भी सहायक नहीं हैं. दूसरे तमाम दुष्प्रभावों का खामियाजा समाज भुगतता है.
इन तमाम दुष्प्रभावों का आर्थिक आकलन कर लिया जाये, तो सिद्घ हो जायेगा कि ये परियोजनाएं आर्थिक विकास के लिए भी हानिकारक हैं.
कहा जा रहा है कि वर्तमान विभीषिका में धारी देवी प्रतिमा के उठाने का भी योगदान हो सकता है. श्रीनगर परियोजना की झील के डूब में धारी देवी मंदिर आ रहा है. मान्यता है कि आदि शंकराचार्यजी ने यहां तपस्या की थी. समयक्रम में शिला के सामने मूर्ति स्थापित कर दी गयी है. परियोजना की कार्यदायी कंपनी ने 15 जून को मूर्ति को उठा कर उसी स्थान पर खंभों पर स्थापित कर दिया और मूल शिला को झील में जलमग्न कर दिया.
उत्तराखंड में परंपरा है कि देवी देवता किसी व्यक्ति पर अवतरित होकर अपनी बात कहते हैं. 2009 में देवी ने कार्यदायी कंपनी के अधिकारियों के सामने प्रत्यक्ष कहा था कि वे अपने स्थान से उठना नहीं चाहती हैं. 15 जून को उनकी प्रतिमा को उठाने का प्रयास करते समय उन्होंने पुन: कहा था, ‘मुङो मत उठाओ नहीं तो विडाल लाऊंगी.’ मूर्ति को उठाने के चंद घंटों के बाद बादल फटना शुरू हो गया!