स्वास्थ्य नीति की बीमारी-भारत डोगरा

जनसत्ता 25 मई, 2013: भारत में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, स्वास्थ्य क्षेत्र संकट की स्थिति में है। गांवों के लिए विशेष स्वास्थ्य मिशन स्थापित करने के बावजूद अधिकतर जरूरतमंद गांववासियों को उचित स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पा रही हैं, या इन्हें प्राप्त करने के लिए उन्हें असहनीय खर्च करना पड़ता है। इलाज पर आने वाला खर्च कर्जग्रस्त होने और गरीबी में धकेले जाने का प्रमुख कारण बनता जा रहा है।
इस समय बहुत जरूरी है कि स्वास्थ्य नीति पर व्यापक चर्चा हो। एक प्रेरणा देने वाली बात यह है कि कई देशों ने अपेक्षया कम समय में ही अपने देश में स्वास्थ्य-स्थिति सुधारने में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। क्यूबा ने थोड़े समय में ही विश्व-स्तर की स्वास्थ्य सेवाएं अपने देश में ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों में उपलब्ध करवार्इं। बांग्लादेश ने शिशु और बाल मृत्यु दर कम करने में तेजी से कदम बढ़ाए। दूर न जाएं, और अपने ही देश के केरल और तमिलनाडु की ओर देखें। इन दोनों राज्यों ने सार्वजनिक चिकित्सा तंत्र को सुधारने में प्रशंसनीय कार्य किया है।
कई संगठन और विशेषज्ञ यह कहते रहे हैं कि स्वास्थ्य के लिए उपलब्ध सरकारी बजट निहायत अपर्याप्त है, इसे काफी बढ़ाने की जरूरत है। इस संबंध में प्राय: यह देखा जाता है कि स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च का देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कितना प्रतिशत हिस्सा है। स्वीडन जैसे धनी देश में स्वास्थ्य उपलब्धि उच्च गुणवत्ता की है वहां यह हिस्सा आठ प्रतिशत है।
क्यूबा की विशेष उपलब्धि यह है कि आय अधिक न होने और कई तरह का आर्थिक और व्यापारिक संकट झेलने के बावजूद उसने स्वास्थ्य क्षेत्र में कमाल की उपलब्धियां हासिल की हैं। वहां यह प्रतिशत 9.7 है। अब जरा भारत के नजदीक आएं तो पड़ोसी देश चीन में यह प्रतिशत 2.7 है तो भूटान में 4.5 प्रतिशत। भारत में यह प्रतिशत बहुत ही कम, मात्र 1.2 है। ये आंकड़े संयुक्त राष्ट्र की इस साल की मानव विकास रिपोर्ट पर आधारित हैं।
इस दृष्टि से देखें तो भारत में स्वास्थ्य का बजट बढ़ाने की मांग पूरी तरह वाजिब है। पर इसमें एक बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है, वह यह कि जो बजट बढ़ेगा उसका कितना लाभ जरूरतमंदों तक पहुंच सकेगा और कितना लाभ मोटे मुनाफे के लिए सक्रिय ताकतों द्वारा हड़प लिया जाएगा।
दरअसल, हाल के वर्षों में हमारे स्वास्थ्य क्षेत्र में न केवल निजी मोटे मुनाफे की प्रवृत्तियां बहुत हावी हो चुकी हैं, बल्कि उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में भी अपना दखल बहुत बढ़ा दिया है। उनका प्रयास यह है कि सरकारी खर्च के बल पर निजी क्षेत्र के मुनाफे को बढ़ाया जाए। इसका एक उदाहरण यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पताल के अपने जांच-कार्य या लैब के महंगे उपकरण ठप पड़े रहेंगे, जबकि निजी क्षेत्र की लैब को जांच का कार्य मिलेगा।
एक दूसरा उदाहरण यह है कि सरकारी क्षेत्र के डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस साथ-साथ करेंगे और यह प्रयास करेंगे कि सरकारी अस्पताल के मरीज उनके निजी क्लिीनिक में पहुंचें। इतना ही नहीं, वे ऐसी महंगी ब्रांड नाम वाली दवा लिखेंगे जिनके विकल्प के रूप में कईगुना सस्ती जेनेरिक दवाएं मौजूद हैं। सरकार अपने अस्पताल बनाने के स्थान पर बेशकीमती जमीन औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को देगी, जो कि गरीबों की सेवा के अपने वादों को भूल कर मोटे मुनाफे के आधार पर अस्पताल चलाते हैं। जब ऐसी प्रवृत्तियां हावी हैं तो प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप के अधिकतर समझौते कहां ले जाएंगे यह समझा जा सकता है। खर्च सरकार का और मुनाफा निजी क्षेत्र का!
हाल ही में इस चर्चा ने जोर पकड़ा था कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च तेजी से बढ़ाया जाएगा, पर इसके बाद देखा गया कि वृद्धि हुई तो है, पर वह आरंभिक अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं है। दूसरी ओर ऐसे कई उदाहरण सामने आ रहे हैं जिनसे लगता है कि बाहर से अच्छी लगने वाली योजनाओं का लाभ निजी क्षेत्र को मुनाफा करवाने के लिए ज्यादा हो रहा है। इस स्थिति में बहुत सतर्कता की जरूरत है कि स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की मांग के साथ अनियंत्रित निजीकरण और मोटे मुनाफे की प्रवृत्तियों पर रोक लगाई जाए।
सब लोगों विशेषकर निर्धन लोगों और दूर-दूर के गांवों के लोगों तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने का कार्य निजी क्षेत्र के भरोसे नहीं हो सकता, इसकी जिम्मेदारी सरकार ही उठा सकती है। जरूरी और जीवनरक्षक दवाओं का सस्ते जेनेरिक रूप में उत्पादन करने और उपलब्ध कराने का जिम्मा भी सरकार को भलीभांति संभालना चाहिए।
इसमें जहां जरूरत हो वहां निजी क्षेत्र का कुछ सहयोग तो लिया जा सकता है, पर यह इस तरह का नहीं होना चाहिए कि निजी क्षेत्र महज सार्वजनिक खर्च का दोहन अपने मोटे मुनाफे के लिए करे। सरकार को अधिक सहयोग और प्रोत्साहन उन आदर्शवादी डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों का करना चाहिए, जो निर्धन वर्ग तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने का कार्य तरह-तरह के रचनात्मक ढंग से,समर्पित भावना से कर रहे हैं।

इस बारे में मानव विकास रिपोर्ट (2013) ने चेतावनी दी है कि गरीब वर्ग के लिए कम गुणवत्ता की स्वास्थ्य सेवाएं अपनाने की राह से बचना जरूरी है। इन अस्पतालों में जहां केवल निर्धन वर्ग के लोग आते हैं, प्राय: सही इलाज उपलब्ध नहीं होता और अधिक साधन-संपन्न लोग तो इस ओर देखते भी नहीं कि यहां क्या स्थिति है। इस रिपोर्ट ने यह भी कहा है कि सरकारी अस्पतालों में फीस लगा कर या बढ़ा कर स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था करना भी उचित नहीं है।
इस कारण अधिक निर्धन परिवार सरकारी स्वास्थ्य सेवा से वंचित हो जाते हैं और अतिरिक्त संसाधन भी कुछ खास नहीं जुट पाता। इसलिए सब तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने (यूनीवर्सल हेल्थ केयर) के लिए आर्थिक संसाधन कैसे जुटाएं जाएं इस बाबत मानव विकास रिपोर्ट कहती है कि दुनिया भर के विभिन्न अनुभव यही बताते हैं कि पर्याप्त टैक्स लगा कर यह लक्ष्य हासिल किया जाए, पर ये टैक्स इस तरह के होने चाहिए कि इनका न्यूनतम बोझ कमजोर वर्ग पर पड़े और अधिकतम बोझ सबसे धनी वर्ग पर।
मानव विकास रिपोर्ट ने विश्व के अनुभवों से निष्कर्ष निकालते हुए कहा है कि सब तक अच्छी गुणवत्ता की स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा पहुंचाना संभव है। रिपोर्ट कहती है कि बजट इतना उपलब्धरहनाचाहिए कि सरकारी स्तर की सेवा की गुणवत्ता में कोई कमी न हो। लोकतंत्र में सरकारें बदल सकती हैं, पर ऐसे व्यापक सहमति के उद्देश्यों के प्रति समर्पण बना रहना चाहिए।
इस तरह के उद्देश्य को प्राप्त करने में गांवों को प्राथमिकता देना बहुत आवश्यक है, क्योंकि वे स्वास्थ्य सेवाओं की दृष्टि से बुरी तरह उपेक्षित हैं। ऐसा नहीं है कि ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने का कार्य हुआ ही नहीं। बुनियादी ढांचा खड़ा करने का काम तो काफी हुआ है। 2013 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2011 तक देश में एक लाख छिहत्तर हजार आठ सौ बीस सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र(ब्लॉक स्तर), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और उप-केंद्र स्थापित हो चुके हैं।
इसके अतिरिक्त देश में ग्यारह हजार चार सौ तिरानबे सरकारी अस्पताल हैं और सत्ताईस हजार तीन सौ उनतालीस आयुष केंद्र। देश में (आधुनिक प्रणाली के) नौ लाख बाईस हजार एक सौ सतहत्तर डॉक्टर हैं। नर्सों की संख्या अठारह लाख चौरानबे हजार नौ सौ अड़सठ बताई गई है। इसके बावजूद अधिकतर गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं नहीं पहुंच रही हैं।
जननी सुरक्षा केंद्र के अंतर्गत बच्चों का जन्म बेहतर स्थितियों में हो, स्वास्थ्य केंद्र में हो, इसके लिए काफी खर्च हुआ है। पर प्राथमिक केंद्रों में जैसी सुविधाएं होनी चाहिए, उपलब्ध नहीं हो सकी हैं। गांवों में महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता ‘आशा’ की नियुक्ति एक अच्छा कदम है, पर आशा को अनुकूल उत्साहवर्धक माहौल और समुचित प्रशिक्षण न मिलने के कारण अधिकतर आशाएं कुछ निराश होने लगी हैं। पोषण के मामले में आंगनवाड़ी और मिड-डे मील भी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं।
सबसे बड़ी समस्या तो गांवों में डॉक्टरों की मौजूदगी की रही है। ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में प्राय: डॉक्टर तो क्या, नर्स और तकनीकी सहयोगी नदारद मिलते हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि भारत के पचास हजार डॉक्टर अमेरिका में काम कर रहे हैं, चालीस हजार ब्रिटेन में। आस्ट्रेलिया में कार्यरत बीस प्रतिशत और कनाडा के दस प्रतिशत डॉक्टरों ने अपनी डॉक्टरी शिक्षा भारत में प्राप्त की। इन सभी को शिक्षित करने में भारत का सार्वजनिक धन खर्च हुआ। इस तरह हमारे सीमित स्वास्थ्य बजट का एक बड़ा हिस्सा हमसे छिन जाता है।
भारत की लगभग सत्तर प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है, पर देश के उपलब्ध डॉक्टरों में से लगभग सत्तर प्रतिशत शहरी परिवेश में काम करते हैं। इसलिए यह सवाल पूछा जाने लगा है कि आगे अधिक ध्यान ऐसे डॉक्टरों को शिक्षित करने में क्यों न लगाया जाए जिनके गांवों में काम करने की संभावना हो। इस दृष्टि से स्वास्थ्य मंत्रालय ने ‘बैचलर इन रूरल मेडीसिन ऐंड सर्जरी’ का एक नया साढ़े तीन वर्ष का डिग्री कोर्स आरंभ करने का प्रस्ताव किया था, जो विभिन्न तरह की अड़ंगेबाजी से अटक गया है। इस तरह के प्रस्तावों को आगे बढ़ाना चाहिए जिससे गांवों के प्रतिभाशाली युवाओं को ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के अवसर प्राप्त हों।
इसके अतिरिक्त जन स्वास्थ्य सहयोग नामक ग्रामीण स्वास्थ्य-प्रयास ने जिस तरह मध्यस्तरीय स्वास्थ्यकर्मियों को अधिक जिम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार किया है और स्थानीय ग्रामीणों में से नर्सों को प्रशिक्षित करना आरंभकिया है, उससे भी भविष्य के लिए बेहतर संभावनाएं नजर आ रही हैं। यह एक बड़ी चुनौती हमारे सामने है कि संदर्भित (रेफर) किए जाने वाले अस्पतालों से संपर्क बनाए रखने वाले कुछ ऐसे वरिष्ठ स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार हों, जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हुए अच्छी गुणवत्ता की और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित स्वास्थ्य सेवाएं दे सकें। ग्रामीण डॉक्टरों और सर्जनों के लिए सुचिंतित पाठ्यक्रम तैयार करने और उन्हें ग्रामीण स्थितियों के अनुकूल प्रशिक्षण देने का काम भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।

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