बीते दिनों जबलपुर उच्च न्यायालय ने एक अहम फैसले में भाजपा के विधायक एवं पूर्व मंत्री मोती कश्यप के निर्वाचन को फर्जी जाति प्रमाणपत्र जमा करने के आधार पर अवैध घोषित किया।
कटनी जिले के बड़वारा से चुनाव जीते मोती यों तो पिछड़ी जाति से संबद्ध रहे हैं, मगर उन्होंने चुनाव अनुसूचित तबके के लिए आरक्षित सीट से लड़ा। उनके चुनाव को बड़वारा के रामलाल कोल ने चुनौती दी थी।
केवट जाति के मोती कश्यप को, जिन्होंने मांझी जाति का प्रमाणपत्र जमा किया था, शिवराज सिंह सरकार में मत्स्य पालन मंत्री बनाया गया था।
गौरतलब है कि इससे पहले धार जिले से नीना वर्मा और गुना से राजेंद्र सलूजा के चुनाव को अदालत इसी आधार पर खारिज कर चुकी है।
बहरहाल, जिस दिन यह खबर आई, उसी दिन ग्रेटर नोएडा के ऊंची दनकौर के वीर सिंह के खिलाफ मुकदमा कायम करने का निर्णय अदालत ने दिया, जिसने अनुसूचित जाति के लिए आवंटित जमीन पर कब्जा जमाने के लिए इसी तरह फर्जी जाति प्रमाणपत्र का इस्तेमाल किया था।
इलाके के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने इस मसले पर याचिका दायर की थी। फर्जी जाति प्रमाणपत्र का मसला देशव्यापी हो चुका है।
यह भी खबर आई है कि केरल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च, ट्रेनिंग ऐंड डेवलपमेंट स्टडीज ऑफ शेडयूल्ड कास्ट्स ऐंड शेडयूल्ड ट्राइब्स का विजिलेंस सेल पिछले दिनों अधिक व्यस्त रहा, जिसे केरल सरकार की प्रवेश परीक्षाओं में शामिल सामान्य श्रेणी एवं पिछड़ी श्रेणी के तमाम प्रत्याशियों द्वारा फर्जी जाति प्रमाणपत्र का इस्तेमाल कर आरक्षण का लाभ उठाने के मामले की जांच का जिम्मा दिया गया था। उसने ऐसे 659 मामले चिह्नित किए।
इस पड़ताल की जरूरत तब पड़ी, जब कमिश्नर फॉर एंट्रेंस एक्जामिनेशंस ने कई संदेहास्पद आवेदनों को लेकर जांच करने की सिफारिश की। जानकार बता सकते हैं कि यह कोई पहला साल नहीं है, जब ऐसे मामले सामने आए हों। अभी पिछले साल की इसी विजिलेंस सेल ने प्रवेश परीक्षाओं के लिए बने कमिश्नर को 882 ऐसे मामलों की जानकारी दी थी, मगर इनमें से महज तीन में ही कार्रवाई हुई।
स्पष्ट है कि अधिकारी स्तर पर लापरवाही कहें या वर्ण मानसिकता की जकड़न, हर साल बोगस जाति प्रमाणपत्रों का इस्तेमाल कर हजारों छात्र अनुसूचित तबके के लिए मंजूर सीटों पर कब्जा जमा रहे है।
अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए बनी संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट हो या सर्वोच्च न्यायालय का इन मामलों में हस्तक्षेप, आए दिन ऐसे मसले चर्चा में आते रहते हैं।
आठ वर्ष पहले हरियाणा में पुलिस अधीक्षक के तौर पर तैनात एक अफसर (संजय भाटिया) का मामला भी खूब तूल पकड़ा था।
उसे भारतीय दंड विधान की धारा 420 के तहत सजा भी सुना दी गई थी। उस पर यह आरोप प्रमाणित हो चुका था कि भारतीय पुलिस सेवा में भर्ती होने के लिए राजपूत परिवार में पैदा उस शख्स ने दिल्ली के उप-आयुक्त के दफ्तर से गलत तरीके से अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र हासिल किया था।
अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में झूठे जाति प्रमाणपत्रों की समस्या पर कई बार रोशनी डाली है। उसकी दो रिपोर्ट में तो इस पर एक अलग अध्याय भी जोड़ा गया था, जिसमें उल्लेख किया गया था कि झूठे प्रमाणपत्रों कीसमस्या के व्यापक प्रसार से चिंतित होकर आयोग ने 1996 में कई राज्यों में विशेष तथ्य संग्रह किया था।
तमिलनाडु में 12 केंद्रीय संगठनों की ऐसी जांच में पाया गया कि वहां पर अनुसूचित जनजाति का झूठा प्रमाणपत्र जमा करके 338 लोगों ने नौकरियां पाई हैं। आयोग की सख्त कार्रवाई के बावजूद इनमें से सिर्फ छह लोगों को काफी विलंब के बाद नौकरी से बर्खास्त किया गया। बाकी ने स्थानीय अदालतों की शरण ली और स्थगनादेश हासिल किया।
आखिर ऐसा क्या तरीका है कि फर्जी जाति प्रमाणपत्रों के इस्तेमाल से सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबकों को अपने अधिकारों से वंचित करने की इस परिघटना पर काबू किया जाए? दरअसल, ज्यादा बुनियादी मसला यही जान पड़ता है कि आरक्षण की योजना कार्यपालिका के निर्देशों पर टिकी है, जिसका उल्लंघन करने पर किसी भी किस्म की दंडात्मक कार्रवाई नहीं होती।