प्रत्येक वर्ष 10 अप्रैल को दुनिया भर में ‘विश्व होमियोपैथी दिवस’ के रूप में याद किया जाता है. इस बहाने होमियोपैथी के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा जरूरी है. यों तो शुरू से ही आधुनिक चिकित्सा पद्धति एलोपैथी का होमियोपैथी के प्रति तंग नजरिया रहा है.
एक सहज एवं सस्ती चिकित्सा प्रणाली होते हुए भी होमियोपैथी को कभी महत्वपूर्ण या प्रमुख चिकित्सा पद्धति नहीं माना गया. लेकिन इस दो शताब्दी में होमियोपैथी का विकास क्रम जहां इसे जनसेवा की कसौटी पर खरा सिद्व करता है, वहीं इसकी वैज्ञानिकता पर उठे सवालों ने भी होमियोपैथी को जनसेवा की कसौटी पर खरा सिद्ध करने में ही अहम भूमिका निभायी है.
इधर, दुनिया में जन स्वास्थ्य की बढ़ती चुनौतियों और उससे निबटने में एलोपैथी की विफलता ने भी होमियोपैथी एवं अन्य देसी चिकित्सा पद्धतियों को प्रचलित होने का मौका दिया है.
आजादी के 60 वर्षों में भारत में अकूत धन खर्च कर भी केवल एलोपैथी के माध्यम से जन स्वास्थ्य को सुदृढ़ करने का सरकारी संकल्प अधूरा ही है. हाल के दो दशकों में खासकर उदारीकरण के शुरू होने के बाद विकास की नयी दवा ‘निजीकरण’ ने जहां कुछ लोगों के लिए समृद्धि के द्वार खोले हैं, वहीं एक बड़ी आबादी को और गरीबी की तरफ धकेल दिया है. विषमता बढ़ी है और आम लोग महंगे इलाज की वजह से कर्ज के जाल में फंस गये हैं. इसी पृष्ठभूमि में सस्ती एवं वैज्ञानिक चिकित्सा विकल्प के रूप में प्रचलित हुई होमियोपैथी ने चिकित्सा पर अपना एकाधिकार जमाये एलोपैथिक लाबी की नींद उड़ा दी है.
आजादी के छ: दशक बाद भी देश में जनस्वास्थ्य की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है. केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा चलाये जा रहे अनेक स्वास्थ्य कार्यक्रमों एवं अभियानों के बाद अभी भी अपेक्षित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सका है और आंकड़ों की बाजीगरी जारी है. जनस्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनायी है, जिसके अंतर्गत रोगों से बचाव एवं उपचार के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों का संचालन लंबे समय से किया जा रहा है.
ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए भारत सरकार की महत्वाकांक्षी योजना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का संचालन किया जा रहा है. सरकार के अनेक प्रयासों के बावजूद भी हम जनस्वास्थ्य को सही दिशा नहीं दे पा रहे हैं. होमियोपैथी के विरोधियों का तर्क है कि यह कोई वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि मीठी गोलियां या जादू की झप्पी है. चिकित्सीय भाषा में इसे ‘प्लेसिबो’ कह कर खारिज किया जा रहा है.
दरअसल 2005 में ब्रिटेन की एक चिकित्सा पत्रिका ‘लान्सेट’ ने एक लेख में होमियोपैथी की वैज्ञानिकता एवं प्रभाविता पर सवाल उठाते हुए इसे ‘प्लेसिबो से ज्यादा कुछ भी नहीं’ बताया था. यह तर्क दिया गया था कि वैज्ञानिक परीक्षण में होमियोपैथी की प्रभाव क्षमता खरी नहीं उतरती. लान्सेट के इस टिप्पणी ने होमियोपैथिक चिकित्सकों और वैज्ञानिकों को झकझोर दिया था. यह वो समय था जब होमियोपैथी तेजी से यूरोप में लोगों की प्रिय चिकित्सा पद्धति बनती जा रही थी.
इसी दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन ने होमियोपैथी की महत्ता बताते हुए एक रिपोर्ट प्रकाशित की ‘द ट्रेडिशनल मेडिसिनइन एशिया.’ इस रिपोर्ट में होमियोपैथी की वैज्ञानिकता एवं उसके सफल प्रभावों का जिक्र था. दुनिया के स्तर पर लोकप्रिय होती इस सस्ती, सुलभ और वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति से एलोपैथिक लॉबी का घबड़ाना स्वाभाविक था, मसलन होमियोपैथी पर आरोपों का प्रहार शुरू हो गया. हालांकि इसी लान्सेट में वर्ष 1997 में छपे एक लेख में होमियोपैथी की खूब तारीफ की गयी थी.
कहते हैं विज्ञान और तकनीक में आपसी प्रतिस्पर्धा की हद बेहद गंदी और खतरनाक होती है. आधुनिक रोगों में होमियोपैथी की सीमाओं के बावजूद वह अपने सामने किसी दूसरी चिकित्सा पद्धति को विकसित होते नहीं देख सकती. एलोपैथी की इसी खीझ का शिकार होमियोपैथी के समक्ष अनेक लाइलाज व जटिल रोगों की चुनौतियां भी हैं. अभी वर्ष 2012 में अमेरिका में हुए नेशनल हेल्थ इन्टरव्यू सर्वे में पाया गया कि लोग तेजी से होमियोपैथिक चिकित्सा को सुरक्षित चिकित्सा विकल्प के रूप में अपना रहे हैं. इस वर्ष अमेरिका में 49 लाख वयस्क तथा 19 लाख बच्चों ने होमियोपैथिक चिकित्सा ली.
जन स्वास्थ्य के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से भी निबटने में होमियोपैथिक चिकित्सा पद्घति पूरी तरह कारगर और सक्षम है. इससे उपचार में अपेक्षाकृत कम खर्च आता है जिससे सरकार सीमित संसाधनों में जनस्वास्थ्य की समस्याओं का समाधान निकाल सकती है. होमियोपैथी का सबसे बड़ा लाभ संपूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करने की क्षमता का गुण हैं.
होमियोपैथी ‘श्संम: समै समयति’ के सिद्घांत पर आधारित है जो रोग का नहीं, बल्कि रोगी का उपचार करती है और औषधियों का चयन रोगी के शारीरिक, मानसिक लक्षण एवं जीवनशैली को दृष्टिगत रखते हुए किया जाता है. होमियोपैथिक औषधियां शरीर के स्वयं प्रतिरोधी-तंत्र को मजबूत करती है एवं उसे ठीक करने की क्षमता प्रदान करती है. यह अत्यधिक सौम्य एवं सुरक्षित है.
वर्ष 1810 में कुछ जर्मन यात्रियों तथा मिशनरी के साथ भारत आयी होमियोपैथी ने यहां के लोगों का दिल जीत लिया था और तब से इस पद्धति ने जुकाम, खांसी से लेकर टयूमर, कैंसर जैसे गंभीर रोगों की चिकित्सा में भी दखल बढ़ा दी. होमियोपैथी ने गंभीर रोगों के सफल उपचार के अनेक दावे किये लेकिन अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा मंच पर इन दावों के प्रमाण प्रस्तुत करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखायी. मसलन यह वैज्ञानिक चिकित्सा विधि महज ‘संयोग’ मानी जाने लगी और समाज में एलोपैथी जैसी प्रतिष्ठा हासिल नहीं कर पायी.
होमियोपैथी को एलोपैथी लाबी द्वारा कमतर आंकने के पीछे जाहिर है उनकी व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता ज्यादा है. लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि से एक ही रोग या रोगी के लिए भिन्न -भिन्न होमियोपैथिक चिकित्सकों द्वारा भिन्न-भिन्न दवाओं का निर्धारण समरूपता के सिद्घांत पर टिकी होमियोपैथी पर सवाल खड़ा करते हैं. होमियोपैथी को जन सुलभ बनाने की जिम्मेदारी तो समाज और सरकार की है.
होमियोपैथी महिलाओं एवं बच्चों के अनेक रोग के उपचार में अत्याधिक लाभप्रद है तथा यह सुरक्षित तरीके से गर्भावस्था के दौरान अनेक रोगों के उपचार में सफलतापूर्वक प्रयोग की जा सकती है. होमियोपैथी में भी प्रसव से जुड़ी जटिलताओं के निदान के लिए अत्यधिक उपयोगी औषधियां उपलब्ध है.
गर्भावस्था, प्रसव के दौरान, प्रसवोपरांत एवं स्तनपान के दौरान होने वाली समस्याओं के समाधान में होमियोपैथी पूरी तरह सक्षम है. निश्चित रूप से होमियोपैथी का प्रयोग कर देश में मातृएवंशिशु रुग्णता तथा मृत्यु दर में कमी लाकर जनस्वास्थ्य की बहुत बड़ी चुनौती का सामना किया जा सकता है.
एनीमिया, कुपोषण, दस्त रोग, तीव्र श्वसन, खसरा, चिकनपॉक्स,, निमोनिया आदि अनेक रोगों के बचाव एवं उपचार में होमियोपैथिक औषधियों की कारगरता के पुख्ता प्रमाण उपलब्ध है. चिकनगुनिया, डेंगू, फाइलोरिया, जेइ की रोकथाम एवं उपचार में होमियोपैथिक दवाइयों की कारगरता जनसामान्य मे स्वीकार की जा चुकी है.
होमियोपैथिक दवाइयों से जहां एचआइवी/एड्स से ग्रस्त रोगी को आराम दिया जा सकता है वहीं पर कैंसर के रोगी के दर्द को कम करने के साथ-साथ कुछ हद तक उपचारित भी किया जा सकता है. जब क्षय रोगी ऐलोपैथिक दवाइयों से प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर लेता है ऐसे रोगियों में होमियोपैथिक ही एकमात्र विकल्प है. लगभग समाप्त मान के लिये गये पुन: प्रदर्शित रोग केवल होमियोपैथिक औषधियों द्वारा ही ठीक हो सकते हैं.
बर्ड फ्लू, सार्स एवं स्वाइन फ्लू जैसी संकाम्रक एवं घातक बीमारियों का भय और आतंक केवल होमियोपैथिक औषधियों द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है. मानसिक लक्षणों के आधार पर उपचार का विशेष गुण रखने के कारण होमियोपैथिक में अवसाद, अनिद्रा, सिजोफ्रेनिया, हिस्टीरिया एवं विभिन्न प्रकार के भय आदि का सफलतापूर्वक उपचार कर मानसिक स्वास्थ्य प्रदान किया जा सकता है.
विभिन्न प्रकार के व्यसन जैसे सिगरेट, धूम्रपान, तंबाकू की लत,शराब पीने की आदत, मादक औषधियों के प्रयोग से उत्पन्न होने वाली विकृतियों एवं समस्याओं के समाधान में होमियोपैथी पूरी तरह कारगर है. इस प्रकार हम देखते हैं कि होमियोपैथी में जन स्वास्थ्य की चुनौतियों का सामना करने की बहुत बड़ी क्षमता विद्वमान है परंतु आवश्यकता है होमियोपैथी में जन स्वास्थ्य की निहित संभावनाओं को उजागर कर उनका उपयोग किये जाने की. निश्चित रूप से होमियोपैथी पद्धति को बढ़ावा देकर सरकार जनस्वास्थ्य की चुनौतियों का प्रभावी ढंग से सामना कर स्वस्थ एवं सबल भारत का निर्माण कर सकती हैं.
(लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं.)
* बुधवार को होमियोपैथी चिकित्सा के जनक सैम्युअल हैनिमैन की जयंती (10 अप्रैल 1755-02 जुलाई 1843)मनायी गयी. हैनिमैन ने ही दुनिया को इस चिकित्सा पद्धति से रू-ब-रू करवाया और इसे इस मुकाम तक पहुंचाया. कभी दोयम दरजे की माने जाने वाली यह चिकित्सा पद्धति आज अपने गुणों के कारण आम के बीच लोकप्रिय है और असरदार भी. इससे इनकार नहीं कर सकते हैं कि आने वाले समय में जन स्वास्थ्य के लिए यह पद्धति काफी मददगार होगी