जनसत्ता 7 मार्च, 2013: सोनिया गांधी की
अगुआई में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने पिछले दिनों अनुसूचित जाति और
जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 को अधिक सशक्त बनाने के मकसद से
सरकार के सामने अपनी सिफारिशें पेश कीं।
दलितों और आदिवासियों पर सामाजिक बहिष्कार लागू करना, साझे संसाधनों के
उनके इस्तेमाल पर रोक लगाना, मंदिरों में उनके प्रवेश को प्रतिबंधित करना
जैसे मसलों पर कानूनी कार्रवाई करने का सुझाव इन सिफारिशों में दिया गया
है। पीड़ितों और गवाहों के अधिकारों को लेकर भी एक नया अध्याय कानून में
शामिल करने का प्रस्ताव परिषद ने रखा है।
अगुआई में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने पिछले दिनों अनुसूचित जाति और
जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 को अधिक सशक्त बनाने के मकसद से
सरकार के सामने अपनी सिफारिशें पेश कीं।
दलितों और आदिवासियों पर सामाजिक बहिष्कार लागू करना, साझे संसाधनों के
उनके इस्तेमाल पर रोक लगाना, मंदिरों में उनके प्रवेश को प्रतिबंधित करना
जैसे मसलों पर कानूनी कार्रवाई करने का सुझाव इन सिफारिशों में दिया गया
है। पीड़ितों और गवाहों के अधिकारों को लेकर भी एक नया अध्याय कानून में
शामिल करने का प्रस्ताव परिषद ने रखा है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने
यह भी कहा है कि दलितों और आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों की सुनवाई
के लिए विशेष अदालतों का गठन हो और अधिनियम में ऐसे प्रावधान रखे जाएं कि
आरोपपत्र दाखिल होने के तीन माह के अंदर ही मामले का निपटारा हो और सरकारी
अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करने के लिए भी सख्त कार्रवाई हो। गौरतलब है
कि दलितों-आदिवासियों को अपमानित करने के जो तरीके हाल में सुर्खियों में
रहे हैं- जैसे बाल या मूंछ मुड़वा देना, मोटरसाइकिल या घोड़े पर सवार लोगों
को उतार देना, सवर्णों के घरों के सामने से चप्पलें उतार कर जाने के लिए
मजबूर करना- आदि को भी अपराधों की श्रेणी में शुमार कर उनके लिए दंड
निश्चित किया गया है।
कहा जा सकता है कि अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति
(अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के बीस वर्ष पूरे होने पर जगह-जगह जो उसकी
समीक्षा का सिलसिला चला था और साथ ही कानून में चंद संशोधन भी प्रस्तावित
किए गए, वही प्रक्रिया अब राष्ट्रीय सलाहकार परिषद तक पहुंची है। फौरी तौर
पर जहां यह देखना जरूरी है कि परिषद की कितनी सिफारिशें संशोधित अधिनियम
में शामिल होती हैं, वहीं इस बात की निगरानी भी निहायत आवश्यक है कि अमल के
मामले में क्या कोई फर्क पड़ने वाला है या पहले की तरह कानून और अमल के बीच
खाई बनी रहेगी।
ध्यान रहे कि जिस दिन राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की
सिफारिशें अखबारों में प्रकाशित हुर्इं, उसी दिन दो अन्य समाचार भी
प्रकाशित हुए थे, जो इसी खाई को रेखांकित कर रहे थे। पहली खबर अमदाबाद से
बमुश्किल सौ किलोमीटर दूर धांडुका तहसील के गलसाना गांव के बारे में थी,
जहां के पांच सौ दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने के ‘अपराध’ में सामाजिक
बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। वहां कीऊंची जातियों ने गांव में बने
सभी पांच मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर पाबंदी लगा रखी है। इससे भी अधिक
विचलित करने वाली बात यह थी कि राज्य के सामाजिक न्याय महकमे के
अधिकारियों ने पिछले दिनों गांव के दौरे के बाद इस मामले को दबाने की पूरी
कोशिश की।
दूसरी खबर राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल
पूनिया के महाराष्ट्र दौरे से संबंधित थी, जिसमें अनुसूचित तबकों के कल्याण
के लिए बनी योजनाओं के अमल की समीक्षा के लिए विभिन्न महकमों के अधिकारी
जुटे थे। कांग्रेस पार्टी के सांसद पूनिया ने अनुसूचित वर्ग पर होने वाले
अत्याचार में दोषसिद्धि यानी आरोप साबित होने की कम दर की कड़ी आलोचनाकी।
गौरतलब है कि यहां दोषसिद्धि दर सिर्फ छह प्रतिशत है, जो कुछ समय पहले महज
तीन प्रतिशत थी।
सभी जानते हैं कि वर्ष 1955 में बने ‘प्रोटेक्शन आॅफ
सिविल राइट्स एक्ट’ की सीमाओं के मद््देनजर नया कानून (अनुसूचित
जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989) बनाया गया। इसमें कई अहम
प्रावधान शामिल किए गए, जैसे पीड़ित वर्ग को शीघ्र न्याय दिलाने के लिए
विशेष अदालतों का गठन, कर्तव्य में कोताही बरतने वाले अधिकारियों को दंड,
उत्पीड़कों की चल-अचल संपत्ति की कुर्की, इलाके की दबंग जातियों के हथियारों
को जब्त करना, उत्पीड़ितों में हथियारों के वितरण और क्षेत्र-विशेष को
अत्याचार-प्रवण घोषित कर वहां सुरक्षा के खास इंतजाम करना।
इनमें से
ज्यादातर प्रावधान इतने सख्त हैं कि एक बार इनके तहत गिरफ्तारी होने पर
जल्द जमानत भी नहीं हो पाती। पर विडंबना यह है कि इस कानून की मूल भावना के
हिसाब से कभी इस पर अमल नहीं होने दिया गया। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने
‘दलित उत्पीड़न और विधिक उपचार’ शीर्षक किताब (लेखक एडवोकेट पीएल मीमरोठ) की
प्रस्तावना में इसी बात को रेखांकित किया था कि ‘ज्यादा प्रभावी, ज्यादा
समग्र और ज्यादा दंडात्मक प्रावधानों वाले’ अधिनियम को बनाने के बावजूद
‘सत्ताधारी तबकों ने इस बात को सुनिश्चित किया कि व्यावहारिक स्तर पर ये
विधेयक कागजी शेर बने रहें।’
दलितों-आदिवासियों को न्याय से वंचित करने
में राज्य-न्यायपालिका और नागरिक समाज किस तरह आपस में सांठगांठ करते हैं,
इसे अमदाबाद के सेंटर फॉर सोशल जस्टिस के वालजीभाई पटेल के अध्ययन से जाना
जा सकता है। (कम्युनलिज्म काम्बैट, मार्च 2005) प्रस्तुत अध्ययन के लिए
वालजीभाई ने गुजरात के सोलह जिलों में एक अप्रैल 1995 के बाद अनुसूचित जाति
और जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत सामने आए चार सौ मुकदमों का
विस्तृत अध्ययन किया और यह देखा कि इन मुकदमों का निपटारा कैसे हुआ।
अध्ययन
इस बात को उजागर करता है कि किस तरह कानून के जबर्दस्त प्रावधानों के
बावजूद हर स्तर पर पुलिस की जांच लापरवाही भरी होती है। उनका यह भी कहना है
कि दलितों-आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों में आमतौर पर सरकारी वकील की
भूमिका काफी प्रतिकूल होती है, जिसकी वजह से केस खारिज हो जाता है। उनका
अध्ययन इस मिथक का भी
पर्दाफाश करता है कि प्रस्तुत कानून की अक्षमता इसके तहत दर्ज की जाने वाली
झूठी शिकायतों के कारण या दोनों पक्षों के बीच होने या कराए जाने वाले
समझौतों के कारण दिखती है।
अध्ययन में यह भी पाया गया कि कई बार मामूली
कारणों से मुकदमा खारिज हो जाता है। मसलन, कानून के तहत यह अनिवार्य है कि
जांच का काम पुलिस उपाधीक्षक या उसके ऊपर का अधिकारी करे, जिसे पुलिस
महानिरीक्षक को सीधे रिपोर्ट भेजनी होती है। पंचानबे फीसद मामलों में यही
देखा गया कि मामला इसी वजह से खारिज हुआ; अभियुक्तों को इसी आधार पर बरी कर
दिया गया, क्योंकि जांच उपाधीक्षक के नीचे के अधिकारी ने की थी। पीड़ितों
के जाति-प्रमाणपत्र जांच अधिकारी द्वारा साथ में संलग्न न करने के कारण भी
कई मामले खारिजहुएहैं। सेंटर फॉर सोशल जस्टिस का साफ निष्कर्ष है कि
‘प्रतिबद्धता की गहरी कमी और राज्य सरकारों में राजनीतिक इच्छाशक्ति के
अभाव के कारण यह कानून निरर्थक बन चुका है।’
अगर हम वर्ष 2004-05 की
अनुसूचित जाति आयोग की वर्गीकृत रिपोर्ट को पलटें तो यह स्पष्ट होता है कि
अस्पृश्यता ग्रामीण इलाकों तक सीमित नहीं है, शहरी इलाकों में भी विभिन्न
रूपों में मौजूद है। आंकड़े बताते हैं कि हर सप्ताह औसतन ग्यारह दलित देश
में मारे जाते हैं, जबकि इक्कीस दलित महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं।
अनुसूचित जाति के महज तीस फीसद घरों में बिजली का कनेक्शन है तो महज नौ
फीसद घरों में साफ-सफाई की उचित व्यवस्था है। आधे से ज्यादा दलित परिवारों
के बच्चे आठवीं कक्षा के पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। अनुसूचित जाति
छात्रावासों में रहने वाले तमाम बच्चे आज भी नहीं जानते कि दूध का स्वाद
कैसा होता है, क्योंकि उनके लिए तयशुदा राशन बीच में ही गायब कर दिया जाता
है। अनुसूचित जाति की चालीस फीसद आबादी खेत मजदूरी में लगी है और उनके पास
एक धूर जमीन भी नहीं है।
दलितों की इस दारुण दास्तान और शीर्ष स्तरों
पर इसके पूरे अहसास के बावजूद स्थिति सुधारने को लेकर ऊपर से नीचे तक एक
विचित्र किस्म का मौन प्रतिरोध नजर आता है। दलितों की आधिकारिक स्थिति को
दस्तावेजीकृत कर संसद के पटल पर रखने जैसी कार्रवाई भी इसी उपेक्षा का
शिकार होती दिखती है। जबकि संविधान की धारा 338(6) के अंतर्गत अनुसूचित
जाति आयोग की पहल पर तैयार ऐसी रिपोर्टों का संसद के पटल पर रखा जाना
अनिवार्य है।
प्रस्तुत धारा के मुताबिक ‘राष्ट्रपति ऐसी तमाम रिपोर्टों
को संसद के दोनों सदनों के समक्ष पेश करेगा और साथ ही उस ज्ञापन
(मेमोरेंडम) को भी जोड़ा जाएगा जो उजागर करेगा कि सरकार ने ऐसे मामलों में
क्या कार्रवाई की या वह इस दिशा में कैसे आगे बढ़ना चाह रही है।’ कोई यह भी
कह सकता है कि ये रिपोर्टें केंद्र और राज्य के अधिकारियों के बीच दलितों
की स्थिति को लेकर अपनी नाकामी छिपाने और आपसी दोषारोपण का एक नया बहाना भी
बनती हैं।
मुल्क की सोलह करोड़ से अधिक आबादी के बहुलांश की आज भी जारी
दोयम दर्जे की स्थिति दुनिया के इस सबसे बड़े जनतंत्र में क्या संकेत देती
है? हम कह सकते हैं कि वह औपचारिक जनतंत्र के आगे विकसित नहीं हो सका है और
उसे वास्तविक जनतंत्र बनाने की चुनौती बनी हुई है। अगर निचोड़ के तौर पर
कहें तो हमारे सामने बड़ी चुनौती यह दिखती है कि हम नागरिक और संवैधानिक
अधिकारों के विमर्श से आगे बढ़ें। यह भी समझने की जरूरत है कि संवैधानिक
सिद्धांतों और व्यवहार और उसके बिल्कुल विपरीत बुनियाद पर आधारित नैतिक
सिद्धांतों और व्यवहार में गहरा फर्क है।
हम सभी जानते हैं कि शुद्धता
और दूषण का प्रतिमान- जो जाति-व्यवस्था की बुनियाद है- उसमें गैर-बराबरी
को न केवल वैधता बल्कि धार्मिक स्वीकार्यता भी मिलती है। चूंकि असमानता को
सिद्धांत और व्यवहार में स्वीकारा जाता है, लिहाजा एक कानूनी विधान का जाति
आधारित समाजों की नैतिकता पर असर नके बराबर पड़ता है।
राष्ट्रीय
मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2004 में पेश की गई ‘रिपोर्ट आॅन प्रिवेंशन
आॅफ एट्रासिटीज अगेंस्ट एससीज’ (अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचारों के
निवारण की रिपोर्ट) इन बातों का विवरण पेश करती है कि किस तरह नागरिक समाज
खुद जाति आधारित व्यवस्था से लाभान्वित होता है और किस तरह वह
गैर-बराबरीपूर्ण सामाजिक रिश्तों को जारी रखने और समाज के वास्तविक
जनतांत्रिकीकरण को बाधित करने के लिए प्रयासरत रहता है। दरअसल, यह स्थिति
सामाजिक मूल्यों में मौजूद गहरी दरार की ओर इशारा करती है। जहां एक
जनतांत्रिक उदार व्यवस्था के अंतर्गत लोग खुद सभी अधिकारों और
विशेषाधिकारों से लाभान्वित होना चाहते हैं, वहीं जब इन्हीं अधिकारों को
अनुसूचित जाति या जनजाति को देने की बात आती है तो मुखालफत करते हैं।
संविधान
सभा की आखिरी बैठक में बोलते हुए आंबेडकर ने शायद इसी स्थिति की
भविष्यवाणी की थी। उन्होंने कहा था कि ‘हम लोग अंतर्विरोधों की एक नई
दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक वोट के
सिद्धांत को स्वीकार करेंगे। लेकिन हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, हमारे
मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग एक इससिद्धांत को हमेशा खारिज
करेंगे। कितने दिनों तक हम अंतर्विरोधों का यह जीवन जी सकते हैं? कितने
दिनों तक हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में बराबरी से इनकार करते रहेंगे।’
भारत के हर इंसाफपसंद व्यक्ति के सामने यह सवाल आज भी खड़ा है।