अब फैसला राज्यों पर– ।।कुलदीप नैय्यर।।

देश में आर्थिक सुधारों की झड़ी लगाते हुए मनमोहन सरकार ने खुदरा
क्षेत्र में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) और डीजल की कीमत में
वृद्धि आदि को मंजूरी तो दे दी है, लेकिन इसके साथ यह कहते हुए कि एफडीआइ
को लागू करने और डीजल की बढ़ी हुई कीमतों को कम करने का फैसला राज्य
सरकारें अपने स्तर पर कर सकती हैं, एक तरह की रणनीतिक राजनीतिक भी शुरू कर
दी है. डीजल पर तो यह रणनीति कारगर होती दिख रही है.

एफडीआइ पर यह कितनी कारगर होगी, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा.
फिलहाल, केंद्र सरकार कुछ राज्य सरकारों को साधने में सफल साबित हो रही है.
साथ ही इसके जरिये केंद्र सरकार समूचे देश में उठने वाली विरोध की लहर को
कुछ कम करने में सफल रही है, क्योंकि कांग्रेस शासित राज्यों में इस कदम का
समर्थन हो रहा है. लेकिन वहीं भाजपा व अन्य क्षेत्रीय दलों द्वारा शासित
राज्यों के मुख्यमंत्रियों में इसके प्रति भारी रोष है.

देश के गैर-कांग्रेस शासित राज्यों के ज्यादातर मुख्यमंत्रियों ने इस पर
अपना रु ख साफ करते हुए, इसे अपने-अपने राज्यों में लागू न करने का फैसला
सुना दिया है. त्रिपुरा और मिजोरम भी इस फैसले के खिलाफ हैं. दक्षिण भारत
के बड़े राज्य भी विदेशी किराना के फैसले के विरोध में खड़े हैं. केरल ने
भी इस फैसले का लागू करने से साफ इनकार दिया है. इसका मतलब हुआ कि
भाजपा-एनडीए शासित बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गोवा, गुजरात और
झारखंड के साथ साथ उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, ओड़िशा जैसे
राज्य रिटेल में विदेशी निवेश के फैसले से फिलहाल दूर रहेंगे. इनका कहना
है कि एफडीआइ बुनियादी संरचना के विकास के लिये, जैसे बिजली और सड़क के
क्षेत्र में आये तो ठीक है. लेकिन यह खुदरा क्षेत्र में आयेगा तो छोटे
दुकानदारों को नुकसान पहुंचायेगा.

यदि राज्य सरकारों ने अपने राज्यों में इस फैसले को लागू करने से इनकार
कर दिया (जिसकी फिलहाल ज्यादा संभावना दिखती है) तो खुदरा क्षेत्र में आने
वाला विदेशी निवेश कुछ ही राज्यों में सीमित हो कर रह जायेगा.

हालांकि, हरियाणा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, असम, उत्तराखंड,
जम्मू-कश्मीर, दिल्ली महाराष्ट्र, सिक्किम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर
और नागालैंड जैसे राज्य रिटेल में एफडीआइ के पक्ष में हैं. इन राज्यों के
साथ ही दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में सबसे ज्यादा विदेशी किराना स्टोर
खुलने की उम्मीद है. यदि इन राज्यों में विदेशी निवेश आने लगा और सरकार का
फैसला सही साबित हुआ, तो अन्य राज्य कटघरे में आ जायेंगे और कांग्रेस को
इसका विशेष फायदा होगा. तब अन्य राज्यों पर इसे अपनाने का दबाव आयेगा.
लेकिन, वहीं अगर फैसला इसके विपरीत गया, तो कांग्रेस को इसका खामियाजा भी
भुगतने को तैयार रहना होगा.

किसी नीतिगत फैसले पर गेंद को विपक्षी पाले में फें कने और तमाशा देखने
की लंबी परंपरा रही है. जब केंद्र की नीतियों पर राज्यों का विरोध हो, तो
इससे बचने का अच्छा तरीका होता है कि फैसले को मानने न मानने का अधिकार
राज्यों पर छोड़ दें. इससे आप कुछ देर के लिए सुरक्षित जगह पा लेतेहैं.
मौजूदा फैसलों पर भी केंद्र सरकार ने राज्यों से यही कहा है कि यदि राज्य
सरकारें यह सोचती हैं कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश आने और देश में
बड़े-बड़े विदेशी किराना स्टोर खुलने से देश के करोड़ों छोटे व्यापारी
प्रभावित होंगे, तो वे इसे अपने राज्यों में अनुमति न दें और फिर एक बड़ी
विदेशी पूंजी से वंचित रहें. यह सुझाव कुछ उसी तरह का है जिसके तहत कहा
जाता है कि जिन लोगों को अमुक किताब में वर्णित बातों से मतभेद है, तो वे
इसे न पढ़ें.

इस चर्चित रणनीति को सरकार ने न केवल रिटेल में एफडीआइ के फैसले पर
अपनाया है, बल्कि डीजल की कीमत में हुई वृद्धि पर मचे हो हल्ले को कम करने
के लिए भी अपनाया था. सरकार ने कहा था कि जिन राज्यों को लगता है कि डीजल
की कीमत में बढ़ोतरी गलत है, इससे महंगाई बढ़ेगी और आम आदमी पर इसका बोझ
बढ़ेगा, वे इसकी कीमत में कमी करने के उपाय कर सकते हैं. कीमत कम करना उनके
बस में है. उन्हें राज्य स्तर पर लगने वाले भारी भरकम करों में कटौती करनी
होगी. लेकिन राज्य इसके लिए तैयार नहीं हैं. जिससे मामला कुछ देर बाद ठंडा
पड़ गया. इस पर वसूला जाने वाला कर की बड़ी मात्र राज्यों के खाते में
जाता है. कोई भी राज्य इतनी बड़ी एकमुश्त पूंजी को छोड़ना नहीं चाहेगा.
लिहाजा उन्हें देर सबेर पीछे हटना ही पड़ता है. हालांकि, हमेशा इस तरह की
रणनीति कारगर साबित नहीं होती है. खासकर आज के गंठबंधन के दौर में तो इससे
सरकार तक गिरने का खतरा बना रहता है.

वर्तमान समय में यूपीए के कई सहयोगी दल रिटेल में एफडीआइ के फैसले से
नाराज हैं. ऐसे में सबकी निगाहें ममता के ऊपर जमी है. यदि वे समर्थन वापसी
का फैसला लेती हैं तो अन्य सहयोगी भी इस पर कुछ विचार कर सकते हैं. ऐसे
में केंद्र सरकार की यह रणनीति उसके गले की फांस भी बन सकती है.

कई विद्वानों ने भारतीय राजनीति की इस रणनीति का जिक्र किया है. वे
मानते हैं कि इसके जरिये केंद्र राज्यों पर अपना प्रभुत्व कायम रखता है.
जिससे केंद्र को अपनी बात मनवाने में सफलता मिल जाती है. साथ ही अपेक्षित
सुधार भी लागू हो जाते हैं और केंद्र की राज्यों पर पकड़ भी बनी रहती है.
इसके जरिये केंद्र बड़ी सफाई से अपने ऊपर पड़ने वाले राजनीतिक दबावों को
राज्यों के सिर मढ़ने में सफल हो जाता है. मौजूदा समय में एफडीआइ लागू न
होने देनेवाली लॉबी की ओर से पड़ने वाले दबावों से केंद्र सरकार मुक्त हो
गयी. अब यह लॉबी राज्य सरकारों पर इसे न लागू करने के लिए दबाव बनायेगी. इस
प्रकार अब इस लॉबी को बजाय एक केंद्र सरकार के विभिन्न राज्यों का सामना
करना पड़ेगा. इसके तहत माना जाता है कि वर्तमान में जो राज्य इन सुधारों का
विरोध कर रहे हैं, उन पर समय के साथ निवेशकों की ओर से कई तरह के दबाव
आने लगेंगे हैं.

जब कुछ राज्य रिटेल में विदेशी निवेश को अपने यहां लागू कर निवेश
आकर्षितकरनेलगेंगे और लोगों को रोजगार देने लगेंगे, और उनकी विकास दर
बढ़ेगी, तो अन्य राज्य भी इसके प्रति आकर्षित होंगे. और तभी यह सुधार सफल
होगा, क्योंकि किसी भी तरह के सुधारों को राज्यों की सकारात्मक भूमिका ने
ही उसे सफल बनाया है. मनरेगा योजना के दौरान भी कई राज्यों में शुरू में
इसका विरोध किया. लेकिन आज सबने उसे अपना
लिया है. (बातचीत पर आधारित)

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