शोर-ग़ुल और चहल-पहल भरी करावलनगर की बस्ती, अनौपचारिक क्षेत्र के उद्यमों
का एक उभरता हुआ केन्द्र है, जहाँ बड़ी संख्या में प्रवासी मज़दूर और उनके
परिवारों को रोज़गार मिलता है। ये उद्यम किसी भी मानक से छोटे नहीं है।
वैश्विक सम्बन्धों की जटिल श्रृंखला में बँधे ये उद्यम, सालभर चालू रहते
हैं और हज़ारों मज़दूरों के रोज़गार का स्रोत हैं। कई करोड़ रुपयों की
आमदनी वाला बादाम उद्योग, इस इलाक़े में फल-फूल रहा ऐसा ही एक व्यवसाय है,
जहाँ कैलिफोर्निया से बोरे के बोरे बादाम आते हैं, करावलनगर की सँकरी
अंधेरी गलियों में पहुँचते हैं और वहाँ छिलका तोड़ने, साफ़ करने और पुन:पैक
किये जाने के बाद घरेलू और अन्तरराष्ट्रीय दोनों ही बाज़ारों में बिक्री
के लिए भेज दिये जाते हैं।
सामने आयी जब दिसम्बर 2009 में, इस उद्योग में काम करने वाले मज़दूरों ने
बेहतर मज़दूरी की माँग के लिए हड़ताल कर दी। उसके बाद के दो वर्षों से भी
अधिक समय से पी.यू.डी.आर. ने मज़दूरों के हालात जानने के लिए कई बार अपनी
टीमें वहाँ भेजीं, जिन्होंने काम के तौर-तरीकों के दो चरणों के बारे में
जाँच की – पहला, जब सारा काम हाथ से होता था और दूसरा चरण, जब काम के एक
हिस्से को मशीनीकृत कर दिया गया। इस रिपोर्ट में, जाँच-पड़ताल के दौरान
सामने आये तथ्यों को यहाँ प्रस्तुत किया गया है। हमें एहसास है, कि अभी भी
बहुत कुछ अनकहा रह गया है। बादाम उद्योग के मज़दूरों के हालात पर केन्द्रित
करते हुए, यह रिपोर्ट अनौपचारिक क्षेत्र, वह क्षेत्र जिसमें आज देश की कुल
कार्य शक्ति का लगभग 94 प्रतिशत हिस्सा लगा हुआ है, में रोज़गार के
अत्यन्त शोषक और जोखिमपूर्ण चरित्र को भी उजागर करना चाहती है।
बादाम प्रसंस्करण कार्य का चरित्र
पूर्वी दिल्ली के करावलनगर में बादाम
तोड़ने और पैक करने की लगभग 45-50 इकाइयाँ हैं जहाँ पूरे साल काम होता है
और जहाँ से बादाम खारी बावली में स्थित सूखे मेवे और मसालों के थोक बाज़ार
में पहुँचते हैं। विदेशों से बादाम की खेप जहाज़ों में भरकर अहमदाबाद और
मुम्बई पहुँचती है जहाँ से इसे दिल्ली पहुँचाया जाता है। बादाम दुनियाभर
में एक काफ़ी क़ीमती उत्पाद है। हाल के समय में ‘स्वास्थ्य’ को लेकर बढ़ी
हुए चेतना और बादाम के स्वास्थ्यवर्द्धक गुणों की लोकप्रियता के कारण पूरी
दुनिया में इसकी माँग तेज़ी से बढ़ी है। मध्यवर्ग के आकार और समृद्धि
दोनों में वृद्धि होने के साथ भारत में भी यही प्रवृति दिखायी दे रही है,
जिसने बादाम के व्यापार और आयात को, ख़ासकर संयुक्त राज्य अमेरिका से, बहुत
अधिक तेज़ी दी है। भारत में अमेरिका से खोल-युक्त बादाम के आयात में आयी
तेज़ी केवल बादाम के बढ़ते उपभोग का ही नतीजा नहीं है। भारत, और मुख्यत:
दिल्ली सस्ते श्रम की उपलब्धता के कारण बादाम के छिलके उतारने और
प्रसंस्करण के मुख्य केन्द्र के रूप में स्थापित हुए हैं। खोल रहित और
प्रसंस्कृत बादाम को पैकिंग और बिक्री के लिए विश्व के अलग-अलग हिस्सोंमें
पुन: निर्यात कर दिया जाता है। 2007 और 2009 के बीच स्पेन और जर्मनी को
पीछे छोड़ते हुए भारत अमेरिकी बादाम का दुनिया का सबसे बड़ा आयातक बन गया।
आयातित बादाम का लगभग 80 प्रतिशत दिल्ली के खारी बावली के बाज़ार में
पहुँचता है। 2007-08 वर्ष के लिए कैलिफोर्निया की बादाम काउंसिल द्वारा
प्रकाशित आलमंड इंडस्ट्री पोज़ीशन रिपोर्ट के अनुसार भारत 12.86 प्रतिशत
हिस्से के साथ अमेरिका से बादाम के आयात में विश्व में दूसरे स्थान पर
पहुँच गया था।
खारी बावली के थोक व्यापारी बादाम के
छिलके उतारने, सफ़ाई, ग्रेडिंग और पैकिंग का काम ठेके पर कराते हैं।
हालाँकि बादाम तोड़ने और प्रसंस्करण का लगभग 80 प्रतिशत काम करावलनगर में
ही किया जाता है, मगर लक्ष्मीनगर, बुराड़ी, पटपड़गंज और त्रिलोकपुरी में भी
यह कारोबार होता है। शुरुआत में यह काम कमोबेश पीस रेट पर घर-आधारित
उत्पादन के रूप में होता था। लेकिन जैसे-जैसे बादाम व्यापार का विस्तार
हुआ, घर पर होने वाला यह काम वर्कशॉप और गोदामों में भी होने लगा। करावलनगर
की अधिकांश इकाइयाँ अब गोदामों से ही संचालित की जाती हैं और मज़दूरों को
भुगतान पीस रेट और फिक्स रेट दोनों ही रूपों में होता है।
कार्य और श्रम शक्ति
करावलनगर इलाक़े में कार्यरत बादाम
मज़दूर यूनियन के अनुसार इलाक़े में बादाम से छिलका उतारने और प्रसंस्करण
में 20,000 से भी अधिक मज़दूर काम करते हैं। इनमें से अधिकांश मज़दूर
बिहार से आये प्रवासी हैं और कुछ पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड से।
इनमें से अधिकांश महिलाएँ हैं। मज़दूरों को ठेकेदारों के माध्यम से काम
मिलता है। वैसे तो बादाम प्रसंस्करण बारहमासी उद्योग है लेकिन दिवाली से
लेकर क्रिसमस तक अर्थात अक्टूबर से दिसम्बर के दौरान, माँग और आपूर्ति
दोनों ही अपने चरम पर होती हैं। इस दौरान रोज़ाना औसतन 12-15 घण्टे काम
होता है। उत्पादन की पूरी प्रक्रिया में खोल को तोड़ना, खोल में से बादाम
के दाने निकालना, ग्रेडिंग और पैकिंग शामिल होते हैं। छोटे-छोटे बच्चों को
खोल-युक्त बादाम को तोड़ने के लिए बादाम के ढेर पर कूदते हुए देखा जा सकता
है। यही नहीं बादाम को खोल से निकालने में भी इनको काम पर लगाया जाता है।
छिलका सहित बादाम के एक बोरे में औसतन लगभग 22 किलो बादाम होता है जिसमें
से लगभग 16-17 किलो छिला हुआ बादाम निकलता है। छिलके को ठेकेदारों द्वारा
हरियाणा के ईंट-भट्ठों को 1 से 1.40 रुपये प्रति किलो की कीमत पर बेचा जाता
है। इसके अलावा इसका कुछ हिस्सा बादाम मालिकों द्वारा मज़दूरों को
सामान्यत: 30-35 रुपये प्रति कट्टे के भाव पर बेचा जाता है, जिसे मज़दूर
ईंधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। बादाम को बाज़ार में, गुणवत्तानुसार,
360-400 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचा जाता है लेकिन इसके प्रसंस्करण
में लगे मज़दूरों को उनके काम के बदले इसका बहुत नगण्य हिस्सा मिलता है।
2010 के अन्त में, जब से इस काम में
मशीनों का इस्तेमाल किया जाने लगा, काम का चरित्र काफ़ी हद तक बदल गया।
मशीन का इस्तेमाल केवल बादाम तोड़ने में होता है, छिलके हटाने और ग्रेडिंग
का काम अभी हाथोंसेही किया जा रहा है। आंशिक मशीनीकरण का यह दौर
कैलिफोर्निया के बादामों के भारत में लगातार तेज़ी से बढ़ते आयात से मेल
खाता है। मशीनीकरण अपने साथ मज़दूरी सम्बन्धी कई नयी समस्याएँ लेकर आया है,
और जैसा कि हम आगे देखेंगे, इसने रोज़गार की उपलब्धता को भी कम किया है।
मज़दूरी
पिछले दो सालों के दौरान आंशिक मशीनीकरण
के कारण मज़दूरी के भुगतान के तरीकों में बदलाव आया है। दिसम्बर 2009 से
पहले 22 किलो बादाम के प्रसंस्करण के लिए मज़दूरों को 40 रुपये दिये जाते
थे। मज़दूर की कुशलता और क्षमता के अनुसार, एक कट्टा बादाम के प्रसंस्करण
में लगभग 8 से 10 घण्टे का वक्त लगता था। जिसका मतलब था कि मज़दूरों को
दिल्ली में 8 घण्टे काम के लिए अकुशल मज़दूरों के लिए निर्धरित न्यूनतम
मज़दूरी, 152 रुपये (दिसम्बर 2009 में), का लगभग एक तिहाई भुगतान किया जाता
था।
दिसम्बर 2009 में बादाम मज़दूर यूनियन के
बैनर तले हुई बादाम मज़दूरों की 15 दिनों की हड़ताल के बाद मज़दूरी की दर
40 रुपये से बढ़ कर 60 रुपये हो गयी, लेकिन यह अब भी न्यूनतम मज़दूरी की एक
तिहाई ही थी। बादाम प्रोसेसिंग की एक विशेषता यह है कि अक्सर यह काम
मज़दूर के परिवार के सदस्यों द्वारा मिलकर किया जाता है। ऐसा केवल घरेलू
इकाइयों में ही नहीं होता बल्कि गोदामों में भी या तो परिवार के सदस्य मिल
कर काम करते हैं या फिर गाँवों के आधार पर या किन्हीं अन्य सम्बन्धों के
आधार पर कई मज़दूर समूहों में मिलकर काम करते हैं। इसलिए अगर कोई परिवार एक
दिन में 3 कट्टे बादाम तैयार कर सकता है तो वह 180 रुपये कमा लेगा। लेकिन
इतनी रकम कमाने के लिए परिवार के 2-3 सदस्यों को घण्टों तक मिलकर काम करना
पड़ता है और इस तरह से एक अकेला व्यक्ति 60 से लेकर 90 रुपये से अधिक नहीं
कमा सकता।
मज़दूरी का भुगतान भी अनिश्चित होता है और
इस तरह से यह भी शोषण का ज़रिया बन जाता है। मालिक के अपने रिकार्ड के
अलावा मज़दूरों को किये जाने वाले भुगतान का कोई और रिकार्ड नहीं रखा जाता
है, इसलिए मज़दूरी भुगतान की कोई पारदर्शी व्यवस्था व्यवहार में काम नहीं
करती। मज़दूरी के भुगतान की कोई निश्चित तारीख़ भी नहीं है। इसके साथ ही
भुगतान में अक्सर काफ़ी देरी होती रहती है। ऐसे भी केस हैं जिनमें मज़दूरों
को उनके बकाये का भुगतान ही नहीं किया गया। किसी भी प्रकार के रोज़गार
प्रमाण के अभाव में यानी मज़दूरी का पक्का रिकार्ड न होने के कारण, मज़दूर
अपनी बकाया मज़दूरी के लिए कोई दावा भी नहीं कर सकते।
2010 से बादाम के खोल तोड़ने के काम के
मशीनीकरण के साथ ही, मज़दूरों की दशा और अधिक बदतर हो गयी है। जैसा कि पहले
बताया गया है, ठेकेदारों द्वारा लगायी गयी मशीनों से खोल तोड़ने का काम
काफ़ी तेज़ी से हो जाता है लेकिन बादाम और छिलके को अलग-अलग करने का काम
अभी हाथों से ही किया जाता है।
मशीनीकरण के बाद, मज़दूरी केभुगतान में
अनिश्चितता में कोई फ़र्क़ नहीं आया, पर मज़दूरी का मामला और अधिक उलझा हुआ
और अनिश्चित हो गया। मशीनीकरण से बादाम को तोड़ने के काम की दक्षता में तो
निस्संदेह रूप में ठेकेदारों के मनमाफ़िक़ वृद्धि हुई, लेकिन मज़दूरों की
दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। जून 2011 में पी.यू.डी.आर. की टीम करावलनगर
में कई मज़दूरों से मिली। ये मज़दूर अपने भविष्य को लेकर काफ़ी चिन्तित थे।
वे इस बात से आशंकित थे कि मशीनों के आ जाने से उनकी मज़दूरी पहले के
मुक़ाबले आधी ही रह जायेगी। एक मालिक ने हमें बताया कि एक मशीन से एक घण्टे
में लगभग 20 कट्टा बादाम तोड़े जा सकते हैं। कम काम के सीज़न में, पहले
जहाँ एक दिन में केवल 80-100 कट्टों की सफ़ाई हो पाती थी, मशीनीकरण के बाद
इनकी संख्या सीधे-सीधे 350-400 कट्टे प्रति दिन तक बढ़ गयी। मशीनीकरण के
कारण काम की दर में तेज़ी आने से और मज़दूरों की आवश्यकता में कमी आने से,
मज़दूरों को इन उत्पादन इकाइयों में काम मिलने में दिक्कत आने लगी है।
मशीनीकरण के बाद मज़दूरी के सन्दर्भ में,
मज़दूरों को भुगतान की प्रणाली के आधर पर तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता
है। पहली श्रेणी उन लोगों की है जिनको ठेकेदारों ने काम की प्रगति और गति
पर नज़र रखने और काम के दौरान मज़दूरों द्वारा बादाम चुराने की सम्भावना को
कम या खत्म करने के लिए मज़दूरों पर नज़र रखने के लिए रखा है। ये लोग
संख्या में बहुत कम हैं और मासिक वेतन पर रखे जाते हैं। हमने इकाइयों में
काम करने वाले बच्चों को काम ख़त्म करके जाने से पहले अपनी तलाशी कराने के
लिए ख़ुद इनके पास आते देखा। दूसरी तरपफ बादाम प्रसंस्करण का काम दो भागों
में बँट गया है। कुछ मज़दूर केवल बादाम को मशीन में डालने का काम करते हैं,
जबकि अन्य सफ़ाई और तैयारी का। मशीनों से बादाम तोड़ने का काम पूरी तरह से
पुरुष मज़दूरों के लिए आरक्षित है। बादाम तोड़ने के लिए प्रति कट्टा 5
रुपये मिलते हैं। दूसरी ओर सफ़ाई और तैयारी का काम 1 रुपये प्रति कट्टे के
पीस रेट पर औरतों और बच्चों द्वारा कराया जाता है। मशीन से एक कट्टा बादाम
तोड़ने में बस कुछ मिनटों का ही समय लगता है। इस प्रकार एक पुरुष अपने साथ
काम करने वाली स्त्रियों की तुलना में बराबर समय में ज़्यादा मज़दूरी पा
रहे हैं। इस तरह से काम का यह विभाजन पुरातन लिंग आधारित भेदभावपूर्ण
सामाजिक व्यवस्था को मज़बूत करने का एक और रूप है। यह स्पष्ट है कि
मशीनीकरण के बाद स्त्री मज़दूरों की मज़दूरी में गिरावट आयी है। यहाँ यह भी
ध्यान में रखना चाहिए कि पुरुष मज़दूरों की दशा में थोड़ा सुधर तो ज़रूर
आया है, लेकिन अभी भी उनको मिल रही मज़दूरी अकुशल मज़दूर के लिए निर्धारित
न्यूनतम मज़दूरी के बराबर नहीं है।
काम करने की स्थितियाँ
बादाम से छिलका उतारने का काम बेहद कठिन
और जोखिमभरा होता है। बादाम निकालने के लिए जो खोल तोड़ा जाता है वह काफ़ी
सख्त होता है औरउसे नरमबनाने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। यह
पूरा काम नंगे हाथों से किया जाता है और लम्बे समय तक काम करने से लगभग सभी
मज़दूरों की उँगलियों के पोरों पर घाव हो जाते हैं और दरारें पड़ जाती हैं
जिनमें सर्दियों में बहुत अधिक दर्द होता है। ये घाव खोल के खुरदुरेपन
और/या रसायनों के प्रभाव, दोनों ही वजहों से हो सकते हैं। हड़ताल के दौरान
भी हम जितने मज़दूरों से मिले, उनमें से अधिकांश के हाथें और उंगलियों में
घाव के निशान थे। उनके हाथों में ये घाव बादाम तोड़ते समय पडे थे। ये
मज़दूर लगभग एक हफ्ते से काम पर नहीं गये थे फिर भी उनके ये घाव बहुत
पीड़ादायी बने हुए थे।
दूसरी बात, बादाम की सफ़ाई के दौरान काफ़ी
धूल उत्पन्न होती है और इससे बचने के लिए मज़दूरों के पास केवल एक छोटा-सा
कपड़े का टुकड़ा होता है। इस धूल से कई तरह की साँस की परेशानियाँ हो सकती
हैं। इस बात की पुष्टि पास में रह रहे एक डाक्टर ने भी कर दी और उनके
क्लिनिक में मौजूद नेबूलाइज़र ने भी। डाक्टर ने हमें बताया कि मरीजों के
मँह और नाक से अक्सर ख़ून के थक्के निकलते रहते हैं। उन्होंने यह भी बताया
कि मुख्य रूप से ठेकेदारों द्वारा निश्चित समय पर भुगतान न करने की वजह से
मज़दूरों को कई अन्य बीमारियों जैसे मियादी बुखार और हैज़ा आदि का इलाज़
टालते रहना पड़ता है या बीच में ही छोड़ना पड़ता है। मशीनीकरण ने इस समस्या
को और विकट कर दिया है। जिन कमरों में मशीनें हैं वहाँ कई-कई इंच मोटी धूल
की परत जमी रहती है। रिहायशी इलाकों में पीने योग्य पानी और जल निकासी
जैसी बुनियादी नागरिक सुविधाओं का अभाव भी स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों
को और अधिक बढ़ा देता है।
चूँकि यह भी साबित नहीं किया जा सकता कि
मज़दूर किस ठेकेदार के तहत काम करते हैं, इसलिए मज़दूरों के स्वास्थ्य के
सन्दर्भ में उनकी कोई जवाबदेही तय करने का तो सवाल ही नहीं उठता, चाहे वह
उपचार उपलब्ध कराने का मामला हो या रहने की सुविधाएँ मुहैया कराने का। एक
तरफ़ तो ख़ुद ठेकेदार द्वारा देरी से मज़दूरी का भुगतान मज़दूरों के लिए
समय से इलाज़ कराना असम्भव बना देता है तो दूसरी तरफ़ अचानक बीमारी
सम्बन्धी आपातस्थिति होने पर ठेकेदारों से कोई वित्तीय या किसी भी अन्य तरह
की सहायता की उम्मीद नहीं की जा सकती।
बादाम प्रसंस्करण और राज्य
जैसा कि ऊपर बताया चुका है कि बादाम
परिशोधन इकाइयों में हज़ारों की संख्या में मज़दूर काम करते हैं और काम
पूरे साल चालू रहता है। इस तरह इस काम का चरित्र तो स्थायी श्रेणी का है
लेकिन मज़दूरों को अनियमित आधार पर अनौपचारिक रूप से खटाया जाता है। उन्हें
किसी भी प्रकार का रोज़गार का प्रमाण, जैसे पहचान पत्र, वेतन स्लिप आदि
नहीं दिया जाता है, कोई हाज़िरी रजिस्टर भी नहीं रखा जाता है।
इसीलिए, इतने बड़े स्तर पर उत्पादन होने
के बाद भी मज़दूरों की काम की परिस्थितियों पर निगरानी रखने के लिएकोई
व्यवस्था मौजूद नहीं है। यह एक मज़ाक़ ही है कि क़ानूनी रूप से ये ठेकेदार
श्रम क़ानूनों के पालन के लिए बाध्य ही नहीं हैं, और मज़दूरों की शिक़ायतों
की सुनवाई के लिए कोई प्रक्रिया मौजूद ही नहीं है। इस काम को एक ‘उद्योग’
के रूप में मान्यता नहीं मिली हुई है। उल्टे अस्पष्ट रूप से परिभाषित
‘घरेलू उत्पादन’ श्रेणी के अन्तर्गत आने के कारण ये इकाइयाँ वर्तमान श्रम
क़ानूनों के दायरे से बाहर रहती हैं। दिल्ली के श्रम विभाग के अनुसार, काम
करने के अपने स्तर के कारण ये इकाइयाँ ‘संगठित क्षेत्र’ की परिभाषा से बाहर
रह जाती हैं। किसी उत्पादन इकाई को बिजली के साथ 10 मज़दूरों के काम करने
या बिजली के बिना 20 मज़दूरों के काम करने पर ही संगठित क्षेत्र के रूप में
परिभाषित किया जाता है। इस तर्क से तेज़ी से फैलता अनौपचारिक क्षेत्र,
जिसमें कि आज देश की कुल कार्य शक्ति का 94 फीसदी काम करता है, श्रम
क़ानूनों के अधिकार क्षेत्र के बाहर हो जाता है। करावलनगर और आस-पास के
इलाक़ों में कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ती इन इकाइयों को फैक्टरियों के रूप
में मान्यता न दिये जाने से सीधे-सीधे मज़दूरी, ओवर-टाइम आदि मसलों पर
मालिकों के मुक़ाबले मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता नगण्य हो जाती है।
नौकरशाही की मिलीभगत भी काफ़ी स्पष्ट है
क्योंकि श्रम विभाग या तो यह सब कुछ देखकर उदासीन बना रहता है या उसकी
सक्रिय साँठगाँठ रहती है। हालाँकि कहने को तो श्रम विभाग मज़दूरों की भलाई
के लिए बनाया गया है। बादाम मज़दूर यूनियन ने पहले भी एक बार क़ानूनी रूप
से न्यूनतम मज़दूरी सम्बन्धी शिक़ायत के साथ श्रम विभाग का दरवाज़ा खटखटाया
था। लेकिन लेबर कमिश्नर और उनके कार्यालय ने यह कहकर हस्तक्षेप करने से
कन्नी काट ली कि यह घरेलू काम है और इसलिए क़ानूनी दायरे के बाहर है। बादाम
मज़दूरों की दुर्दशा की तरफ़ श्रम विभाग का ध्यान आकर्षित करने के
उद्देश्य से पी.यू.डी.आर. ने भी 30 दिसम्बर 2009 और 11 जनवरी 2010 को पत्र
लिखकर इस मामले में हस्तक्षेप करने और दिल्ली सरकार से बादाम प्रसंस्करण
इकाइयों को उचित संशोधन द्वारा अनुसूचित उद्योगों के अन्तर्गत लाने का
अनुरोध किया, ताकि यहाँ फ़ैक्टरी ऐक्ट 1948 और न्यूनतम मज़दूरी क़ानून
1948 लागू हो सकें। इसके बाद, डिप्टी लेबर कमिश्नर (डी.एल.सी.), पूर्वी और
उत्तर-पूर्वी दिल्ली, की ओर से पी.यू.डी.आर. को मिलने के लिए बुलाया गया।
इस बैठक में डी.एल.सी. ने हमें ठेकेदारों के नाम, शिक़ायत करने वाले
मज़दूरों के नाम और यूनियन का नाम और रजिस्ट्रेशन नम्बर बताने के लिए कहा
गया। यह पूरी तरह से गोल-गोल घुमाने वाला तर्क है। किसी अनौपचारिक या
कैज़ुअल श्रम प्रक्रिया की सबसे मुख्य दिक्कत नियोक्ता और कर्मचारी की
पहचान स्थापित करने की होती है। यूनियन के रजिस्ट्रेशन नम्बर की माँग भी
अत्यन्त हास्यास्पद है क्योंकि यूनियन का रजिस्ट्रेशन तो तब तक नहीं हो
सकता जब तक कि व्यवसाय को ही मान्यता न मिल जाये। डी.एल.सी. का कहना था कि
इस मामले में वह हमारी कोई मदद नहीं कर सकते क्योंकि व्यवसाय को औपचारिक की
श्रेणी में लाना उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है औरउन्होंने मामले को
/>
बन्द करने की माँग की। इन यूनिटों में सैकड़ों की तादाद में मज़दूर काम
करते हैं और इस तरह ये आसानी से फ़ैक्टरी ऐक्ट की परिभाषा के अनुसार
फैक्टरी की श्रेणी में आ सकती हैं। यानी फ़ैक्टरी ऐक्ट में पर्याप्त
गुंजाइश मौजूद होने पर भी श्रम विभाग की नौकरशाही और राजनीतिक
प्रतिष्ठानों, दोनों ही ने इन अनौपचारिक व्यवसायों को मान्यता देने के लिए,
ताकि इनमें श्रम क़ानून लागू हो सकें, बहुत ही कम कदम उठाये हैं; देखें
बॉक्स – फ़ैक्टरी ऐक्ट।
बादाम मज़दूरों के दो साल के संघर्ष की कहानी : 2009-2011
दिसम्बर 2009 में बादाम मज़दूर यूनियन के
बैनर तले मज़दूरों ने मज़दूरी में बढ़ोत्तरी और काम की बेहतर परिस्थितियों
के लिए दो हफ़्ते लम्बी हड़ताल की। हड़ताल 16 दिसम्बर से 31 दिसम्बर 2009
तक चली। 23 दिसम्बर को लगभग 1500 मज़दूरों ने उद्योग के विनियमन और काम के
बेहतर हालात के लिए जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन किया।
हड़ताल के दौरान, मज़दूर करावलनगर में
सड़क के किनारे खाली पड़ी ज़मीन पर अपना टेण्ट लगाकर धरना-प्रदर्शन करते
रहे। मज़दूरों द्वारा अपनी आजीविका को दाँव पर लगाकर की गयी 15 दिनों की यह
हड़ताल, मज़दूरों के साहस के कारण एक मिसाल बन गयी। इसने पुलिस के
स्पष्टत: पक्षपातपूर्ण और संवेदनहीन रवैये को भी उघाड़कर रख दिया। हड़ताल
के दूसरे दिन ठेकेदारों ने अपने वफ़ादार समर्थकों के साथ मिलकर महिलाओं के
एक शान्तिपूर्ण जुलूस, जिसमें उनके बच्चे भी साथ थे, पर हमला बोल दिया।
जुलूस का नेतृत्व यूनियन के कुछ सदस्यों द्वारा किया जा रहा था। इस हमले
में यूनियन के दो सदस्य गम्भीर रूप से घायल हो गये जबकि कुछ स्त्री
मज़दूरों को हल्की चोटें आयीं। झड़प के दौरान हुई बहस में ठेकेदार, विशेष
रूप से स्त्रियों को लक्षित करते हुए, जातिवादी गाली-गलौच और मज़दूरों को
नीचा दिखाने के लिए घिनौनी भाषा के इस्तेमाल पर उतर आये। इसके बाद हुए
हंगामे में ठेकेदारों के चार गुण्डों को चोट लगी। जब पुलिस पहुँची तो उसने
ठेकेदार के घायल गुण्डों को तो मेडिकल के लिए अस्पताल भेज दिया, जबकि
यूनियन के घायल सदस्यों व कुछ अन्य हड़ताली मज़दूरों को बिना कोई मेडिकल
सहायता उपलब्ध कराये गिरफ़्तार कर लिया। ठेकेदारों के गुण्डों के कहने पर
यूनियन के सदस्यों के ख़िलाफ़ एफ़.आई.आर. भी दर्ज कर दी गयी, लेकिन
मज़दूरों और यूनियन सदस्यों के बयान पर ठेकेदारों और उनके आदमियों पर कोई
केस दर्ज नहीं किया गया। परिणामस्वरूप ठेकेदारों के जिन लोगों को पकड़ा गया
था उन्हें उसी दिन कुछ समय बाद छोड़ दिया गया, लेकिन यूनियन कार्यकर्ताओं
को अगले दिन मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया और उसके भी अगले दिन जेल से
छोड़ा गया।
पुलिस और मालिकों की साँठगाँठ का यह अकेला
मामला नहीं है। हड़ताल के दौरान पुलिस लगातार मज़दूरों को धमकाती रही, और
यह कहकर कि हड़ताल से क़ानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है,
हड़ताल ख़त्म करने के लिए उन पर दबाव डालती रही। 25 दिसम्बर 2009 को पुलिस
ने मज़दूरों को अपना टेंट हटाने के लिए मजबूर किया और धरने वाली ज़मीन के
मालिक पर अपनी जमीन खा लीकराने के लिए दबाव डाला। फलस्वरूप मज़दूरों को
दिसम्बर की सर्द रातों में खुले आसमान के नीचे सड़क पर बैठकर अपने विरोध
प्रदर्शन को जारी रखने के लिए मजबूर होना पड़ा। पिछले दो साल में यूनियन ने
अपनी सदस्यता का विस्तार किया है और करावलनगर इलाक़े में स्थित अनौपचारिक
क्षेत्र के अन्य उद्यमों, जैसे पेपर प्लेट उत्पादन में लगे मज़दूरों को भी
यूनियन में शामिल किया है। करावलनगर मज़दूर यूनियन के नये नाम से काम करते
हुए यूनियन इलाक़े की इन इकाइयों में काम करने वाले मज़दूरों के मुद्दों
और सरोकारों को लेकर सक्रिय है।
निष्कर्ष
भूमण्डलीकरण और कई राष्ट्रीय सीमाओं में
फैले उत्पादन के नये तरीक़े के साथ, विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार
के देशों में श्रम शक्ति का अनौपचारिकीकरण तेज़ी से एक सामान्य प्रवृत्ति
बनता जा रहा है। 1990-2005 के दौरान भारत में रोज़गार वृद्धि के आँकड़े
अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों की
संख्या में हुई रिकार्ड वृद्धि को दर्शाते हैं। इसके बावजूद इस बेहद विषम
क्षेत्र को श्रम क़ानूनों के दायरे में लाने के लिए उठाये गये क़दम पूरी
तरह निराशाजनक हैं। पिछले संघर्ष से पहले भी बादाम प्रसंस्करण उद्योग में
काम करने वाले मज़दूरों द्वारा खुद को संगठित करने के प्रयास तालाबन्दी और
स्थानान्तरण के रूप में समाप्त हुए थे। पहले बादाम प्रसंस्करण का एक बड़ा
केन्द्र शकरपुर था, वहाँ से करावलनगर इलाके में स्थानान्तरण आज से 10 साल
पहले मज़दूरों की हड़ताल के कारण हुआ था। (इण्डियन एक्सप्रेस, 5 जनवरी
2010)
करावलनगर अधिकांश मेट्रो शहरों में तेज़ी
से बढ़ते अनौपचारिक और बेहिसाब उत्पादन इकाइयों के जमघट का एक उदाहरण भर
है। दिल्ली में ख़ुद ऐसे कई विशिष्ट केन्द्र हैं जहाँ कई बड़े उत्पादन
घरानों, जिनमें कई जानी-मानी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी शामिल हैं, के लिए
पीस रेट पर काम कराया जाता है। इनमें इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के सर्किट
बनाने, कपड़ों की कटाई और सिलाई से लेकर, चमड़े के सामानों का उत्पादन आदि
शामिल हैं।
उत्पादन के विभिन्न स्तरों के बीच बनने
वाले सम्बन्ध बहुत कमज़ोर हैं और कभी भी टूट सकते हैं। उत्पादन और वितरण
में लगे मज़दूरों की भलाई के लिए उत्पादकों या ग्राहकों की कोई जवाबदेही
नहीं होती। अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत अधिकांश मज़दूर अपनी इच्छा से
नहीं बल्कि खु़द को ज़िन्दा भर रखने के लिए काम करते हैं। जब इस तथाकथित
‘अनौपचारिक’ क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में मज़दूर काम करते हैं तो
राज्य इसे केवल ‘अनौपचारिक’, ‘असंगठित’ श्रेणी में डालकर इनकी परेशानियों
के प्रति अपनी आँखें कैसे बन्द कर सकता है?
श्रम विभाग और सरकार द्वारा इन मज़दूरों
के हितों की रक्षा के लिए फ़ैक्टरी ऐक्ट के प्रावधानों का इस्तेमाल न
करना, राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव का परिचायक है। इससे भी श्रमिकों के
अनौपचारिकीकरण को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार मज़दूरों द्वारा लम्बे
संघर्षों से अर्जित संस्थागत सुरक्षा, जो कि फ़ैक्टरी ऐक्ट और इसके कई
संशोधनों के रूप में सामने आयी, अब तेजी से ख़त्म की जा रही है। ऐसा लग रहा
है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था मज़दूरों की एक भारी संख्या को बाज़ारकी
सनक और उतार-चढ़ावके हवाले किये बिना तथा व्यापारियों, ठेकेदारों आदि, जो
कि वर्तमान व्यवस्था में मज़दूरों की क़ीमत पर मुनाफ़ा कमाते हैं, के बिना
क़ायम नहीं रह सकती। यहाँ यह देखना दिलचस्प है कि फ़ैक्टरी ऐक्ट विशेष
रूप से राज्य सरकारों को इस ऐक्ट के प्रावधनों को अन्य तरह की उत्पादन
इकाइयों में लागू करवाने का अधिकार देता है। इन प्रावधानों के ऐसे उपयोग
का एक उदाहरण है केरल में काजू उत्पादन का उद्योग (देखें बॉक्स : काजू बनाम
बादाम)। केरल में काजू उद्योग में न्यूनतम मज़दूरी का क़ानून लागू होता
है, जिसका मुख्य कारण यह है कि राज्य के अधिकांश मज़दूर यूनियनों में
मज़बूती से संगठित हैं, इसलिए समय-समय पर राज्य सरकार से काम की बेहतर
परिस्थितियों की माँग करने में सफल रहे हैं। लेकिन दिल्ली में परिस्थिति
काफ़ी अलग है। शहर में आने वाले प्रवासी मज़दूरों की तरफ़ राज्य सरकार पूरी
तरह से अन्धी बनी रहती है।
असंगठित क्षेत्र की परेशानियों के प्रति
ऐसी उदासीनता ग़रीबों और उनके श्रम को और अधिक हाशिये पर धकेल देती है
जिसके बिना कोई अर्थव्यवस्था टिकी नहीं रह सकती।
इसलिए पी.यू.डी.आर. माँग करता है कि:
1. दिल्ली और साथ ही साथ केन्द्र सरकार
उचित संशोधनों के द्वारा इन बादाम प्रसंस्करण इकाइयों को अनुसूचित उद्योगों
के अन्तर्गत लाये, ताकि इनमें फ़ैक्टरी ऐक्ट 1948 और न्यूनतम मज़दूरी
क़ानून 1948 लागू हो सकें।
2. इन इकाइयों में काम करने वाले मज़दूरों
की मज़दूरी को दिल्ली में अकुशल और अर्द्ध-कुशल मज़दूरों के लिए निर्धारित
मज़दूरी के बराबर स्तर पर लाया जाये। ऐसा न करने पर ठेकेदारों और खारी
बावली के व्यापारियों को मज़दूरों के सम्मान के साथ जीवन जीने के बुनियादी
अधिकार के उल्लंघन का दोषी माना जाये और उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई की
जाये।
3. श्रम विभाग को अनिवार्य रूप से यह
सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए कि ठेकेदार पंजीकृत हों और
मज़दूर कल्याण और सुरक्षा उपायों के अन्तर्गत आयें। काम से सम्बन्धित
स्वास्थ्य समस्याओं के लिए विशेष उपाय उपलब्ध कराये जायें।
4. ठेकेदारों को प्रसंस्करण कार्य में
लगे मज़दूरों के लिए पहचान कार्ड, वेतन स्लिप और मस्टर रोल की व्यवस्था
करने का निर्देश दिया जाये, क्योंकि मज़दूर अपने क़ानूनी अधिकारों को पाने
के लिए रोज़गार के प्रमाण के रूप में इन चीज़ों का इस्तेमाल कर सकते हैं।
अंग्रेज़ी से अनुवाद : प्रशान्त
मज़दूरी की तुलना में बादाम प्रसंस्करण की लागत
उत्पादन की लगात की आसान गणना यह बताती है
कि मशीनीकरण के पहले बादाम के प्रत्येक कट्टे के प्रसंस्करण के लिए
ठेकेदार को 60 रुपये ख़र्च करने पड़ते थे। लेकिन अब खोल हटाने और
प्रसंस्करण की लागत नीचे चली गयी है। ठेकेदार बादाम के प्रत्येक कट्टे के
प्रसंस्करण के लिए 25-30 रुपये ख़र्च करते हैं – 5 रुपये प्रति कट्टा खोल
तोड़ने का, 16-17 रुपये सफ़ाई और पैकिंग तथा अन्य ख़र्चों के लिए। ऊपर से
मशीनीकरण के कारण काम की बढ़ी हुई दर, ठेकेदारों के लिए अतिरिक्त मुनाफ़ा
पैदा करती है। पहले प्रति कट्टा खोल तोड़ने और प्रसंस्करण में8-10 घण्टे
लगते थे। मशीनीकरण के साथ उतना ही काम बहुत तेज़ी से हो जाता है।
[अध्याय 1, खण्ड 2 (एम)]
”कारख़ाना” का अर्थ है ऐसा परिसर, उसके आस-पड़ोस को शामिल करके-
(i) जहाँ 10 या ज़्यादा मज़दूर काम कर रहे
हैं, या पूर्ववर्ती बारह महीनों के किसी भी दिन काम कर रहे थे, और जिसके
किसी भी हिस्से में बिजली की सहायता से उत्पादन प्रक्रिया चलायी जा रही हो,
या सामान्य रूप से चलायी जाती है, या
(ii) जहाँ 20 या अधिक मज़दूर काम कर रहे
हों, या पूर्ववर्ती बारह महीनों के किसी भी दिन काम कर रहे थे, और जिसके
किसी भी हिस्से में बिजली की सहायता के बिना उत्पादन प्रक्रिया चलायी जा
रही हो, या सामान्य रूप से चलायी जाती है.
[अधयाय 9 – विशेष प्रावधन]
ऐक्ट को किसी ख़ास परिसर में लागू करने के
अध्किार। (1) राज्य सरकार, सरकारी राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, यह घोषित
कर सकती है कि इस ऐक्ट के सभी या कोई प्रावधान उस जगह पर लागू होंगे जहाँ
उत्पादन प्रक्रिया बिजली से या बिना बिजली के चलायी जा रही हो या चलायी गयी
हो, इसके बावजूद कि-
(i) उसमें काम पर लगे व्यक्तियों की
संख्या 10 से कम हो, यदि बिजली की सहायता से उत्पादन होता है, और 20 से कम
यदि बिजली की सहायता के बिना उत्पादन होता हो, या
(ii) उसमें काम करने वाले व्यक्ति उसके मालिक द्वारा न नियुक्त किये गये हों लेकिन ऐसे मालिक की आज्ञा या सहमति पर काम कर रहे हों।