वे गांव लौटे तो नक्सलवादियों का निशाना बन जाएंगे और यदि राहत शिविरों
में रहते हैं तो उन्हें अमानवीय परिस्थितियों के बीच ही बाकी जिंदगी
गुजारनी पड़ेगी. सलवा जुडूम अभियान के दौरान बस्तर के राहत शिविरों में
रहने आए हजारों ग्रामीण आदिवासी आज त्रिशंकु जैसी स्थिति में फंसे हैं. राजकुमार सोनी की रिपोर्ट
कोतरापाल गांव की प्रमिला कभी 15 एकड़ खेत की मालकिन
थी, लेकिन गत छह साल से वह अपने पति और तीन बच्चों के साथ माटवाड़ा के एक
शिविर में जैसे-तैसे गुजर-बसर कर रही है. यह आदिवासी महिला बताती है, ‘गांव
का एक भी आदमी यहां रहना नहीं चाहता था, लेकिन नक्सली सबको मार डालेंगे
बोलकर पुलिसवालों ने बंदूक के जोर पर इतना ज्यादा डराया कि पूछिए मत.’ आयतु
के लिए इन शिविरों में आ जाना मालिक से मजदूर बन जाने की कहानी है. वे
कहते हैं, ‘कभी मेरे खेत में सौ- डेढ़ सौ लोग काम किया करते थे, लेकिन अब
खुद का पेट भरने के लिए काम तलाशना पड़ता है.’ दुश्वारियों के बीच जीवन जी
रहे पोडयम लच्छा बताते हैं कि जब सलवा- जुडूम चल रहा था तब अफसर शिविर
में आकर बड़ी- बड़ी बातें किया करते थे, लेकिन अब सरकारी राशन मिलना बंद
हो गया है. वे कहते हैं, ‘कोई यह देखने भी नहीं आता कि हम जी रहे हैं या
मर रहे हैं.’ सबलम सवाल दागते हैं, ‘कोई बताएगा कि हम लोग क्या करें. गांव
लौटते हैं तो नक्सली मार देंगे और इधर शिविर में रहते हैं तो भूखों
मरेंगे.’
कहने को तो ये सिर्फ चार लोगों की व्यथाएं हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में
नक्सल प्रभावित जिलों के शिविरों में रह रहे हजारों आदिवासियों की जिंदगी
कमोबेश ऐसी ही है. पिछले दिनों जब तहलका की टीम बीजापुर और सुकमा के राहत
शिविरों का जायजा लेने पहुंची तो इसी तरह के कई सुगबुगाते सवालों से हमारा
सामना हुआ. नक्सली आतंक से सुरक्षा के नाम पर अपनी संस्कृति से अलग-थलग
होकर जीवन जीने को मजबूर हुए ग्रामीण भय, आक्रोश और अनिश्चितता के बीच
सरकार को कोसते हुए मिले.
गौरतलब है कि पांच जून, 2005 को बीजापुर जिले के फरेसगढ़ थाना क्षेत्र
के अंबेली गांव में ग्रामीणों ने नक्सलियों के खिलाफ पहली बैठक की थी. तब
यह साफ नहीं था कि यह बैठक काल्पनिक नेतृत्वकर्ता सोढ़ी देवा की अगुवाई में
सलवा जुडूम जैसे एक कथित शांति अभियान की शुुरुआत बन जाएगी और जल्दी ही यह
अभियान नक्सलप्रभावित इलाकों में फैलने लगेगा. जब यह आंदोलन बीजापुर और
दंतेवाड़ा जिलों के गांव-गांव में विस्तार पाने लगा तब देश-प्रदेश के
बहुत-से बुद्धिजीवियों ने यह माना कि सलवा जुडूम ग्रामीणों का अपना अभियान
है. हालांकि बाद में इसमें राजनेताओं, प्रशासनिक अफसरों और अर्ध सैनिक
बलों की घुसपैठ के चलते अभियान की कलई खुलने में भी देर नहीं लगी. जुडूम के
सदस्य जुलूस की शक्ल में गांव-गांव जाकर ग्रामीणों को अभियान में सक्रिय
भागीदारी के लिए बाध्य करने लगे. गांव के जो लोग जुलूस में शामिल नहीं होते
थे उन्हें न केवल धमकी दी जाती थी बल्कि उन पर जुर्माना भी लगाया जाता था.
जुडूम कार्यकर्ताओं की हिंसक निगरानी के चलते गांवों में धरपकड़की
कार्रवाई तेज हुई तो नक्सलियों ने भी पलटवार किया. नक्सली उन लोगों पर हमला
करने लगे जो सलवा-जुडूम अभियान को बढ़ावा देने में लगे थे. दूसरी ओर गांव
के वे लोग जिन्हें नक्सलियों को पनाह देने के लिए शंका की नजरों से देखा
जाता था उन्हें पुलिसिया जोर-जबरदस्ती से शिविरों में ठूंसा जाने लगा. इस
दौरान ऐसे कई मामले आए जब आदिवासियों को उनके गांवों से विस्थापित करने के
लिए उनके घरों को जलाने, उनके साथ मारपीट करने, यहां तक हत्या जैसी जघन
कार्रवाइयां भी की गईं.
एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक अभियान की शुरुआत होने के एक वर्ष के भीतर
ही 265 ग्रामीण अपनी जान गंवा बैठे थे. बाद के वर्षों में यह आंकड़ा बढ़ता
ही चला गया. नक्सल मुद्दों पर विचार-विमर्श के दौरान सरकार ने कई मौकों पर
यह भी माना है कि सलवा-जुडूम अभियान के कारण 644 गांव खाली हुए थे और इन
गांवों के 52 हजार 659 ग्रामीणों को शिविरों में पनाह लेने के लिए बाध्य
होना पड़ा था. हालांकि 5 जुलाई, 2011 को सलवा जुडूम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट
का फैसला आने के बाद बहुत-से ग्रामीण अपने गांव तो लौट गए हैं, लेकिन अब
भी बीजापुर जिले के चेरपाल, गंगालुर, नेलसनार, मिरतुर, भैरमगढ़, माटवाड़ा,
जांगला, कुटरू, बेदरे, फरेसगढ़, आवापल्ली, उसूर और बासागुड़ा में 11 हजार
410, दंतेवाड़ा जिले के कासोली और बांगापाल में 814 और सुकमा जिले के
इंजरम, कोंटा, मरईगुड़ा, एर्राबोर, दोरनापाल तथा जगरगुड़ा शिविर में आठ
हजार 259 लोग अपने ही घर के पास विस्थापितों की जिंदगी जीने को मजबूर हैं.
देश के संविधान में यह स्पष्ट तौर पर लिखा है कि प्रत्येक राज्य में
नागरिक गरिमा की ठीक-ठाक हिफाजत होनी चाहिए, लेकिन जैसे ही हम भैरमगढ़ के
पत्तागोदाम क्षेत्र में स्थापित किए गए शिविर में दस्तक देते हैं वैसे ही
मानवीय गरिमा को शर्मसार करने वाले दृश्य से हमारा सामना होता है. झाड़ियों
में एक बालिका के साथ कुछ युवक अश्लील हरकत करते हुए दिखते हैं. हालांकि
हमारे वहां पहुंचते ही युवक भाग खड़े हुए, लेकिन जो दृश्य हमने देखा था
उसके बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का यह आरोप पूरी तरह से सही लगा कि शिविर
में रहने वाले आदिवासी ग्रामीणों को एक मांस के लोथड़े में तब्दील कर दिया
गया है. मानवाधिकार कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर ने भी तीन साल पहले जब राहत
शिविरों का जायजा लिया था तब कुछ महिलाओं ने उन्हें बताया था कि जुडूम से
जुड़े हुए लंपट किस्म के समर्थक कार्यकर्ता औरतों और कम उम्र की लड़कियों
के साथ न केवल मारपीट करते थे बल्कि उनका शारीरिक शोषण करके उन्हें गर्भपात
करने के लिए भी मजबूर करते थे.
हमने जब बालिका के साथ अभद्र व्यवहार करने वाले युवकों के बारे में
जानना चाहा तो पता चला कि शिविरों के दड़बेनुमा कमरों के भीतर और बाहर
महिलाओं तथा लड़कियों के साथ नोंच-खसोट का व्यवहार अब एक सामान्य घटनाक्रम
बन गया है. एक ग्रामीण ने बताया कि लड़कियों और महिलाओं के शोषण की शिकायत
पुलिस थाने में दर्ज नहीं की जाती. ऐसा शायद इसलिए भी होता है कि शिविरों
में रहने वाले लोगों को यह मालूम है कि उनकी कोई सुनेगानहीं.और फिर
शिकायत दर्ज हो भी गई तो वे जाएंगे कहां. हालांकि अब बस्तर में नगा बटालियन
तैनात नहीं है, फिर भी एक ग्रामीण जगुराम भास्कर ने इस बटालियन से संबद्ध
रहे जवानों की हरकतों के बारे में बताते हुए कहा कि बटालियन के जवानों
द्वारा शिविर में रहने वाली लड़कियों का शोषण आम बात थी.
हमने जगुराम के घर में लेटी एक किशोरवय लड़की के बारे में जानने की
कोशिश की तो पता चला कि वह लंबे समय से बुखार से पीड़ित है. लेकिन आसपास
कोई अस्पताल नहीं हैं जहां उसका ठीक-ठाक इलाज हो सके. जहां तक शिविर में
डॉक्टरों की व्यवस्था की बात है तो सलवा-जुडूम अभियान जब चल रहा था तब हर
15 दिन में डॉक्टरों का दल मलेरिया, उल्टी-दस्त की जांच करने के लिए आता था
लेकिन अब यहां के लोगों काे याद नहीं आता कि पिछली बार डॉक्टर का दौरा कब
हुआ था.
लोग अपनी गरीबी और बीमारी से तो लड़ ही रहे हैं, उन्हें अपने सिर पर
मंडराती हुई मौत को छकाने का खेल भी खेलना पड़ता है. शिविर में रहने वाले
अबका फागु का कहना था कि तमाम तरह की पुलिसिया सुरक्षा के बावजूद नक्सली
गांव लौट जाने की चेतावनी देते हुए बाजारों और शिविरों तक आ धमकते हैं. एक
ग्रामीण बुगुर कोडयाम बताते हैं कि पहले जंगल उन्हें अपना घर लगता था,
लेकिन अब यहां से जलाऊ लकड़ी लेने के लिए भी पचास बार सोचना पड़ता है
क्योंकि जंगलों पर नक्सलियों ने कब्जा कर रखा है.
जब हम बीजापुर से 22 किलोमीटर दूर जांगला शिविर में पहुंचे तो वहां
हमारी मुलाकात गोगला गांव में सरपंच रह चुके कोरसा सुकलु से हुई. कोरसा ने
बताया कि उसने लगभग 13 गांवों में खेती की जमीन खरीद ली थी. नक्सलियों को
शायद यही बात बुरी लगी. नक्सली चाहते थे कि जरूरत से ज्यादा जमीन न रखी
जाए. जब टकराव बढ़ गया तो नक्सलियों ने उनके दो भाइयों पांडू और मोशा की
हत्या कर दी. अपनी जान बचाने के लिए कोरसा को शिविर में आना पड़ा, लेकिन
यहां भी उन्हें धमकी मिलती रही. हमने कोरसा से शिविर का अनुभव साझा करने का
आग्रह किया तो उनकी आंख से आंसू निकल पड़े. हिचकियों के बीच कोरसा ने कहा,
‘भला बताइए जिसके पास खेत ही खेत है वह फसल नहीं उगा पा रहा है, यह
बदनसीबी नहीं तो और क्या है.’ कोरसा ने जानकारी दी कि अब उन्हें दो वक्त की
रोटी का इंतजाम करने के लिए नक्सलियों की नजरों से बचते हुए मजदूरी करनी
पड़ रही है.
माओवादियों के प्रभाव वाले दोरनापाल इलाके को कभी दंतेवाड़ा
जिले के अधीन रखा गया था, लेकिन एक जनवरी, 2012 को नए जिले के गठन के साथ
इसे सुकमा जिले में शामिल कर लिया गया है. सुरक्षाबलों से जुड़े हुए
लोग दोरनापाल को एक कठिन इलाका मानते रहे हैं. राज्य के गृह विभाग का यह
मानना है कि दोरनापाल के आसपास के गांवों मेंडवई, टुब्बा टोंडा, पेंटा,
पुसवाड़ा, जगवारा और थोड़े दूर-दराज के इलाकों, मसलन पोलमपल्ली, इंजरम और
एर्राबोर में नक्सलियों की अच्छी-खासी धमक देखने को मिलती है.
जब हम अपने अगले पड़ाव में दोरनापाल पहुंचेतो कंटीले तारों और सीमेंट
की बोरियों के पीछे बंदूक थामे हुए जवानों की चौकसी देखकर सहसा ही लग गया
कि यहां कुछ असामान्य हुआ है. पूछताछ करने पर पता चला कि नक्सलियों ने
बस्तर बंद के एलान के तहत रास्ते रोकने का काम प्रारंभ कर दिया है. थोड़ा
आगे बढ़ने पर हमारी मुलाकात एक युवक सोयम एर्रा से हुई. पुलिस से नाराज
सोयम का कहना था, ‘नक्सलियों को ठिकाने लगाने के बहाने उनके जैसे कई लोगों
को शिविर में ठूंस तो दिया गया, लेकिन कभी भी किसी सरकारी आदमी ने यह देखने
की कोशिश नहीं की कि हम अपना पेट किस तरह से भर रहे हैं.’ इस आदिवासी युवक
का कहना था कि ज्यादातर युवा या तो खाली बैठे हैं या फिर काम की तलाश में
उधर ( मतलब आंध्र प्रदेश ) चले गए हैं. शिविर में रहने वाले टुब्बा टोंडा
के पूर्व सरपंच पूनेम उर्रा शिकायत के लहजे में कहते हैं, ‘सरकार के लोगों
ने पहले-पहल भरोसा दिलाने के लिए रोजगार गांरटी योजना के तहत थोड़ा-बहुत
काम तो दिलवाया लेकिन बाद में हमें भाग्य के भरोसे जीने के लिए छोड़ दिया
गया.’
दोरनापाल में कुछ वक्त गुजारने के बाद हम उस राहत शिविर में जा पहुंचे
जहां 17 जुलाई, 2007 को नक्सलियों ने 33 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था.
मारे गए सभी लोगों के बारे में तब यह प्रचारित हुआ था कि वे सलवा-जुडूम
समर्थक थे. एर्राबोर के सरपंच सोयम मुक्का ने हमें बताया कि पुलिस की तगड़ी
चौकसी के बावजूद नक्सली शबरी नदी को पार करके उड़ीसा के काटन पिल्ली गांव
की तरफ से अपनी आमद दर्ज कराते रहते हैं. वहीं शिविर में रहने वाली एक
महिला कड़तीवीरी की शिकायत थी कि सरकारी कोटे के चावल की आपूर्ति बंद कर
दिए जाने से पेट भरने का संकट पैदा हो गया है. अफसरों पर राशन की बंदरबांट
का आरोप लगाते हुए कोंटा विकासखंड के बंडा राहत कैंप में रहने वाले केकट्टम
का कहना था, ‘कोंटा के सात राहत शिविरों में हर साल लगभग सात करोड़ रु की
राशन सप्लाई की जाती थी. जब एक शिकायत के बाद यह पता चला कि राशन सप्लाई का
ठेका लेने वाले व्यापारी पांच रुपये का सामान 25 रु में बेच रहे हैं उसके
बाद से सरकार ने राशन की वितरण व्यवस्था ही खत्म कर दी.’
इंजरम के राहत शिविर में हमारी मुलाकात बोड्डू विजया, शांति और दुलारी
से हुई. शिविर में आदिवासी परंपराओं से देवी-देवताओं की पूजा करके फुर्सत
हुई इन युवतियों का कहना था कि वे अपने जंगल और गांव में स्वतंत्रता से
जीना चाहती हैं लेकिन उन्हें बिलकुल नहीं पता कि ऐसा कब हो पाएगा. होगा भी
या नहीं.
फिलहाल बस्तर के राहत शिविरों में रहने वाले सभी आदिवासी इस उम्मीद में
जी रहे हैं कि कभी न कभी उनकी मुश्किलें खत्म होंगी. हालांकि जो हालत है
उसमें ऐसा होना निकट भविष्य में तो मुश्किल ही लगता है.