जनसत्ता 27 दिसंबर, 2011: कभी-कभी ऐसा होता है कि शरीर की कुछ कोशिकाएं
विद्रोह कर देती हैं। उनका पुनरुत्पादन इतनी तेजी से होने लगता है कि जिस
शरीर का वे हिस्सा होती हैं, उसी का विनाश करने लगती हैं।
इसे कैंसर कहा जाता है। कैंसर जब दिमाग में फैलता है तो वह पूरे शरीर को
प्रभावित करता है। इसी तरह, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि समाज का एक हिस्सा
समाज से ही विद्रोह कर देता है। इसका एक उदाहरण यह है कि समाज के प्रतिनिधि
ही, जिन्हें समाज के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी गई है, समाज के विरुद्ध
विद्रोह कर दें। यह तब होता है जब समाज में मौजूद शक्तिशाली निहित
स्वार्थों को लगता है कि समाज की आवाज सुन ली जाए तो उनका अपना अस्तित्व ही
खतरे में पड़ जाएगा।
यह संदेह बढ़ता जा रहा है कि लोकपाल विधेयक के
मामले में सांसदों की जिद ऐसा ही एक विद्रोह है। वे नहीं चाहते कि
सर्वग्रासी भ्रष्टाचार के विरुद्ध यह संघर्ष सफल हो। अब समाज के राजनीतिक
प्रतिनिधियों और नागरिक प्रतिनिधियों के बीच चलने वाली लड़ाई निर्णायक दौर
में पहुंच गई है। इस लड़ाई में अगर समाज हार गया और संसद की शुभ शक्ति का
अशुभ इस्तेमाल करने वाले जीत गए तो देश का राजनीतिक संकट गहरा हो जाएगा।
महात्मा
गांधी ने जब संसद को बांझ कहा था तो उनका आशय यह था कि संसद अपने आप में
एक अनुत्पादक संस्थान है, जहां कुछ नया पैदा नहीं हो सकता। इसके जरिए वे यह
कह रहे थे कि संसद की अपनी कोई राय नहीं होती। संसद में जिनका बहुमत होता
है, उनकी राय अवश्य होती है और यही राय संसद की राय बन जाती है। संसदीय
प्रक्रिया में कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे बहुमत की तानाशाही को तर्क और
विवेक से काटा जा सके।
संख्या का बल गुण की ताकत को परास्त कर देता है।
फिर महात्मा जी यह बताने लगते हैं कि संसद सदस्य कितने छल-बल और धन के
प्रयोग से चुन कर आते हैं। वर्तमान लोकतंत्र में कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है
कि सिर्फ चरित्रवान, गुणी और समाज हितैषी जन निर्वाचित होकर आ सकें। अगर
ऐसा होता तो नोम चॉम्स्की संयुक्त राज्य अमेरिका के और मेधा पाटकर भारत की
प्रधानमंत्री होतीं। इसी स्थिति पर व्यंग्य करते हुए उर्दू के प्रखर कवि
अकबर इलाहाबादी ने कहा था कि जमहूरियत वह एक तर्जे-हुकूमत है कि जिसमें,
बंदों को गिना जाता है तौला नहीं जाता। तौलने पर ज्यादातर सांसद बहुत हलके
पाए जाएंगे, पर उनकी संख्या उन्हें भारी बना देती है।
लोकपाल व्यवस्था
अगर अभी तक नहीं बन पाई है तो इसीलिए कि सरकार अपनी विशाल बाबू फौज के आचरण
पर कोई अंकुश लगाना नहीं चाहती। चूंकि संसद में हमेशा वही फैसला होता है
जो सरकार चाहती है, इसलिए सरकार की इच्छा ही संसद की इच्छा बन जाती है।
संसद का यह अवमूल्यन कैसे होता है? इसकी वजह संसदीय प्रणाली का एक गंभीर
दोष है।
यह गंभीर दोष है विधायिका यानी कानून बनाने की शक्ति और
कार्यपालिका यानी कानूनों पर अमल करने की शक्ति का एक होजाना। इस दृष्टि
से संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान बेहतर है, जिसके तहत कार्यपालिका का
बहुमत यानी राष्ट्रपति जनता के प्रत्यक्ष वोट से चुना जाता है और जरूरी
नहीं कि संसद में उसका बहुमत हो। बहुमत होने पर भी वह संसद को बाध्य नहीं
कर सकता कि वह जैसा चाहता है वैसा ही कानून बनाया जाए।
अमेरिका में विप
का विधान नहीं है। हर सांसद अपनी अंतरात्मा के अनुसार वोट देने के लिए
आजाद है। इसके विपरीत भारत में, जहां संसदीय प्रणाली है, सत्तारूढ़ दल या
गठबंधन, जो सरकार चला रहा है, संसद से मनमर्जी का कानून पास करवा सकता है।
सरकार को संसद के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए, न कि संसद को सरकार का
पिछलग्गू बने रहना चाहिए।
इसलिए जो लोग यह दावा कर रहे हैं कि कानून
बनाने का काम संसद का है, उनका सच अधूरा सच है। संसद के जिम्मे अगर यही काम
होता तो एक साफ-सुथरा और जनता को मजबूत करने वाला लोकपाल विधेयक पास करने
में महीना भर भी नहीं लगता। लोकपाल विधेयक असल में कोई अलग या स्वतंत्र
विधेयक नहीं है। इस विधेयक की जरूरत इसलिए है ताकि संसद ने जो अन्य कानून
बना रखे हैं, उनके अमल में बेईमान लोग छेद न कर सकें। पहला भ्रष्टाचार
निरोधक विधेयक आजादी मिलने के कुछ वर्षों के भीतर ही बन गया था। इस कानून
में लगातार संशोधन होते रहे। लेकिन जैसे-जैसे भ्रष्टाचार को रोकने वाले
कानून को सख्त बनाया गया, भ्रष्ट लोगों की ताकत और संख्या उतनी ही बढ़ती गई।
भ्रष्टाचार एक ऐसा कीड़ा है जो कानून के राज को भीतर से खोखला कर देता है।
कानून
तोड़ने वाले कानून का पालन करने वालों पर भारी पड़ते हैं। इस तरह एक समांतर
व्यवस्था बन जाती है जो मूल व्यवस्था को कमजोर और निरर्थक बना देती है।
उजले और काले धन के बीच का रिश्ता भी ऐसा ही है। उजला धन जेब में रख कर आप न
मकान खरीद सकते हैं न कोई उद्योग या व्यापार खड़ा कर सकते हैं, जबकि काले
धन के मालिक के लिए यह चुटकियों का काम है।
जाहिर है, समांतर
व्यवस्थाएं बनाने की यह साजिश तभी सफल होती है जब सरकार इसकी अनुमति दे या
इसे प्रोत्साहित करे। कोई भी सरकार इतनी कमजोर नहीं होती कि वह भ्रष्टाचार
पर अंकुश न लगा सके। सरकार का काम कानून का पालन करना और पालन कराना है।
अगर
किसी देश में भ्रष्टाचार व्यापक रूप से मौजूद है, तो इसका एक ही मतलब है
कि सरकार चलाने वाले खुद उसमें शामिल हैं। मुश्किल यह है कि सरकार चलाने
वाले ही संसद को भी चलाते हैं। दूसरे शब्दों में, कानून बनाने वाले ही
कानून तोड़ने में मदद करते हैं। इसलिए वे कोई ऐसा कानून क्यों बनाना चाहेंगे
जो उनके ही भ्रष्ट आचरण पर निगाह रखने और उन्हें दंडित करने का औजार बने?
हम
जैसे तमाम लोग जब संसद की इस सीमा को उजागर करते हैं तो संसद की कानून
बनाने की शक्ति को चुनौती नहीं देते, वे तो संसद पर काबिज कार्यपालिका के
इरादों पर उंगली उठाते हैं। अगर संसद में बैठ करकानूनबनाने वाले सांसद
सरकार चलाने वाले सांसदों से अलग और स्वतंत्र होते तो उनके लिए संविधान के
मूल्य और प्रावधान ही सर्वोच्च होते। वे न किसी लालच में पड़ते न किसी से
डरते। क्या ऐसा हो सकता है कि संसद के लिए दो तरह के प्रतिनिधियों का चुनाव
हो- एक, जो कानून बनाने का काम करें और दूसरे, जिन पर कानून का पालन करने
और कराने की जिम्मेदारी हो? संसद का वह हिस्सा जिसकी जिम्मेदारी कानून का
पालन करना और कराना है, भ्रष्ट और बेईमान हो जा सकता है, क्योंकि वह कानून
से प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग कर सकता है। खासकर तब जब वह करोड़ों रुपए का
काला धन खर्च करने के बाद ही चुनाव जीत पाता है।
चुनाव क्षेत्र
लोकतंत्र की मंडी बन गया है। जो पार्टी सहज ही जीत सकती है, वह भी
प्रतिद्वंद्वी दलों से कम खर्च नहीं करती, क्योंकि जहां असीम शक्ति और असीम
दौलत दांव पर हो, वहां जोखिम कौन ले? जीत जाने पर इस रकम की भरपाई तो करनी
ही होती है, कुछ और भी कमाना पड़ता है, क्योंकि इसीलिए तो करोड़ों रुपयों का
विनियोग किया गया था। जो जनता की सेवा करने नहीं, बल्कि अपना रुतबा और
अमीरी बढ़ाने के लिए ही राजनीति में हैं, उनके लिए भ्रष्टाचार समस्या नहीं,
समाधान है।
इस तरह, संसद से निकली हुई कार्यपालिका लोकतंत्र के साथ
भितरघात करने में सफल हो जाती है। इस सफलता पर अंकुश लगाने के लिए अनेक
उपाय किए गए हैं- संसदीय लेखा समिति, नियंत्रक और लेखा महा परीक्षक,
न्यायालय, स्वतंत्र प्रेस और ऐसी ही अनेक संस्थाएं। विपक्ष का तो काम ही
यही है। लेकिन पिछले साठ वर्षों का अनुभव यही बताता है कि राजनीतिक और
प्रशासनिक भ्रष्टाचार को काबू में रखने के लिए ये संस्थाएं पर्याप्त रूप से
सक्षम नहीं हैं। लोकपाल की जरूरत इसीलिए है।
लोकपाल का बुनियादी काम
यह है कि वह सरकार चलाने वालों को लोकतंत्र से खिलवाड़ न करने दे। जब संसद
का एक हिस्सा लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ करने लगता है, तब संसद के दूसरे
हिस्से का, जो सत्ता में नहीं है, कर्तव्य हो जाता है कि वह इस खिलवाड़ को
रोके। जब संसद के दोनों हिस्से नाकाम हो जाते हैं, तब समाज यह मानने को
बाध्य हो जाता है कि संसद या तो बेजान है या वह लोकतंत्र को विफल करने में
साझेदार हो चुकी है। ऐसी संसद के प्रतिनिधि यह दावा करें कि हम सर्वोच्च
हैं, तो इस पर यकीन करने के लिए किसी और ग्रह से लोग लाने होंगे जिन्हें
वास्तविक परिस्थितियों की जानकारी न हो। कानून निर्माण के क्षेत्र में संसद
सर्वोच्च है- लेकिन तभी तक, जब तक वह संविधान के लक्ष्यों को हासिल करने
के लिए प्रयत्नशील हो। संसद संविधान की चेरी है। संविधान जिन संस्थाओं के
माध्यम से बोलता है, संसद उन्हीं में एक है। जब संसद कानून निर्माण में
अपनी सर्वोच्चता के दावे के बल पर आवश्यक कानून बनाने से इनकार कर देती है,
तब वह संविधान से द्रोह करती है। लोकतंत्र को बचाने के लिए बनाई गई संस्था
लोकतंत्र की दुश्मन बन जाती है।
ऐसे हीमौकों पर समाज को हस्तक्षेप
करना पड़ता है। यह हस्तक्षेप पूरा समाज करे, ऐसा कभी नहीं होता। स्वतंत्रता
संघर्ष में भी पूरे भारत ने हिस्सा नहीं लिया था। कुछ लोग सक्रिय होते हैं,
बहुत-से लोग निष्क्रिय होते हुए भी उनका समर्थन करते हैं। अण्णा हजारे के
साथ भी यही हो रहा है। उनकी आलोचना करने वाले कम नहीं हैं, लेकिन उनका
समर्थन करने वालों की संख्या इनसे कहीं बहुत ज्यादा है। नहीं तो सरकार
अण्णा से इस तरह नहीं डरती।
यह डर अण्णा से नहीं, बल्कि भारत की जनता
से है, जिसके खिलाफ भ्रष्ट वर्ग ने आजादी के बाद से ही संयुक्त मोर्चा खोला
हुआ है। अण्णा और उनके समर्थक इस संयुक्त मोर्चा के पांवों के नीचे की
जमीन को खिसकाने में लगे हुए हैं। संसद और उसके बहुसंख्य सदस्यों की राय
सामने है। अण्णा की राय भी हमारे सामने है। इन दोनों के बीच इतनी गहरी खाई
है जिसे पाटा नहीं जा सकता।
ऐसी स्थिति में समाज की राय जानने का
एकमात्र तरीका यही है कि लोकपाल के मुद््दे पर जनमत संग्रह करा लिया जाए।
तब यह उजागर हो जाएगा कि इस सवाल पर समाज का प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है-
संसद के लोग या उन्हें चुनौती देने वाले लोग। निश्चय ही संसद के सदस्य यह
दावा नहीं कर सकते कि वे समाज से भी ऊंचे हैं। यह संसद का ही बनाया हुआ
कानून है कि प्रतिनिधि के अधिकार उससे ज्यादा नहीं हो सकते जिसका वह
प्रतिनिधित्व करता है।