जनसत्ता 24 दिसंबर, 2011 : आजादी के बाद आदिवासी ने क्या हासिल किया, इस
विषय पर राजस्थान के बूंदी में दो दिन की चर्चा थी।
इस अवसर पर किसी वक्ता ने यह नहीं कहा कि अंग्रेजों के जाने के बाद
आदिवासियों की जीवन-दशा में किसी किस्म का बुनियादी बदलाव आया है। फिर
आदिवासियों की उम्मीद और इस व्यवस्था के प्रति भरोसे को लेकर एक प्रस्ताव
पारित किया गया। प्रस्ताव में राजस्थान के मानगढ़ में 1913 में अंग्रेजों से
लड़ाई में मारे गए पंद्रह सौ आदिवासियों के प्रति सम्मान जाहिर करते हुए
मानगढ़ को राष्ट्रीय स्मारक बनाने की मांग की गई। आदिवासियों के पंडितों ने
इस प्रस्ताव पर सबसे ज्यादा उत्साह दिखाया। उन्होंने खडेÞ होकर यह प्रस्ताव
स्वीकार करने की अपील सभासदों से की। लेकिन इस कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ की
शिक्षिका सोनी सोरी के साथ हुई ज्यादतियों के खिलाफ कोई प्रस्ताव पारित
नहीं किया गया। जबकि यह कहा गया कि शहीदों के सम्मान के लिए राष्ट्रीय
स्मारक की मांग के साथ-साथ जिंदा लोगों की दुर्दशा के खिलाफ सभासदों की
सक्रियता स्पष्ट नहीं होना चिंताजनक है।
सोनी सोरी के साथ छत्तीसगढ़ में
जो हुआ है उसे इस प्रदेश से बेदखल किए गए हिमांशु कुमार द्वारा सुप्रीम
कोर्ट के न्यायाधीश के नाम लिखे एक पत्र से समझा जा सकता है। हिमांशु कुमार
के पत्र के मुताबिक आदिवासी लड़की सोनी सोरी के गुप्तांगों में पुलिस ने
पत्थर भर दिए थे। उसकी जांच कराई गई थी और डॉक्टरों ने आरोपों को सही पाया।
डॉक्टरी रिपोर्ट के साथ उस लड़की के गुप्तांगों से निकले हुए पत्थर के तीन
टुकड़े न्यायालय में भेज दिए। सोनी को छत्तीसगढ़ के दूसरे सैकड़ों आदिवासियों
की तरह माओवादी करार देकर गिरफ्तार किया गया है।
आदिवासियों के दमन के
समूचे इतिहास में आधुनिक मानव सभ्यता को शर्मसार करने वाली ऐसी दूसरी घटना
नहीं हुई है। तीसेक वर्ष पहले बागपत की माया त्यागी के साथ पुलिस ने
बलात्कार किया था। इसकी देश भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। आंदोलन हुए।
बलात्कार के आरोपी पुलिस वाले की हत्या कर दी गई और उस हत्या का देश भर में
मौन स्वागत किया गया।
ऐसी बहुत सारी घटनाएं हैं जिनमें समाज के संपन्न
तबके से जुड़ी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार या दुराचार की घटनाओं पर देश को
आंदोलित होते देखा गया है। लेकिन प्रतिवर्ष दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ
बलात्कार की जितनी घटनाएं होती हैं उनमें कितनी घटनाओं पर आंदोलन होता है?
पुलिस और सशस्त्र बलों के कई जवान बलात्कार के आरोपी होते हैं, लेकिन
उनमें से कितनों के खिलाफ सजा सुनाई जाती है?
जिस राजनीतिक व्यवस्था
में वे हैं वह प्रातिनिधिक व्यवस्था मानी जाती है। लेकिन यह प्रतिनिधिमूलक
व्यवस्था भी वास्तविक अर्थों में प्रातिनिधिक नहीं है। आदिवासी या दलित
महिलाओं के साथ बलात्कार की स्थिति में इस वर्ग के प्रतिनिधि क्याउठ खडेÞ
होते हैं? या, कहा जाए कि उनके सामने उठ खडे होने की स्थितियां ही नहीं
होती हैं। बूंदी के कार्यक्रम का उदाहरण इसी संदर्भ में हमारे सामने है।
वर्ग-वर्ण विभाजित समाज में प्रातिनिधिक राजनीतिक व्यवस्था भी समाज पर
वर्चस्व रखने वालों का ही प्रतिनिधित्वकरती है। एक दूसरे उदाहरण से इसे
/> समझा जा सकता है। राजस्थान में भंवरी देवी कांड हमारे सामने है। भंवरी दलित
परिवार की थी। वह दयनीय हालात से निकल कर शहरी दुनिया में आई थी। उसके साथ
ज्यादती करने वालों के जो नाम सामने आए हैं वे समाज के संपन्न वर्गों के
प्रतिनिधि हैं।
राजस्थान की राजनीतिक स्थिति यह है कि वहां जाट जाति से
आने वाले जो प्रतिनिधि हैं उनकी संख्या तीस है, जबकि दलितों की आबादी और
प्रतिनिधियों की संख्या उनसे कहीं अधिक है। आबादी पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा
है और विधानसभा में प्रतिनिधियों की संख्या चौंतीस। पर यह स्थिति है कि जो
आरोपी हैं उनके पक्ष में प्रतिनिधि और जाति के सदस्य लामबंद हैं। आरोपियों
के पक्ष में वे मुखर हैं। लेकिन पीड़ित भंवरी के लिए बोलने वाला कोई नहीं
है। जो दलित प्रतिनिधि बोल रहे हैं वे भंवरी के विरोध में ही हैं। यहां तक
कि भंवरी के पड़ोसी क्षेत्र की महिला दलित प्रतिनिधि भी खामोश हैं। जबकि उन
पर दो स्तरों पर प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी है। इसी तरह से सोनी सोरी पर
हुई ज्यादती के खिलाफ कोई लामबंदी नहीं दिखाई देती है। जबकि छत्तीसगढ़ को
आदिवासी प्रदेश कहा जाता है। वहां आदिवासियों का प्रतिनिधित्व भी ज्यादा
है।
अदालतों के स्तर पर भी देखें। हिमांशु कुमार ने पत्र लिख कर कहा है
कि अगर मेरी बेटी के साथ इस तरह की ज्यादती की जानकारी मिलती है तो वे
इसके लिए किसी को एक मिनट का भी मौका नहीं दे सकते। जबकि सोनी सोरी पर हुए
जुल्म की जानकारी मिलने के बावजूद प्रदेश की सरकार को पैंतालीस दिनों का
समय जवाब देने के लिए दिया गया है। कई बार अदालतें महिला उत्पीड़न के मामलों
पर खिलाफ बेहद सक्रिय दिखाई देती हैं, लेकिन किन महिलाओं के खिलाफ ज्यादती की घटनाओं को लेकर ऐसी सक्रियता दिखाई देती है?
क्या अदालतें मीडिया के जरिए जनभावनाओं को आंकती हैं और उसके आधार पर अपनी
सक्रियता तय करती हैं?
पहली बात तो यह कि न्यायालय का यह रुख स्वीकार्य
नहीं माना जा सकता कि वह विभिन्न मामलों में अलग-अलग पैमाने अख्तियार करे।
जब अफजल को फांसी की सजा देनी हो तो वह जन-भावनाओं को अपने फैसले का आधार
बनाए और जब कुछ ताकतवर लोग जेल में हों तो जनभावनाओं की जगह न्यायिक मानदंड
पर जोर देने लगे। संदर्भ के तौर पर यहां 2-जी घोटाले के मामले में जमानत
पर अदालती रुख को याद कर सकते हैं। दूसरी बात यह कि अदालतें मीडिया को
जनभावनाओं को मापने का आधार नहीं बना सकतीं, या नहीं बनाना चाहिए। इसकी एक
बड़ी वजह तो यह है कि मीडिया समाज के संपन्न वर्गों के माध्यम के रूप में
स्थापित है। समाज के कमजोर वर्गों के प्रति उसके तमाम तरह के पूर्वग्रह
उजागर होते रहे हैं। सोनी सोरी के उत्पीड़न के बारे में बताने का वक्त
मीडिया के पास नहीं है।
हमें विचार इस पहलू पर करना है कि समाज में
कमजोर वर्गों पर होने वाली ज्यादतियों के खिलाफ आवाज उठाने की जिम्मेदारी
किस पर है। सोनी सोरी के मामले में देश के बाहर के कई संगठनों और
बुद्धिजीवियों ने अपनी टिप्पणियांजाहिरकी हैं। इन दिनों कई ऐसे मसले हैं
जिन पर देश के बाहर के बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों और संस्थाओं से ही
आवाज उठाने की उम्मीद की जाने लगी है। आखिर देश के बुद्धिजीवियों को सोनी
सोरी के उत्पीड़न के खिलाफ किस तरह के संदेश का इंतजार है और भंवरी के मामले
में भी खामोशी क्यों है?
दरअसल, समाज का बुद्धिजीवी भी प्रातिनिधिक
राजनीतिक सत्ता की तरह ही अपना रुख तय करता है। फूलन देवी जब उठ खड़ी हुई तो
हर तरफ उसका विरोध दिखता था, लेकिन जब फूलन पर जुल्म हुए तो यह विरोध कहां
दुबका पड़ा था? मणिपुर में कुछ साल पहले महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर सेना
के खिलाफ प्रदर्शन किया था। यह मणिपुर में सेना की ज्यादतियों के खिलाफ
अपना रोष प्रगट करने का शायद एकमात्र रास्ता उन महिलाओं के पास बचा था। यह
देश को शर्मसार कर देने वाली घटना थी। पूरी दुनिया में विरोध का ऐसा विचलित
कर देने वाला तरीका कहीं और नहीं देखा गया। लेकिन उसे लेकर समाज की क्या
प्रतिक्रिया हुई? क्या समाज का मतलब संपन्न समूहों का दबदबा ही होता है, और
वही सभ्यता का परिचायक भी?
इस दौर में आदिवासी महिलाओं पर जिस तरह की
ज्यादतियां हो रही हैं, पूरा समाज और उसकी राजनीति अपनी चिंता को उनसे जोड़
नहीं पाती है। आदिवासी लड़कों और लड़कियों की हत्या, बलात्कार और दूसरे तरह
के अपराध रोज-ब-रोज हो रहे हैं। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि आदिवासियों को
जंगलों की तरफ धकेल कर ही आधुनिक सभ्यता ने अपनी जगह बनाई, मतलब आधुनिक
सभ्यता में बर्बरता का एक तत्त्व बराबर सक्रिय रहा है। शायद यही कारण है कि
आदिवासियों के खिलाफ बर्बरता की सच्चाई हमारे सभ्य समाज की संवेदना को छू
भी नहीं पाती है। कोई भी जब यह कहता है कि आदिवासी इलाकों में माओवादी
हिंसा है और उसकी वजह से आदिवासी हिंसा या पिछडेÞपन के शिकार हैं तो वह खुद
को अपने तर्कों से बचाने की कोशिश करता है।
यह एक इतिहास का सच है कि
माओवादी विचार यहां साठ के उत्तरार्द्ध में फलने-फूलने शुरू हुए। इससे पहले
आदिवासियों की स्थितियों में क्या परिवर्तन आया था, उनका कितना विकास हुआ
था, सब जाहिर है। जहां माओवादी नहीं हैं वहां आदिवासियों की स्थिति क्या
बदतर नहीं है? दरअसल, जिस आधुनिकता की दुहाई दी जाती है उसकी बुनियाद,
आदिवासियों के दमन का सच सामने लाते ही, ढहती दिखाई देनी लगती है। इसीलिए
जब भी चुनौती भरे प्रश्न सामने आते हैं तो समाज का संपन्न प्रतिनिधित्व इसी
तरह से अपने बचाव का जुगाड़ करता है। समाज में जिनका वर्चस्व बना हुआ है
वही प्रातिनिधिक व्यवस्था के नियामक होते हैं। यह व्यवस्था न लोकतांत्रिक
होती है न समानतामूलक।
इस पहलू पर भी गौर करें कि जिन इलाकों में
आदिवासियों पर ज्यादतियां हो रही हैं उसके बडेÞ हिस्से में कई मजदूर संगठन
हैं। वे वर्ग संघर्ष के हिमायती हैं और दुनिया में समाजवाद लाने के पक्षधर
हैं! लेकिन वे अपने पड़ोस के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की बदहाली और
उन पर होने वाले अत्याचारों को लेकर खामोश रहते हैं। दरअसल, ट्रेड यूनियन
का विकासआदिवासियों के साथ संघर्ष की योजना के साथ नहीं हुआ है; आदिवासी
इलाकों में आदिवासियों की कीमत पर ही ये ट्रेड यूनियन खड़े हुए हैं। अगर
आदिवासियों से बाकी समाज का अलगाव इतना गहरा है तो उन्हें कैसे कह सकते हैं
कि उनके लिए क्या सही और क्या गलत है? सोनी सोरी, भंवरी को इस प्रातिनिधिक
राजनीतिक व्यवस्था पर कितना भरोसा करना चाहिए?
विषय पर राजस्थान के बूंदी में दो दिन की चर्चा थी।
इस अवसर पर किसी वक्ता ने यह नहीं कहा कि अंग्रेजों के जाने के बाद
आदिवासियों की जीवन-दशा में किसी किस्म का बुनियादी बदलाव आया है। फिर
आदिवासियों की उम्मीद और इस व्यवस्था के प्रति भरोसे को लेकर एक प्रस्ताव
पारित किया गया। प्रस्ताव में राजस्थान के मानगढ़ में 1913 में अंग्रेजों से
लड़ाई में मारे गए पंद्रह सौ आदिवासियों के प्रति सम्मान जाहिर करते हुए
मानगढ़ को राष्ट्रीय स्मारक बनाने की मांग की गई। आदिवासियों के पंडितों ने
इस प्रस्ताव पर सबसे ज्यादा उत्साह दिखाया। उन्होंने खडेÞ होकर यह प्रस्ताव
स्वीकार करने की अपील सभासदों से की। लेकिन इस कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ की
शिक्षिका सोनी सोरी के साथ हुई ज्यादतियों के खिलाफ कोई प्रस्ताव पारित
नहीं किया गया। जबकि यह कहा गया कि शहीदों के सम्मान के लिए राष्ट्रीय
स्मारक की मांग के साथ-साथ जिंदा लोगों की दुर्दशा के खिलाफ सभासदों की
सक्रियता स्पष्ट नहीं होना चिंताजनक है।
सोनी सोरी के साथ छत्तीसगढ़ में
जो हुआ है उसे इस प्रदेश से बेदखल किए गए हिमांशु कुमार द्वारा सुप्रीम
कोर्ट के न्यायाधीश के नाम लिखे एक पत्र से समझा जा सकता है। हिमांशु कुमार
के पत्र के मुताबिक आदिवासी लड़की सोनी सोरी के गुप्तांगों में पुलिस ने
पत्थर भर दिए थे। उसकी जांच कराई गई थी और डॉक्टरों ने आरोपों को सही पाया।
डॉक्टरी रिपोर्ट के साथ उस लड़की के गुप्तांगों से निकले हुए पत्थर के तीन
टुकड़े न्यायालय में भेज दिए। सोनी को छत्तीसगढ़ के दूसरे सैकड़ों आदिवासियों
की तरह माओवादी करार देकर गिरफ्तार किया गया है।
आदिवासियों के दमन के
समूचे इतिहास में आधुनिक मानव सभ्यता को शर्मसार करने वाली ऐसी दूसरी घटना
नहीं हुई है। तीसेक वर्ष पहले बागपत की माया त्यागी के साथ पुलिस ने
बलात्कार किया था। इसकी देश भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। आंदोलन हुए।
बलात्कार के आरोपी पुलिस वाले की हत्या कर दी गई और उस हत्या का देश भर में
मौन स्वागत किया गया।
ऐसी बहुत सारी घटनाएं हैं जिनमें समाज के संपन्न
तबके से जुड़ी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार या दुराचार की घटनाओं पर देश को
आंदोलित होते देखा गया है। लेकिन प्रतिवर्ष दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ
बलात्कार की जितनी घटनाएं होती हैं उनमें कितनी घटनाओं पर आंदोलन होता है?
पुलिस और सशस्त्र बलों के कई जवान बलात्कार के आरोपी होते हैं, लेकिन
उनमें से कितनों के खिलाफ सजा सुनाई जाती है?
जिस राजनीतिक व्यवस्था
में वे हैं वह प्रातिनिधिक व्यवस्था मानी जाती है। लेकिन यह प्रतिनिधिमूलक
व्यवस्था भी वास्तविक अर्थों में प्रातिनिधिक नहीं है। आदिवासी या दलित
महिलाओं के साथ बलात्कार की स्थिति में इस वर्ग के प्रतिनिधि क्याउठ खडेÞ
होते हैं? या, कहा जाए कि उनके सामने उठ खडे होने की स्थितियां ही नहीं
होती हैं। बूंदी के कार्यक्रम का उदाहरण इसी संदर्भ में हमारे सामने है।
वर्ग-वर्ण विभाजित समाज में प्रातिनिधिक राजनीतिक व्यवस्था भी समाज पर
वर्चस्व रखने वालों का ही प्रतिनिधित्वकरती है। एक दूसरे उदाहरण से इसे
/> समझा जा सकता है। राजस्थान में भंवरी देवी कांड हमारे सामने है। भंवरी दलित
परिवार की थी। वह दयनीय हालात से निकल कर शहरी दुनिया में आई थी। उसके साथ
ज्यादती करने वालों के जो नाम सामने आए हैं वे समाज के संपन्न वर्गों के
प्रतिनिधि हैं।
राजस्थान की राजनीतिक स्थिति यह है कि वहां जाट जाति से
आने वाले जो प्रतिनिधि हैं उनकी संख्या तीस है, जबकि दलितों की आबादी और
प्रतिनिधियों की संख्या उनसे कहीं अधिक है। आबादी पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा
है और विधानसभा में प्रतिनिधियों की संख्या चौंतीस। पर यह स्थिति है कि जो
आरोपी हैं उनके पक्ष में प्रतिनिधि और जाति के सदस्य लामबंद हैं। आरोपियों
के पक्ष में वे मुखर हैं। लेकिन पीड़ित भंवरी के लिए बोलने वाला कोई नहीं
है। जो दलित प्रतिनिधि बोल रहे हैं वे भंवरी के विरोध में ही हैं। यहां तक
कि भंवरी के पड़ोसी क्षेत्र की महिला दलित प्रतिनिधि भी खामोश हैं। जबकि उन
पर दो स्तरों पर प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी है। इसी तरह से सोनी सोरी पर
हुई ज्यादती के खिलाफ कोई लामबंदी नहीं दिखाई देती है। जबकि छत्तीसगढ़ को
आदिवासी प्रदेश कहा जाता है। वहां आदिवासियों का प्रतिनिधित्व भी ज्यादा
है।
अदालतों के स्तर पर भी देखें। हिमांशु कुमार ने पत्र लिख कर कहा है
कि अगर मेरी बेटी के साथ इस तरह की ज्यादती की जानकारी मिलती है तो वे
इसके लिए किसी को एक मिनट का भी मौका नहीं दे सकते। जबकि सोनी सोरी पर हुए
जुल्म की जानकारी मिलने के बावजूद प्रदेश की सरकार को पैंतालीस दिनों का
समय जवाब देने के लिए दिया गया है। कई बार अदालतें महिला उत्पीड़न के मामलों
पर खिलाफ बेहद सक्रिय दिखाई देती हैं, लेकिन किन महिलाओं के खिलाफ ज्यादती की घटनाओं को लेकर ऐसी सक्रियता दिखाई देती है?
क्या अदालतें मीडिया के जरिए जनभावनाओं को आंकती हैं और उसके आधार पर अपनी
सक्रियता तय करती हैं?
पहली बात तो यह कि न्यायालय का यह रुख स्वीकार्य
नहीं माना जा सकता कि वह विभिन्न मामलों में अलग-अलग पैमाने अख्तियार करे।
जब अफजल को फांसी की सजा देनी हो तो वह जन-भावनाओं को अपने फैसले का आधार
बनाए और जब कुछ ताकतवर लोग जेल में हों तो जनभावनाओं की जगह न्यायिक मानदंड
पर जोर देने लगे। संदर्भ के तौर पर यहां 2-जी घोटाले के मामले में जमानत
पर अदालती रुख को याद कर सकते हैं। दूसरी बात यह कि अदालतें मीडिया को
जनभावनाओं को मापने का आधार नहीं बना सकतीं, या नहीं बनाना चाहिए। इसकी एक
बड़ी वजह तो यह है कि मीडिया समाज के संपन्न वर्गों के माध्यम के रूप में
स्थापित है। समाज के कमजोर वर्गों के प्रति उसके तमाम तरह के पूर्वग्रह
उजागर होते रहे हैं। सोनी सोरी के उत्पीड़न के बारे में बताने का वक्त
मीडिया के पास नहीं है।
हमें विचार इस पहलू पर करना है कि समाज में
कमजोर वर्गों पर होने वाली ज्यादतियों के खिलाफ आवाज उठाने की जिम्मेदारी
किस पर है। सोनी सोरी के मामले में देश के बाहर के कई संगठनों और
बुद्धिजीवियों ने अपनी टिप्पणियांजाहिरकी हैं। इन दिनों कई ऐसे मसले हैं
जिन पर देश के बाहर के बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों और संस्थाओं से ही
आवाज उठाने की उम्मीद की जाने लगी है। आखिर देश के बुद्धिजीवियों को सोनी
सोरी के उत्पीड़न के खिलाफ किस तरह के संदेश का इंतजार है और भंवरी के मामले
में भी खामोशी क्यों है?
दरअसल, समाज का बुद्धिजीवी भी प्रातिनिधिक
राजनीतिक सत्ता की तरह ही अपना रुख तय करता है। फूलन देवी जब उठ खड़ी हुई तो
हर तरफ उसका विरोध दिखता था, लेकिन जब फूलन पर जुल्म हुए तो यह विरोध कहां
दुबका पड़ा था? मणिपुर में कुछ साल पहले महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर सेना
के खिलाफ प्रदर्शन किया था। यह मणिपुर में सेना की ज्यादतियों के खिलाफ
अपना रोष प्रगट करने का शायद एकमात्र रास्ता उन महिलाओं के पास बचा था। यह
देश को शर्मसार कर देने वाली घटना थी। पूरी दुनिया में विरोध का ऐसा विचलित
कर देने वाला तरीका कहीं और नहीं देखा गया। लेकिन उसे लेकर समाज की क्या
प्रतिक्रिया हुई? क्या समाज का मतलब संपन्न समूहों का दबदबा ही होता है, और
वही सभ्यता का परिचायक भी?
इस दौर में आदिवासी महिलाओं पर जिस तरह की
ज्यादतियां हो रही हैं, पूरा समाज और उसकी राजनीति अपनी चिंता को उनसे जोड़
नहीं पाती है। आदिवासी लड़कों और लड़कियों की हत्या, बलात्कार और दूसरे तरह
के अपराध रोज-ब-रोज हो रहे हैं। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि आदिवासियों को
जंगलों की तरफ धकेल कर ही आधुनिक सभ्यता ने अपनी जगह बनाई, मतलब आधुनिक
सभ्यता में बर्बरता का एक तत्त्व बराबर सक्रिय रहा है। शायद यही कारण है कि
आदिवासियों के खिलाफ बर्बरता की सच्चाई हमारे सभ्य समाज की संवेदना को छू
भी नहीं पाती है। कोई भी जब यह कहता है कि आदिवासी इलाकों में माओवादी
हिंसा है और उसकी वजह से आदिवासी हिंसा या पिछडेÞपन के शिकार हैं तो वह खुद
को अपने तर्कों से बचाने की कोशिश करता है।
यह एक इतिहास का सच है कि
माओवादी विचार यहां साठ के उत्तरार्द्ध में फलने-फूलने शुरू हुए। इससे पहले
आदिवासियों की स्थितियों में क्या परिवर्तन आया था, उनका कितना विकास हुआ
था, सब जाहिर है। जहां माओवादी नहीं हैं वहां आदिवासियों की स्थिति क्या
बदतर नहीं है? दरअसल, जिस आधुनिकता की दुहाई दी जाती है उसकी बुनियाद,
आदिवासियों के दमन का सच सामने लाते ही, ढहती दिखाई देनी लगती है। इसीलिए
जब भी चुनौती भरे प्रश्न सामने आते हैं तो समाज का संपन्न प्रतिनिधित्व इसी
तरह से अपने बचाव का जुगाड़ करता है। समाज में जिनका वर्चस्व बना हुआ है
वही प्रातिनिधिक व्यवस्था के नियामक होते हैं। यह व्यवस्था न लोकतांत्रिक
होती है न समानतामूलक।
इस पहलू पर भी गौर करें कि जिन इलाकों में
आदिवासियों पर ज्यादतियां हो रही हैं उसके बडेÞ हिस्से में कई मजदूर संगठन
हैं। वे वर्ग संघर्ष के हिमायती हैं और दुनिया में समाजवाद लाने के पक्षधर
हैं! लेकिन वे अपने पड़ोस के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की बदहाली और
उन पर होने वाले अत्याचारों को लेकर खामोश रहते हैं। दरअसल, ट्रेड यूनियन
का विकासआदिवासियों के साथ संघर्ष की योजना के साथ नहीं हुआ है; आदिवासी
इलाकों में आदिवासियों की कीमत पर ही ये ट्रेड यूनियन खड़े हुए हैं। अगर
आदिवासियों से बाकी समाज का अलगाव इतना गहरा है तो उन्हें कैसे कह सकते हैं
कि उनके लिए क्या सही और क्या गलत है? सोनी सोरी, भंवरी को इस प्रातिनिधिक
राजनीतिक व्यवस्था पर कितना भरोसा करना चाहिए?