‘तुमि
की केबोलि छोबि?’ (तुम क्या केवल एक छवि हो?) कविगुरु रबींद्रनाथ टैगोर
अपनी एक रचना में अपने सामने रखी एक छवि से पूछते हैं। उस प्रश्न का संदर्भ
अपने में कुछ है। प्रश्न का उत्तर भी, जो कि वे स्वयं देते हैं, अपने में
मौलिक है।
दो हजार ग्यारह के अपने इस अंतिम स्तंभ में वही प्रश्न मैं, अदना-सा एक
इंसान, भारत माता की छवि से पूछना चाहता हूं : मां, क्या तुम केवल एक छवि
हो, मात्र एक काव्यमय परिकल्पना?
उन लोगों के लिए, जो कि भारत की खदानों को, उसके पहाड़ों को, उसके
वनों-उपवनों को, और अब जैसा कि हम देख चुके हैं, उसके आकाशीय ‘स्पेक्ट्रम’
को भी खुलेआम लूटे जा रहे हैं, भारत माता केवल एक छवि ही है, एक सशक्त
यथार्थ नहीं। बेल्लारी और गोवा जैसे इलाकों में भारतभूमि की अवैध खुदाई
करने वालों के लिए भारत माता यथार्थ नहीं।
संयुक्त राष्ट्रीय खेलों में जो सीडब्ल्यूजी के रत्नजड़ित स्वर्णकलश उठा गए
हैं, उनके लिए भारत माता यथार्थ नहीं। मुंबई के ‘आदर्श’ भवन में जो लोग
हमारे सैनिकों का हिस्सा अपने वश कर चुके हैं, उनके लिए भारत माता यथार्थ
नहीं। और जो लोग चुनाव-दर-चुनाव रुपैये को नचाते हुए हमारी जनतांत्रिक
नादानी हमसे खरीदकर सत्ताधारी बन जाते हैं, उनके लिए भारत माता यथार्थ
नहीं।
चुनाव हमारे प्रजातंत्र के प्राण हैं। कई चुनावी उम्मीदवार साफ-सुथरे,
ईमानदार लोग होते हैं। वे बा-सफाई नेकी और ईमानदारी से लड़ते हैं। और हमारा
इलेक्शन कमीशन हमारे आदर और हमारे धन्यवाद का अधिकारी है। लेकिन कौन इनकार
कर सकता है कि आज चुनावों में घूम-फिरकर जीत न राजनीतिक रुख की होती है, न
इंसानी रवैये की? जीत होती है ठनठनाते रुपैये की।
चुनावों में रुपैये बहाने वालों के लिए, गुंडागर्दी करने वालों के लिए,
गाली-गलौज उड़ाने वालों के लिए भारत माता यथार्थ नहीं। उनके लिए यथार्थ है
वह सब, जिसे अंग्रेजी में कहा जाता है : ‘कंट्रोल’, ‘मोनोपोली’,
‘डॉमिनेशन’।
हमारी बहुआयामी समस्याओं को, हमारी बहुरूपी निराशाओं को, हमारी बहुमंजिली
भ्रष्टताओं को, हमारी बहुरंगी राजनीतियों को देखते हुए सवाल उठता है : भारत
माता यह सब क्यूं सहन कर रही हैं? उन्नीस सौ अड़तालीस की मार्च में पंडित
जवाहरलाल नेहरू ने कहा था : ‘..दिमाग में एक तरह की परेशानी है। कई बातों
से उलझा रहता हूं। समय बहुत कम मिलता है।
इत्तफाक से चंद मिनट मिलते भी हैं तो दिल में विचार आता है कि डेढ़ बरस से
गवर्नमेंट में रहे, कुछ किया, बहुत कुछ नहीं किया, सही किया, गलत भी किया,
जो कुछ किया उसे देखकर दिल खुश नहीं होता.. मगर यह विचार भी पूरे नहीं हो
पाते.. कोई न कोई बड़ी क्राइसिस सामने आ जाती है..’
आज क्यूं हम ऐसी खुले दिल की साफ-साफ बात नहीं सुनते हैं?
समय नहीं है किसी को कि वह भारत माता की छवि को देखे और उससे पूछे कि ‘मां,
बता मुझे कि मैं क्यूं ऐसा विकृत हो गया हूं?’ विकृत? हां, विकृत।
भ्रष्ट-दुष्ट लोगों का यह समाज विकृत नहीं तो और क्या है? माना कि ऐसे
लोगों की संख्या नेक और ईमानदारों की संख्या से कहीं कम है। मगर प्रभाव
में, अधिकार में,पलड़ा उन्हीं का भारी है।
बोलबाला उनका खूब है, बात उन्हीं की जोर-शोर से चलती है। और हम उसको चलने
देते हैं। मजबूरियां हैं, कमजोरियां हैं। और फिर ‘चलने दो, पंगा लेने से
आफत न आ जावेगी?’, यह हमारी मानसिकता है। बड़ी और सिद्धांतों वाली बातों पर
ही नहीं, छोटी-छोटी बातों पर भी हम आदतों के गुलाम बन गए हैं। रोज की
मामूली चर्याओं को ही ले लीजिए, ‘चलने दो’ हमारा राष्ट्रीय रवैया बन गया
है।
सरकारी और गैरसरकारी दफ्तरों में भारत माता की तस्वीर कैलेंडरों पर मिलेगी,
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की, शहीद भगत सिंह की, बाबासाहेब आंबेडकर की,
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की। और मौजूदा राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या
मुख्यमंत्री की। लेकिन सीढ़ियों में, दीवारों में मिलेगी पान-तंबाकू की
पीक, मेजों-कुर्सियों-टेलीफोनों में कालिख, छत पर टंगे मिलेंगे जाले।
हम इस सबको और इस गर्द और गंदगी के ऊपर बैठी बू को क्यों सहन करते हैं?
हालत इतनी बुरी हो गई है कि समझिए हमारे मंत्रालयों में मूत्रालय नहीं,
मूत्रालयों में मंत्रालय सांस ले रहे हैं!
ऐसे दूषित वातावरण में, ऐसे मन से दूषित, तन से दूषित वातावरण में, भारत की
जनता उलझी हुई है, झुंझलाई हुई है, मायूस है, फिक्र और डरों में लिपटी हुई
है। और अपने कर्तव्य भी भूले जा रही है। उलझन, झुंझलाहट, मायूसी, फिक्र,
डर और कर्तव्यविहीनता.. यह जब है आज की वास्तविकता, तो फिर भारत माता.? आज
वह मूलत: शोकमग्न है।
भारत माता के बच्चे खुशी को जानते-पहचानते हैं, लेकिन क्या कहें.. खुशियां
हमें भूल-सी गई हैं। इकबाल के ‘सारे जहां’ में एक जुमला है : ‘इकबाल! कोई
मेहरम अपना नहीं जहां में, मालूम क्या किसी को दर्दे-निशां हमारा?’
लोकपाल का मसौदा आज संसद के पटल पर है। ‘चलने दो’ के हमारे पुराने सिद्धांत
को बदलना है। ऐसे अवसर कम आते हैं, जबकि सड़कों और मैदानों से उठी एक आवाज
संसद तक पहुंची है, और एक कानून के रूप में उभर रही है।
अगर संसद उसको पारित नहीं कर पाती है, या जो कानून बनता है, उसमें जनता
‘दम’ या वजन नहीं देख सकती है तो हम एक सुनहरा अवसर खो बैठेंगे। लोकपाल से
एक बड़ी शुरुआत हो सकती है, व्यापक उत्तरदायित्व के लिए। हर कानून एक नया
कदम होता है। उससे नई संभावनाएं खुलती हैं। यह लोकपाल का कानून भी वैसा एक
कदम है।
निराशाओं और आशंकाओं से डबाडब होते हुए भी मैं सांसदों में उम्मीद रखे हुए
हूं। और हां, हमारी न्यायपालिका में भी गर्वभरा विश्वास रखे हुए हूं।
क्या यह वर्ष उम्मीद में नए वर्ष को जन्म देगा या उदासी में?
करोड़ों देशवासियों के साथ मैं भी उसको विश्वास से भरपूर देखना चाहता हूं।
भारत माता की छवि को देखकर कहना चाहता हूं : ‘तुमि केबोलि छोबि नोई, मां,
तुमि आमादेर सोर्वश्रेष्ठ यथार्थ।’
लेखक पूर्व प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं।