बारहवीं योजना में स्वास्थ्य राम प्रताप गुप्ता

पिछले दिनों सरकार ने बारहवीं पंचवर्षीय योजना का दृष्टिकोण पत्र जारी
किया। आर्थिक विकास की ऊंची दर के बावजूद आम जनता विश्वसनीय स्वास्थ्य
सेवाओं से वंचित है। इसका प्रमुख कारण यही है कि आज भी सार्वजनिक स्वास्थ्य
सेवाओं पर राष्ट्रीय आय का मात्र 1.2 प्रतिशत खर्च किया जाता है। नतीजतन
लोगों को चिकित्सा व्यय का अधिकांश स्वयं वहन करना पड़ता है, जो उन्हें
गरीबी रेखा से नीचे धकेल रहा है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की
अपर्याप्तता और अकुशलता के कारण निजी स्वास्थ्य सेवाओं का बोलबाला हो गया
है, जिसमें झोलाछाप डॉक्टरों से लेकर विश्वस्तरीय पंचसितारा अस्पताल, सभी
शामिल हैं। निजी क्षेत्र में कार्यरत चिकित्सकों द्वारा वसूली जाने वाली
फीस पर भी कोई नियंत्रण नहीं है। ये चिकित्सक मनमानी फीस ही नहीं वसूलते,
बल्कि सस्ती दवाएं उपलब्ध होने पर भी महंगी दवाएं लिखते हैं। अनावश्यक जांच
आदि के जरिये कमीशन खाना आम बात है।

दृष्टिकोण पत्र में सरकार ने
उपरोक्त कमियों को खुलेपन से स्वीकार किया है, परंतु इसमें किसी ऐसी व्यापक
योजना का अभाव है, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि की पुष्टि
होती हो। स्वास्थ्य क्षेत्र हमेशा से उपेक्षा का शिकार रहा है। 11वीं योजना
में कहा गया था कि स्वास्थ्य व्यय को दो से तीन प्रतिशत तक ले जाया जाएगा,
परंतु आज भी यह 1.2 प्रतिशत के स्तर पर ही बना हुआ है। यह सही है कि
स्वास्थ्य पर व्यय का अधिकांश चालू व्यय होने से योजना आयोग उसे अधिक
प्रभावित नहीं कर सकता, परंतु पूंजीगत निवेश के अंश में वह वृद्धि तो कर ही
सकता है।

दृष्टिकोण पत्र में चिकित्सकों तथा चिकित्सेतर
कर्मचारियों की कमी का भी जिक्र किया गया है। चिकित्सेतर कर्मचारियों के
प्रशिक्षण की व्यवस्था वित्तीय अभाव का शिकार हो गई है। इस पत्र में
चिकित्सकों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से निजी क्षेत्र की भागीदारी के
साथ नए चिकित्सा महाविद्यालय खोलने की बात की गई है, पर इस तथ्य को भुला
दिया गया है कि निजी चिकित्सा महाविद्यालयों से निकले चिकित्सक सार्वजनिक
क्षेत्र में काम करना पसंद नहीं करते हैं। यही वजह है कि महाराष्ट्र में
पश्चिम बंगाल की तुलना में अधिक चिकित्सा महाविद्यालय होने के बावजूद
सार्वजनिक अस्पतालों के पदों को भरना मुश्किल हो रहा है।

दृष्टिकोण
पत्र में स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू करने की बात भी कही गई है, लेकिन
सुदृढ़ स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में यह योजना निजी क्षेत्र के लिए
अनुदान का माध्यम भर रह जाएगी, क्योंकि इसके क्रियान्वयन के लिए बनाई
अस्पतालों की सूची में निजी अस्पतालों की ही अधिकता है। फिर योजना के
अंतर्गत किए जाने वाले व्यय का एक तिहाई भाग तो प्रशासनिक कार्यों तथा
नियमन में ही खर्च हो जाता है। यह व्यय इतना होता है कि सार्वजनिक
स्वास्थ्य सेवाओं पर किए जानेवाले व्यय का अधिकांश पूरा हो सकता है। इस
योजना में केवल अस्पतालों में भरती मरीज के व्यय की ही पूर्ति संभव हो
सकेगी। ऐसे में बिना जरूरत भी अस्पतालों में भरती होने की प्रवृत्ति
बढ़ेगी। जबकि लोगों का सबसे ज्यादा खर्च बाह्य रोगी के रूप में होता है।

हमारे
देश में निजी स्वास्थ्य सेवाओं के आकार, उनके द्वारा विभिन्न मदों में
वसूली जानेवाली राशि, प्रदत्त सेवाओं की गुणवत्ता आदि के बारे में
जानकारियां उपलब्ध नहीं हैं, ताकि उनके नियमन हेतु कानून बनाया जा सके।
हालांकि सरकार के समक्ष नियमन संबंधी एक विधेयक विचाराधीन है, जिसमें
प्रदत्त सेवाओं की गुणवत्ता के नियमन के प्रावधान हैं, किंतु उसमें
अनावश्यक जांच, मनमानी फीस और कमीशन पर अंकुश लगाने की कोई व्यवस्था नहीं
है।

दृष्टिकोण पत्र में यह तो कहा गया है कि आम आदमी तक दवाओं की
पहुंच बनाने के लिए राज्यों को तमिलनाडु का अनुसरण करना चाहिए, परंतु इसके
लिए दवाओं के बजट में काफी वृद्धि आवश्यक होगी और अन्य राज्य इस व्यय की
पूर्ति कैसे करेंगे, इस बारे में दृष्टिपत्र मौन है। कुल मिलाकर बारहवीं
योजना के दृष्टिपत्र में लक्ष्य तो आकर्षक है, पर आवश्यक वित्तीय
प्रावधानों के अभाव में यह कैसे संभव होगा, इस पर कोई प्रभावी सुझाव नहीं
दिया गया है।

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