एक
बेहतरीन संपादक सेना के कमांडर की तरह होता है। उसकी नियुक्ति भले ही उसके
चमत्कृत करने वाले निजी कौशल से संभव हुई हो, पर उसके बाद उसकी निजी
बौद्धिक क्षमता से कहीं अधिक महत्व उसकी कुशल रणनीति और सैन्य-संचालन
क्षमता का बन जाता है।
हमारे संविधान ने सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का समान हक दिया है,
जिनमें मीडियाकर्मी भी शामिल हैं। उनके लिए (अमेरिका की तरह) अतिरिक्त
आजादी का कोई विशेष कानून नहीं बनाया गया है। लेकिन प्रेस काउंसिल के चार
बड़े प्रकाशनों से जुड़े सदस्यों ने पूर्व न्यायमूर्ति और काउंसिल के नए
अध्यक्ष मरकडेय काटजू द्वारा मीडिया पर की गई टिप्पणियों पर गहरा एतराज
जताया और उनके क्षमायाचना से इनकार करने पर काउंसिल की बैठक का बहिष्कार कर
दिया।
क्या यह विस्मयजनक नहीं कि जो मीडिया खुद को अभिव्यक्ति के अधिकार का मुखर
झंडाबरदार मानकर सत्ता प्रतिष्ठान पर बेबाकी से लिखता रहा है, वह अन्य को
मीडिया पर वैसी ही खुली टिप्पणी करने का हकदार न माने? काटजू के बयानों के
कुछ अंशों में अतिरंजना है, लेकिन राडिया प्रकरण या पेड न्यूज सरीखे मसलों
से उजागर मीडिया के नए रुझानों पर इधर खुद मीडिया के लोग भी खासे चिंतित और
असहज होकर टिप्पणी करते रहे हैं और यह भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि
मुंबई धमाकों या कारगिल युद्ध के समय या क्रिकेट या फिल्म जगत के विवादों
को ठोस खबरों पर तरजीह देते हुए मीडिया के कई लोगों ने ईमानदार आवेश या
सबसे आगे निकलने की इच्छा से खबरें जमा या पेश करने के दौरान मान्य
लक्ष्मणरेखाएं कई बार तोड़ी हैं।
लिहाजा हम समझते हैं कि दूसरे क्षेत्रों की ही तरह जिम्मेदार और साफ-सुथरे
रसूख वाले लोगों की आलोचना को सिरे से खारिज करने के बजाय मीडिया भी उनको
एक सामयिक चेतावनी के रूप में लेकर स्वनियंत्रण पर आत्ममंथन शुरू करे। नीति
बिरोध न मारिअ दूता। पहली गौरतलब बात जो मरकडेय काटजू ने कही है, वह है
संपादकीय पद का बढ़ता अवमूल्यन और खबरों की गंभीरता पर विज्ञापनदाताओं की
इच्छा को हावी होने देने से बढ़ता हल्कापन।
जब तोप मुकाबिल हो अखबार निकालोञ्ज की मानसिकता से प्रेरित हमारे अखबारों
की शुरुआत बड़ी हद तक पैसा कमाने के बजाय जन आंदोलनों और लोकतंत्र को दिशा
देने की नेक इच्छा से जुड़ी हुई है। हाल के दो-अढ़ाई दशकों में ही इस पेशे
को कॉपरेरेट उपक्रम का दर्जा मिला है। मीडिया तकनीक में अकल्पनीय विकास के
जमाने में मीडिया में बाजार से उठाई पूंजी का निवेश निश्चय ही हमारे
अखबारों (खासकर हिंदी अखबारों) के स्वरूप और विस्तार में बहुत मददगार साबित
हुआ है, लेकिन इससे एक नुकसान भी हुआ है।
खुद को शेयरधारकों के हितों के पहरुए मानने वाले प्रबंधन के बीच अखबार या
खबरिया चैनल एक उत्पाद माने जा रहे हैं और संपादकीयपर उत्पाद को
उपभोक्ताओं के लिए ज्यादा सूचनाप्रद बनाने के बजाय उसे ब्रांड बनाने का
दबाव बढ़ा है। इसलिए हमारी राय में उपभोक्ता हितों व रुचियों की अनदेखी और
संपादकीय तटस्थता में गिरावट का सारा दोष बाजार या अनुभवहीन और अतिउत्साही
युवा संपादकीय कर्मियों का मानना अनुचित है। बाजार तो एक निष्प्राण इकाई
है, जिसे अंतत: मानवीय हित स्वार्थ ही मनमानी राह पर चलाते हैं।
24×7 खबरों के युग में दिन-रात अनथक खबरों का पीछा कर रहे मीडिया में
उत्साही युवा खबरचियों की तादाद बढ़नी अनिवार्य है। खबर बटोरने का काम
जितनी ऊर्जा और जोश मांगता है, उसके संदर्भ में संपादकीय में युवाओं का कोई
विकल्प नहीं, पर उनको हताश किए बिना कॉपी से अतिरंजित बयानों और अधकचरे
निष्कर्षो को छानकर खबर को विश्वसनीयता और प्रमाणों के साथ पाठकों-दर्शकों
को देने का दाय टीम के वरिष्ठजनों का ही रहता आया है, जिनमें अनुभवी संपादक
सवरेपरि हैं।
अपनी शुरुआती नासमझी के दिनों में युवा मीडियाकर्मियों ने व्यक्तिश: जितनी
भी पुनर्लेखन की बाध्यता, फटकार या आलोचना उसके हाथों झेली हो, प्रायदृष्टि
के क्षणों में वे मेहनती संपादकों को लगातार पेशेवर सरोकार और ठोस सुझाव
सामने लाने के लिए और कार्यक्षेत्र को एक अभयारण्य बनाने के लिए कृतज्ञता
और स्नेह के साथ याद करते हैं।
अलबत्ता संपादकीय और प्रबंधन के बीच (संवेदनशील खबरों से सत्ता का कोपभाजन
बनने की संभावना को लेकर) एक महीन अकथित सजगता कायम रहना धंधई संतुलन के
लिए जरूरी है। भले ही वे एक-दूजे के कितने ही प्रशंसक क्यों न हों।
मालवीयजी से लेकर शौरी, एसपी सिंह और विनोद मेहता के युग तक यह क्रम अबाध
चला आया है।
पर इधर एक तो दिन-रात पूंजी के स्वर्णमृग का पीछा कर रहा प्रबंधन कई जगह
संपादक को दूसरे ग्रह का जीव मानने लगा है और दूसरी तरफ यह समझने-समझाने
में कि प्रकाशन समूह में संस्थान का रसूख व पाठकीय हित सवरेपरि रखने में ही
दीर्घकालिक सफलता की गारंटी है, हमारे अधिकतर संपादक भी साहसी साबित नहीं
हो रहे हैं।
एक बेहतरीन संपादक सेना के कमांडर की तरह होता है। उसकी नियुक्ति भले ही
उसके चमत्कृत करने वाले निजी कौशल से संभव हुई हो, पर उसके बाद उसकी निजी
बौद्धिक क्षमता से कहीं अधिक महत्व उसकी कुशल रणनीति और सैन्य-संचालन
क्षमता का बन जाता है, जो पूरी टीम को एकजुट रखकर रण जितवाती है।
वरिष्ठ संपादक विनोद मेहता की ताजा आत्मकथात्मक किताब ‘ए लखनऊ बॉय’ इस
मायने में पठनीय है। वह याद कराती है कि कैसे तमाम निजी जोखिम झेलकर भी कई
संपादकों ने अपने उपक्रम को पेशेवर नैतिकता और बड़े सपनों से जोड़े रखा और
किस तरह खुद विषपायी बनकर बोर्ड या मालिकान के कटुतम दबावों को वे जब तक हो
सका, बाहर थामे हुए अपनी टीम को रचनात्मक डैने फैलाने केअवसरऔर जरूरी
संरक्षण उपलब्ध कराते रहे।
वे ही कुशल नए संपादकीय कर्मियों और सटीक पत्रकारिता को रच पाए हैं। मेहता
की राय में आज अक्लमंद व्यक्ति अपने यहां अगर मीडिया में शीर्ष पद पर पहुंच
जाएं तो उनमें से बहुत कम ही हैं, जो सही रास्ते पर चलकर तरक्की करने लायक
धैर्य का प्रदर्शन करते हैं। अधिकतर अपने काम के औसतपने को जनसंपर्क और
मालिकों की खुशामद से भरने और अपने से योग्य और फुर्तीले लोगों की टांग
खींचने में ही अपना समय बिताते हैं। हिंदी में भी यह प्रजाति मौजूद है, यह
भी हम सब जानते हैं। तब फिर कोप और आहत भावनाओं का यह नाटक कैसा?
(लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
बेहतरीन संपादक सेना के कमांडर की तरह होता है। उसकी नियुक्ति भले ही उसके
चमत्कृत करने वाले निजी कौशल से संभव हुई हो, पर उसके बाद उसकी निजी
बौद्धिक क्षमता से कहीं अधिक महत्व उसकी कुशल रणनीति और सैन्य-संचालन
क्षमता का बन जाता है।
हमारे संविधान ने सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का समान हक दिया है,
जिनमें मीडियाकर्मी भी शामिल हैं। उनके लिए (अमेरिका की तरह) अतिरिक्त
आजादी का कोई विशेष कानून नहीं बनाया गया है। लेकिन प्रेस काउंसिल के चार
बड़े प्रकाशनों से जुड़े सदस्यों ने पूर्व न्यायमूर्ति और काउंसिल के नए
अध्यक्ष मरकडेय काटजू द्वारा मीडिया पर की गई टिप्पणियों पर गहरा एतराज
जताया और उनके क्षमायाचना से इनकार करने पर काउंसिल की बैठक का बहिष्कार कर
दिया।
क्या यह विस्मयजनक नहीं कि जो मीडिया खुद को अभिव्यक्ति के अधिकार का मुखर
झंडाबरदार मानकर सत्ता प्रतिष्ठान पर बेबाकी से लिखता रहा है, वह अन्य को
मीडिया पर वैसी ही खुली टिप्पणी करने का हकदार न माने? काटजू के बयानों के
कुछ अंशों में अतिरंजना है, लेकिन राडिया प्रकरण या पेड न्यूज सरीखे मसलों
से उजागर मीडिया के नए रुझानों पर इधर खुद मीडिया के लोग भी खासे चिंतित और
असहज होकर टिप्पणी करते रहे हैं और यह भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि
मुंबई धमाकों या कारगिल युद्ध के समय या क्रिकेट या फिल्म जगत के विवादों
को ठोस खबरों पर तरजीह देते हुए मीडिया के कई लोगों ने ईमानदार आवेश या
सबसे आगे निकलने की इच्छा से खबरें जमा या पेश करने के दौरान मान्य
लक्ष्मणरेखाएं कई बार तोड़ी हैं।
लिहाजा हम समझते हैं कि दूसरे क्षेत्रों की ही तरह जिम्मेदार और साफ-सुथरे
रसूख वाले लोगों की आलोचना को सिरे से खारिज करने के बजाय मीडिया भी उनको
एक सामयिक चेतावनी के रूप में लेकर स्वनियंत्रण पर आत्ममंथन शुरू करे। नीति
बिरोध न मारिअ दूता। पहली गौरतलब बात जो मरकडेय काटजू ने कही है, वह है
संपादकीय पद का बढ़ता अवमूल्यन और खबरों की गंभीरता पर विज्ञापनदाताओं की
इच्छा को हावी होने देने से बढ़ता हल्कापन।
जब तोप मुकाबिल हो अखबार निकालोञ्ज की मानसिकता से प्रेरित हमारे अखबारों
की शुरुआत बड़ी हद तक पैसा कमाने के बजाय जन आंदोलनों और लोकतंत्र को दिशा
देने की नेक इच्छा से जुड़ी हुई है। हाल के दो-अढ़ाई दशकों में ही इस पेशे
को कॉपरेरेट उपक्रम का दर्जा मिला है। मीडिया तकनीक में अकल्पनीय विकास के
जमाने में मीडिया में बाजार से उठाई पूंजी का निवेश निश्चय ही हमारे
अखबारों (खासकर हिंदी अखबारों) के स्वरूप और विस्तार में बहुत मददगार साबित
हुआ है, लेकिन इससे एक नुकसान भी हुआ है।
खुद को शेयरधारकों के हितों के पहरुए मानने वाले प्रबंधन के बीच अखबार या
खबरिया चैनल एक उत्पाद माने जा रहे हैं और संपादकीयपर उत्पाद को
उपभोक्ताओं के लिए ज्यादा सूचनाप्रद बनाने के बजाय उसे ब्रांड बनाने का
दबाव बढ़ा है। इसलिए हमारी राय में उपभोक्ता हितों व रुचियों की अनदेखी और
संपादकीय तटस्थता में गिरावट का सारा दोष बाजार या अनुभवहीन और अतिउत्साही
युवा संपादकीय कर्मियों का मानना अनुचित है। बाजार तो एक निष्प्राण इकाई
है, जिसे अंतत: मानवीय हित स्वार्थ ही मनमानी राह पर चलाते हैं।
24×7 खबरों के युग में दिन-रात अनथक खबरों का पीछा कर रहे मीडिया में
उत्साही युवा खबरचियों की तादाद बढ़नी अनिवार्य है। खबर बटोरने का काम
जितनी ऊर्जा और जोश मांगता है, उसके संदर्भ में संपादकीय में युवाओं का कोई
विकल्प नहीं, पर उनको हताश किए बिना कॉपी से अतिरंजित बयानों और अधकचरे
निष्कर्षो को छानकर खबर को विश्वसनीयता और प्रमाणों के साथ पाठकों-दर्शकों
को देने का दाय टीम के वरिष्ठजनों का ही रहता आया है, जिनमें अनुभवी संपादक
सवरेपरि हैं।
अपनी शुरुआती नासमझी के दिनों में युवा मीडियाकर्मियों ने व्यक्तिश: जितनी
भी पुनर्लेखन की बाध्यता, फटकार या आलोचना उसके हाथों झेली हो, प्रायदृष्टि
के क्षणों में वे मेहनती संपादकों को लगातार पेशेवर सरोकार और ठोस सुझाव
सामने लाने के लिए और कार्यक्षेत्र को एक अभयारण्य बनाने के लिए कृतज्ञता
और स्नेह के साथ याद करते हैं।
अलबत्ता संपादकीय और प्रबंधन के बीच (संवेदनशील खबरों से सत्ता का कोपभाजन
बनने की संभावना को लेकर) एक महीन अकथित सजगता कायम रहना धंधई संतुलन के
लिए जरूरी है। भले ही वे एक-दूजे के कितने ही प्रशंसक क्यों न हों।
मालवीयजी से लेकर शौरी, एसपी सिंह और विनोद मेहता के युग तक यह क्रम अबाध
चला आया है।
पर इधर एक तो दिन-रात पूंजी के स्वर्णमृग का पीछा कर रहा प्रबंधन कई जगह
संपादक को दूसरे ग्रह का जीव मानने लगा है और दूसरी तरफ यह समझने-समझाने
में कि प्रकाशन समूह में संस्थान का रसूख व पाठकीय हित सवरेपरि रखने में ही
दीर्घकालिक सफलता की गारंटी है, हमारे अधिकतर संपादक भी साहसी साबित नहीं
हो रहे हैं।
एक बेहतरीन संपादक सेना के कमांडर की तरह होता है। उसकी नियुक्ति भले ही
उसके चमत्कृत करने वाले निजी कौशल से संभव हुई हो, पर उसके बाद उसकी निजी
बौद्धिक क्षमता से कहीं अधिक महत्व उसकी कुशल रणनीति और सैन्य-संचालन
क्षमता का बन जाता है, जो पूरी टीम को एकजुट रखकर रण जितवाती है।
वरिष्ठ संपादक विनोद मेहता की ताजा आत्मकथात्मक किताब ‘ए लखनऊ बॉय’ इस
मायने में पठनीय है। वह याद कराती है कि कैसे तमाम निजी जोखिम झेलकर भी कई
संपादकों ने अपने उपक्रम को पेशेवर नैतिकता और बड़े सपनों से जोड़े रखा और
किस तरह खुद विषपायी बनकर बोर्ड या मालिकान के कटुतम दबावों को वे जब तक हो
सका, बाहर थामे हुए अपनी टीम को रचनात्मक डैने फैलाने केअवसरऔर जरूरी
संरक्षण उपलब्ध कराते रहे।
वे ही कुशल नए संपादकीय कर्मियों और सटीक पत्रकारिता को रच पाए हैं। मेहता
की राय में आज अक्लमंद व्यक्ति अपने यहां अगर मीडिया में शीर्ष पद पर पहुंच
जाएं तो उनमें से बहुत कम ही हैं, जो सही रास्ते पर चलकर तरक्की करने लायक
धैर्य का प्रदर्शन करते हैं। अधिकतर अपने काम के औसतपने को जनसंपर्क और
मालिकों की खुशामद से भरने और अपने से योग्य और फुर्तीले लोगों की टांग
खींचने में ही अपना समय बिताते हैं। हिंदी में भी यह प्रजाति मौजूद है, यह
भी हम सब जानते हैं। तब फिर कोप और आहत भावनाओं का यह नाटक कैसा?
(लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)