वर्तमान विवाद हाल के दो निर्णयों को लेकर छिड़ा है-पहला, काले धन पर उच्चतम न्यायालय के एक पूर्व जज की अध्यक्षता में एक विशेष जांच दल का गठन करना तथा दूसरा सलवा जुड़ूम को असांविधानिक करार देते हुए सभी विशेष पुलिस पदाधिकारियों की नियुक्ति को रद्द करना। इन दोनों निर्णयों में अदालत ने आर्थिक नव-उदारवाद की नीति की जमकर आलोचना की है। केंद्र सरकार ने काले धन पर दिए गए निर्णय की समीक्षा के लिए एक याचिका उच्चतम न्यायालय में दायर की है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि नीतिगत मामलों में अदालत को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
अदालत नीतिगत मामलों में तब तक हस्तक्षेप नहीं करती, जब तक कि नीति ही एकतरफा तथा भेदभावपूर्ण न हो, जिससे सांविधानिक प्रावधानों का उल्लंघन हो रहा हो। पिछले दिनों मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया ने एक व्याख्यान में कहा था कि हमारे पास नीति बनाने और प्रशासन चलाने की योग्यता नहीं है।
काले धन के मामले पर नव-उदारवाद की तीखी आलोचना करते हुए न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी एवं न्यायमूर्ति एसएस निज्जर की खंडपीठ ने अपने फैसले में लिखा है कि नव-उदारवादी विचारधारा ‘लालच अच्छा है’ की संस्कृति को बढ़ावा देती है। इस कारण कई दशों में संकट है, जहां पूंजीवादी मॉडल काम कर रहा है, और इससे जो बाजार पैदा होता है, वह लोगों को लूटने वाला है। ऐसी व्यवस्था में बाजार नौकरशाही के तंत्र के रूप में काम करने लगता है, जिस पर बड़े व्यापार का दबदबा रहता है और राज्य बाजार की तरह व्यवहार करने लगता है, जहां हर चीज एक कीमत पर उपलब्ध है।
लेकिन सवाल उठता है कि क्या देश की अर्थनीति अदालत तय करेगी। यह सही है कि संविधान में अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 21 के तहत क्रमशः दिए गए समानता के अधिकार एवं जीवन के अधिकार की परिधि काफी व्यापक है और अदालत को यह सुनिश्चित करने का हक है कि किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव न हो और हर व्यक्ति सम्मान के साथ जी सके। किंतु सत्ता विभाजन का सिद्धांत भी संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है और यह अधिकार कार्यपालिका का है कि वह कैसी नीति बनाएगी। उसकी जवाबदेही विधायिका के प्रति होती है। 1955 में ही उच्चतम न्यायालय ने सत्ता विभाजन के सिद्धांत को स्वीकार किया था।
इसी प्रकार सलवा जूड़ूम को अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 का उल्लंघन बताया है। उसने निर्णय दिया है कि स्थानीय आदिवासी युवाओं को विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) बनाकर एवं उन्हें हथियार देकर माओवाद से लड़ा नहीं जा सकता। एसपीओ की नियुक्ति छत्तीसगढ़ पुलिस अधिनियम, 2007 के तहत की गई थी। पर अदालत का मानना है कि इस कानूनमें स्पष्ट कुछ नहीं है और कार्यपालिका के हाथों में बहुत ज्यादा ताकत दे दी गई है। भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 में भी एसपीओ का प्रावधान है, लेकिन न्यायालय ने दोनों कानूनों में फर्क रेखांकित किया है। साथ ही उन्हें कम पारिश्रमिक दिए जाने की भी आलोचना की है और चिंता जताई है कि कम शैक्षणिक योग्यता के कारण वे माओवादी हिंसा से अपनी रक्षा करने में सक्षम नहीं हैं। अदालत ने नव उदारवादी नीति को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया।
इस विचार से काफी लोग इत्तफाक रखते हैं कि उदारवादी आर्थिक नीति के कारण काले धन एवं भ्रष्टाचार की समस्या के साथ ही असमानता बढ़ी है। यह भी सही है माओवाद की समस्या केवल बंदूक के सहारे खत्म नहीं की जा सकती। परंतु क्या यह अदालत तय करेगी कि माओवाद से कैसे निपटना है या यह सरकार का क्षेत्राधिकार है? आज अगर गरीबों, दलितों, आदिवासियों को न्याय नहीं मिलता और वे हथियार उठाने को विवश हैं, तो इसमें न्यायपालिका की भी जिम्मेदारी है। अदालतों में उन्हें त्वरित न्याय नहीं, बल्कि तारीखें मिलती हैं और यदि फैसला आ भी जाए, तो देर से मिलने के कारण वह औचित्यहीन हो जाता है।
क्या जजों को आर्थिक या अन्य नीतियों पर टिप्पणी करने का अधिकार है? अमेरिका में जजों का चुनाव विचारधारा के आधार पर होता है और नियुक्ति से पहले उनसे सवाल किए जाते हैं, जिसका सीधा प्रसारण टीवी पर होता है। इससे लोग उनके विचार जान पाते हैं। इसके बावजूद जज बनने के बाद वे किसी विचारधारा के तहत नहीं, बल्कि सांविधानिक प्रावधानों को ध्यान में रखकर ही निर्णय देते हैं।
जजों को कानून की रक्षा करनी है। यदि उच्चतम न्यायालय को लगा कि एसपीओ की शैक्षणिक योग्यता या पारिश्रमिक ज्यादा होना चाहिए, तो वह ऐसा निर्देश दे सकता था। बेशक निर्वाचित सरकार भी जनविरोधी काम करती है, किंतु नीति बनाने का काम सरकार का ही है। अदालत देखेगी कि किन कानूनों का उल्लंघन कर भ्रष्टाचार किया गया और दोषियों को दंडित करेगी। गलत नीति का जवाब जनता चुनाव में देती ही है।