बालश्रम का कलंक- निशिकांत ठाकुर

आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी जो बातें भारत के लिए शर्म की बड़ी
वजह बनी हुईं हैं बालश्रम को अगर उनमें सबसे ऊपर रखा जाए तो गलत नहीं होगा।
आज भी हमारे देश में करोड़ों बच्चे खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने की उम्र में
खेतों से लेकर होटलों और खतरनाक उद्योगों तक में अत्यंत विकट परिस्थितियों
में जीतोड़ मेहनत करने के लिए मजबूर हैं। बेफिक्री की उम्र में ही उनके ऊपर
इतनी तरह की फिक्र लदी हुईं हैं कि उनके बोझ तले दब कर वे अपने
सोचने-समझने और यहां तक कि सुख-दुख को महसूस करने की क्षमता भी खोते जा रहे
हैं। बालश्रम के लिए जिम्मेदार लोग बच्चों से उनका बचपन तो छीन ही रहे
हैं, इससे भी अधिक चिंताजनक इसके साथ जुड़े मानव व्यापार और यौन शोषण के
पहलू हैं। देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाले ऐसे ही कुछ तत्व हाल ही
में चंडीगढ़ से पकड़े गए। उनके चंगुल से कुछ बच्चे भी छुड़ाए गए। सबसे गंभीर
बात यह है कि देश में बालश्रम के खिलाफ कड़े कानून होने और इस संदर्भ में
जनजागरूकता के तमाम प्रयासों के बावजूद इस दुखद सच का अंत नहीं हो रहा है।
सवाल यह है कि आखिर क्यों?

चंडीगढ़ में जिन दो लोगों को चौदह मासूम बच्चों के साथ पकड़ा गया, उनमें
से एक लेह और दूसरा बिहार के गया जिले का रहने वाला है। इनके चंगुल से
छुड़ाए गए सभी बच्चे बिहार के बदहाल परिवारों से हैं। शुरुआती जांच में
मालूम यह हुआ है कि यह गिरोह बिहार से मासूम बच्चों को लाकर इन्हें बेहद कम
मजदूरी पर होटलों में नौकरी पर रखवाता था और उसमें से भी एक बड़ा हिस्सा
खुद हड़प लेता था। इस बार छुड़ाए गए बच्चों की उम्र छह से सत्रह साल के बीच
है और इन्हें हिमाचल प्रदेश के होटलों में मजदूरी पर रखवाया जाना था। पुलिस
के मुताबिक यह गिरोह पिछले तीन साल से सक्रिय था और पहले भी यह बच्चों को
ला चुका है जिन्हें होटलों में नौकरी पर रखा गया है। पुलिस को यह मामला
सिर्फ बालश्रम का ही नहीं लगता है, बल्कि इसके तार बाल यौन अपराध से भी
जुड़े हुए दिख रहे हैं। हालात को देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा
सकता है। अगर इस बात में दम हुआ तो समझा जा सकता है कि देश में बदहाल
परिवारों के बच्चों के साथ कितने अत्याचार हो रहे हैं और स्थिति वास्तव में
कितनी वीभत्स है।

इसी बीच, बाल मजदूरी निरोधक सप्ताह के दौरान पंजाब में श्रम विभाग
द्वारा कई जगह छापे भी मारे गए। इस बीच छह सौ से अधिक बाल मजदूरों को
छुड़ाया गया। इनमें चार सौ से अधिक बच्चे खतरनाक उद्योगों में लगे हुए थे।
इस मामले में सबसे खराब स्थिति लुधियाना की पाई गई, जहां सबसे अधिक बाल
श्रमिक पाए गए। पंजाब और चंडीगढ़ में की गई कार्रवाइयों के दौरान मिली ये
जानकारियां तो सिर्फ बानगी भर हैं। सच तो यह है कि देश का एक भी राज्य ऐसा
नहीं है, जहां बालश्रमिकों का शोषण न कियाजा रहा हो। जहां कहीं भी बालश्रम
का उपयोग हो रहा है, हर उस जगह सच का एक पहलू यह है कि वहां शोषण ही हो
रहा है। क्योंकि बच्चों को आम तौर पर हर जगह कड़ी मेहनत के बदले सामान्य से
बहुत कम मजदूरी दी जाती है। किसी काम से ना-नुकुर करने पर कई जगह तो उनकी
पिटाई भी होती है। इसके अलावा भी उन्हें तरह-तरह से सजाएं दी जाती हैं।
खतरनाक उद्योगों में तो ये लगे ही हुए हैं, कई जगह यौन शोषण के शिकार भी हो
रहे हैं। कुछ राज्य तो इस मामले में बदनाम भी हो चुके हैं और इस दिशा में
सरकारी तंत्र कुछ भी नहीं कर पा रहा है।

इसकी एक बड़ी वजह यह है कि बालश्रम का मसला किसी भी समाज में कानून से
अधिक सामाजिक ताने-बाने और देश की आबादी के एक बड़े भाग की आर्थिक हैसियत से
जुड़ा हुआ है। यह सामान्य बात नहीं है मां-बाप खुद ही अपने बच्चों को न
केवल खुद से बहुत दूर खतरनाक जगहों पर नौकरी के लिए भेज देते हैं, बल्कि
ऐसी भी कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिनमें लोगों ने अपने बच्चों को बेच तक
दिया है। इससे अधिक दुखद सच और क्या हो सकता है? लेकिन सोचने की बात यह है
कि आखिर वे कौन सी स्थितियां होती हैं जो लोगों को अपने बच्चे तक बेचने के
लिए मजबूर कर देती हैं। आखिर सामान्य स्थिति में तो कोई ऐसा कर नहीं सकता।
वही लोग ऐसा करते हैं जो दारुण दुख के दौर से गुजर रहे होते हैं। दाने-दाने
को मोहताज आदमी के पास जब कोई और चारा नहीं होता होगा तभी वह अपने कलेजे
पर पत्थर रख कर ऐसा फैसला कर पाता होगा। बेशक यह उसकी ओर से भी एक जघन्य
अपराध ही है, लेकिन उन हालात का क्या किया जाए जो किसी को ऐसे अपराध करने
और खुद अपनी ही नजर में घिर जाने के लिए मजबूर करते हैं? क्या वे सिर्फ
कानून बना देने से खत्म हो जाएंगे?

अगर हालात पर गौर किया जाए तो पाया जाएगा कि ऐसे गिरोहों के शिकार
अधिकतर बच्चे ग्रामीण परिवेश से आते हैं। वे या तो भूमिहीन खेत मजदूरों या
फिर छोटे किसानों के परिवारों से आते हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि
देश में किसानों की क्या दशा है। बड़ी संख्या में किसान कर्ज से दबे हुए
हैं। जिन क्षेत्रों में अकाल या बाढ़ की मार किसानों को झेलनी पड़ती है,
वहां तो हालात और भी बुरे हैं। सबसे मुश्किल बात यह है कि गांवों में मौजूद
गरीब परिवारों के पास रोजगार के दूसरे उपयुक्त साधन भी नहीं हैं। केंद्र
और राज्य सरकारें गांवों में ही लोगों को रोजगार देने के लिए कुछ योजनाएं
जरूर चला रही हैं, लेकिन उनका भी वास्तविक लाभ जरूरतमंद लोगों तक पूरी तरह
नहीं पहुंच पा रहा है। सरकारी योजनाओं में लगे धन का एक बड़ा हिस्सा तो
भ्रष्टाचार का अजगर ही निगल जाता है। हकीकत यही है कि अधिकतर जगहों पर
बेसहारा परिवारों को भगवान के सहारे ही छोड़ रखा गयाहै।

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जाहिर है, इन हालात के रहते बालश्रम पर काबू पाना संभव नहीं होगा।
क्योंकि जरूरत सिर्फ कानूनी कार्रवाई करने की नहीं, बल्कि उन हालात को
बदलने की है जिनके चलते यह हो रहा है। बच्चों को सिर्फ एक जगह से छुड़ा लेने
से काम चलने वाला नहीं है। आखिर इसके बाद उनका क्या होगा, यह भी सोचना
होगा। बच्चों को बेचे जाने और मजदूरी के नाम पर शोषण का शिकार होने से रोका
जा सके, इसके लिए जरूरी है कि उनके माता-पिता को रोजगार उपलब्ध कराए जाएं।
ऐसी स्थितियां बनाई जाएं कि बच्चों को इसके लिए मजबूर न होना पड़े। यह तब
तक संभव नहीं होगा जब तक कि विकास के मामले में क्षेत्रीय असंतुलन को दूर
नहीं किया जाता। शर्मनाक बात यह है कि इसमें कई जगहों पर राजनेता ही आड़े
आने लगते हैं। अपनी राजनीति चमकाने के लिए वे औद्योगिक परियोजनाएं स्थापित
होने ही नहीं देते और दूसरी तरफ खेती के हालात सुधारने के लिए कोई सार्थक
और ठोस उपाय उनके पास होता नहीं है। बालश्रम जैसे शर्मनाक कलंक से देश को
मुक्ति मिल सके, इसके लिए राजनेताओं को अपने क्षुद्र स्वाथरें से ऊपर उठकर
खुद मुकम्मल योजना तैयार करनी होगी।

[निशिकान्त ठाकुर: लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं]

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