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इस असंभव को संभव बनाया है पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के उस मॉडल ने, जो न सीधा निजीकरण है न पूंजीवाद और न ही साम्राज्यवाद. जिसका चेहरा जनता के प्रति हिमायती दिखता है और जो दावा करता है, जनता की खुशहाली का. इसका वाहक है एनजीओ, जो पब्लिक रुपी ‘पी’ के चेहरे के साथ हमारे आसपास दिखता है. और पूंजी की ताकतों का चहेता भी है. जो कई ‘पी’ यानी पैसा, पुरस्कार, पद और प्रतिष्ठा को पाने के लिये कुछ भी करने को तैयार है. बड़ा ही अजायबघर में रखने लायक है ये एनजीओ. जो तथाकथित् सभ्य, सुसंस्कृत, सोफिस्टिकेटेड भाषा जानता है, जो जनता को मूर्ख और पैसा देनेवालों को साध सकता है, जो सार्वजनिक ढांचों को लतियाने और निजी की हिमायत करना जानता है, जो जनता के संघर्ष पर पानी डालने और समाज में गैर-राजनीतिकरण की प्रक्रिया चलाने में माहिर होता है, जो एक तरह से पूंजीवादी/साम्राज्यवाद को मजबूत करने वाला दलाल होता है. जो असल में समाजवाद की भाषा बोलकर उसका ही दुश्मन होता है.
बहुत हल्ला था ब्राजील से निकले डब्ल्यूएसएफ यानी वर्ल्ड सोशल फोरम का, जिसमें दुनिया के लाखों एनजीओ, सीवीओस अथवा सिविल सोसाइटी समूह की प्रमुख भूमिका थी. और जो ‘एक और दुनिया संभव है ’ का नारा देते हुए छा गये थे.
इस नारे और काम के लिये विश्वबैंक, फोर्ड फाउन्डेशन से लेकर हर छोटी-बड़ी कंपनियों और फंडिंग एजेंसियों ने अपनी तिजोरियां खोल दी थीं. ऐसा कहा जा रहा था कि ब्राजील में राष्ट्रपति लूला जी इसी प्रक्रिया से निकलकर आये थे. पर दुखद है कि आज इन्ही लूला जी के विकास का प्रमुख मॉडल यही पीपीपी है. इस मॉडल से जनता का कितना विकास हुआ, ये तो समय बतायेगा, पर कई सारी रिर्पोंटें स्पष्ट करती हैं कि वहां के एनजीओ की समृद्धि, सम्पत्ति और व्यस्तता अचानक दिन-दूनी रफ्तार से बढ़ गई हैं. इसी ताकत के बल पर लूला वर्ल्ड इकॉनामिक फोरम की बैठक में शामिल होते हैं. जिसके खिलाफ और जनता के हक में डब्ल्यूएसएफ खड़ा हुआ था.
अब हमारी व्यवस्था भी ऐसे प्रयोग की ओर बढ़ चुकी है. हालांकि पुराना इतिहास पलटने पर पता चलता है कि यूरोप के निजीकरण का प्रारंभिक पग, जहां पर ऐसे ही पीपीपी मॉडल को एनजीओ (उस समय शायद समाजसेवी कहलाते थे) ने हाथों-हाथ लिया था, और बाद का निजी पूंजीवादी/साम्राज्यवादी दृश्य हम आज तक देख और भुगत रहे हैं.
निम्न मध्यम वर्ग/मध्यम वर्ग में निजीकरण की मानसिकता के निर्माण अथवा सरकारी सार्वजनिक ढांचों के खिलाफ खड़ा करने में भी यही एनजीओ रुपी ‘पी’ बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे हैं. यही सत्ता का खेल है? इसलिए भले ही छोटे, पर व्यवस्था के हिस्से हैं एनजीओ और यही उनकी राजनीति है.
कुछ समय से हमारी आगे बढ़ती व्यवस्था में भी बड़े ही सुनियोजित और सजग तरीके से सामाजिक भागीदारी और विकेन्द्रीकरण की बात प्रारंभहुई है. वो भी उन क्षेत्रों में, जो जनता से सीधे जुड़े हैं. संयुक्त वन प्रबंधन (जेएफएम) शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी में जन-भागीदारी समिति, पालक-शिक्षक संघ (पीटीए) जैसे कमजोर ढांचे अथवा विकेन्द्रीकरण के तहत पंचायती राज या ग्रामसभा को हर मुद्दे पर भागीदार बनाना और मजबूत करने की नारेबाजी. इस तरह की तथाकथित सामाजिक भागीदारी और सत्ता के विकेन्द्रीकरण में हमारा एनजीओ वर्ग बड़े ही गुणगान और श्रद्धाभक्ति के साथ लगा हुआ है. पीपीपी ऐसी ही भागीदारी की आगे की सीढ़ी है.
क्या ये एनजीओ इतने नादान हैं कि निजीकरण, भूमंडलीकरण के इस दौर में अपनी जिम्मेदारी से दूर भागती सरकार की बदमाशी को नहीं समझ पाते?
ये आयातित शब्द है और इसके अर्थ बड़े ही लुभावने लगते हैं. पर इसकी साजिश और अंदर का रहस्य खतरनाक है. क्या हम नहीं जानते कि बिना ग्रामसभा, पंचायत और जन-भागीदारी समिति की बहस या सलाह से कितने सारे नियम-कायदे, बिल पास हो रहे हैं या बदले जा रहे हैं ?
पिछले कुछ सालों में कितनी महाकाय देशी-विदेशी कंपनियों को जल, जंगल, जमीन और खनिज संपदा को उलीचने का अधिकार और कब्जा मिल गया है. क्या ये एनजीओ इतने नादान हैं कि निजीकरण, भूमंडलीकरण के इस दौर में अपनी जिम्मेदारी से दूर भागती सरकार की बदमाशी को नहीं समझ पाते? क्या आप आज के दौर की ताकतवर असली पंचायत तथा उसके सरपंच अमरीका और ओबामा (कुछ समय पूर्व तक बुश) तथा उसके आसपास फलती-फूलती विश्वबैंक, बहुराष्ट्रीय कंपनियां या डब्ल्यूटीओ की ताकत को नहीं जानते?
शायद सब जानते हैं और जानकर ही पहले पंचायती राज, फिर जन-भागीदारी और अब पीपीपी का बोझा अपने कंधों पर उठाकर निकल पड़े हैं. आपका काम है ऐसी भाषा और जुमलेबाजी में लोगों को उलझाना ताकि कंपनियां बिना किसी द्वंद्व, संघर्ष या विरोध के चुपचाप अपना हित साध सकें.
सरकार द्वारा सामाजिक अथवा कल्याणकारी कामों से हाथ खींचना और इन जरुरी कामों को पीपीपी जन-भागीदारी या विकेन्द्रीकरण का मुलम्मा चढाना शायद निजीकरण की शुरुआत की साजिश है.
शिक्षा अधिकार बिल के पास होने के बाद प्राईमरी शिक्षा पीपीपी का नया अखाड़ा है. इसे लाया ही इसलिये गया है. आज केन्द्र हो अथवा राज्य, पीपीपी मॉडल सभी का प्रमुख एजेंडा है. कितना आश्चर्य है कि जिस अनिवार्य शिक्षा बिल की बातें मानव संसाधन मंत्रालय के सौ दिन के बिन्दुओं में है और जिसे सौ दिनों में पास भी किया गया. उसी के ऊपर पीपीपी और नीचे उच्च शिक्षा में विदेशी पैसों को निमंत्रित करने की बात कही गयी है.
बिल पास होते ही मानव संसाधन मंत्री ने निजी क्षेत्र से प्राईमरी शिक्षा के लिये 10 हजार करोड़ रुपये के निवेश की उम्मीद जताई है. इस पैसे का उपयोग कई स्कूल खोलने और उनकी व्यवस्था सुधारने में होगा. दुःखद ये है कि इतनी स्पष्ट इबारत या घोषणा हमारे उन क्रांतिकारी एनजीओ और उनके कर्णधार साथियों को नहीं दिखती, जो अनिवार्य शिक्षा बिल को किसी भी कीमत पर पास कराने के लिये सोनिया के दरबार तक में ‘मत्था टेकने’ से भी नहीं शर्माये. पता नहीं प्रायमरी शिक्षा को अनिवार्य करा कर ये क्रांति का कौन सा तरीका ईजाद करना चाहते हैं! कभी ये ऐसी ही परिवर्तन की आहट साक्षरताआंदोलन,जन-विज्ञान आंदोलन और अभी ताजा-ताजा वर्ल्ड सोशल फोरम में भी देखते थे.
शक करने की गुंजाइश शायद नहीं होती, अगर इनमें से ही ऐसे धर्नुधर क्रांतिकारी विश्वबैंक, टाटा ट्रस्ट और सरकार के साथ गलबहियां डाले पीपीपी पर हामी नहीं भर रहे होते. कुछ महीने पहले मध्यप्रदेश में पीपीपी मॉडल को सजाने-संवारने और निमंत्रित करने में सरकार के साथ उन लोगों के हाथ भी रंगे हुए हैं, जो दलितों-शोषितों के अंगुठे का सम्मान करते हुए कई सालों से उसके नाम से अपने ढांचे को भुना रहे हैं.
प्रत्येक जिले को मिलनेवाली 40 करोड़ रुपयों जैसी भारी-भरकम राशि शायद सिर झुकाकर दलाली करने के ‘तर्क’ को अपने-आप गढ़ लेती है.
कभी ‘‘देखो बिड़ला टाटा-बाटा, कहते रोज-रोज का घाटा” जैसे क्रांतिकारी गीतों की पंक्तियां इन स्वनामधन्य क्रांतिकारी संस्थाओं की चारदीवारी से टकराकर बाहर आती थीं. और लोगों को क्रांति, परिवर्तन, तर्क और जनविज्ञान का पाठ पढ़ाया जाता था. दुःखद है कि आज न सिर्फ बिड़ला बल्कि आईसीआईसीआई, यूटीआई, कम्प्यूटर मालिक अजीम प्रेमजी से लेकर विश्वबैंक और डीएफआईडी जैसे खतरनाक ढांचे भी इन्हें धन-धान्य से भरपूर कर रहे हैं. इसलिए जिस तार्किक, वैज्ञानिक और समाज-सापेक्ष कार्यक्रम के कारण इन्हें जाना-पहचाना जाता था वह आज इतिहास बन गया है. न सिर्फ कार्यक्रम, पाठ्यक्रम बल्कि लोग भी अतार्किक, दंभी तथा समाज से कहीं दूर जा चुके हैं. आज इनका सबसे रेडिकल कार्यक्रम आईसीआईसीआई द्वारा पोषित ‘शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र’ है, जो विश्वबैंक के पीपीपी मॉडल के ज्यादा करीब बैठता है.
कभी यही लोग यूरोपियन कमीशन के डीपीईपी (प्राइमरी शिक्षा कार्यक्रम) नामक कार्यक्रम चलाकर गदगदायमान थे. जिसमें भी ढेर सारी शर्तों के साथ फंडिंग का ही दबदबा था. पर प्रत्येक जिले को मिलनेवाली 40 करोड़ रुपयों जैसी भारी-भरकम राशि शायद सिर झुकाकर दलाली करने के ‘तर्क’ को अपने-आप गढ़ लेती है. इसीलिये इसे अत्यन्त नवाचारी प्रयोग कहा गया, जिसमें ‘हाथी आया झूम के’ कविता के साथ शिक्षक का नाचना अनिवार्य था. उस समय देश भर के ऐसे शिक्षा की मशाल लेकर घूमनेवाले स्वनामधन्य एनजीओ उस समय डीपीईपी ही कर रहे थे. और इस अभिनव क्रांतिकारी नवाचारी प्रयोग के तर्क गढ़े जा रहे थे. हालांकि बाद में एनसीईआरटी की रपट डीपीईपी की असफलता को उजागर करती है.
बाद में एनजीओ सन् 2000 से विश्व बैंक पोषित सर्वशिक्षा अभियान में लग गये. इस अभियान का ही जन-भागीदारी का मॉडल है पीटीए यानी पालक-शिक्षक संघ, जिसे जन-भागीदारी का सर्वश्रेष्ठ मॉडल कहा जा रहा है. शायद इसी का वैश्विक रुप है पीपीपी. जो शिक्षा की बची-खुची, सड़ी-गली सरकारी दीवारों में आखरी कील ठोंकने का काम करेगा.
शायद आज ज्यादा जरुरत है जन-भागीदारी, संयुक्त, पार्टनरशिप, विकेन्द्रीकरण, पंचायती राज, ग्राम सभा, अधिकार आधारित राईटबेस जैसे शब्दों के गूढ़ अर्थ को जानना, उसकी राजनीति को समझना और इन शब्दों की पोषक ताकतों के खिलाफ लामबंद होना, जो एक तरफ राईट-टू-वर्क, राईट-टू-एजुकेशन, राईट-टू-फूड, राईट-टू-इन्फॉरमेशन जैसी बातों में जनता को उलझा रही है. दूसरी तरफ पीपीपी को ठेका दे रही है