नई दिल्ली [विष्णु गुप्त]। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि भोपाल गैस काड के
आठ अभियुक्तों को न्यायालय ने दोषी ठहराया है, उन्हें दो-दो साल की सजा
सुनाई है या अब भोपाल गैस काड के पीड़ितों को न्याय मिल ही गया।
अहम यह है कि भोपाल गैस काड के अभियुक्तों को दंडित करने में 25 साल का
समय क्यों और कैसे लगा? न्याय की इतनी बड़ी सुस्ती और कछुआ चाल। क्या गैस
पीड़ितों की इच्छानुसार यह न्याय हुआ है? क्या सीजेएम कोर्ट के फैसले से गैस
पीड़ितों के दुख-दर्द और हुए नुकसान की भरपाई हो सकती है।
मुख्य आरोपी ‘यूनियन कार्बाइड कंपनी के चेयरमैन वारेन एंडरसन पर
न्यायालय द्वारा कोई टिप्पणी नहीं होने का भी कोई अर्थ निकलता है क्या।
भोपाल जिला के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने मोहन तिवारी द्वारा यूनियन
कर्बाइड के आठ तत्कालिन पदाधिकारियों को दो-दो साल की सजा जरूर सुनाई गई,
पर यूनियन कार्बाइड के मालिक वारेन एंडरसन पर कोई टिप्पणी नहीं हुई है।
वारेन एंडरसन पिछले 25 साल से फरार घोषित है। सीबीआई अब तक एंडरसन का पता
खोजने में नाकामयाब रही है।
सजा नरसंहारक धाराओं में नहीं, बल्कि लापरवाही की धाराओं में सुनाई गई
है। भारतीय कानून संहिता की धारा 304 ए के तहत सुनाई गई है, जो लापरवाही के
विरुद्ध धारा है। लापरवाही नहीं, बल्कि जनसंहारक जैसा अपराध था।
भोपाल गैस पीड़ितों की माग भी थी कि यूनियन गैस कर्बाइड के खिलाफ हत्या
का मामला चलाया जाए, लेकिन पुलिस और सरकार का रवैया इस प्रसंग में यूनियन
कार्बाइड की पक्षधर वाली रही है। यही कारण है कि 25 सालों से फरार यूनियन
कर्बाइड के मालिक एंडरसन की गिरफ्तारी तक संभव नहीं हो सकी है। गैस पीड़ितों
का संगठन इस फैसले से कतई खुश नहीं है और इसकी माग दोषियों की फासी की सजा
मुकर्रर कराना है। गैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ने वाले अब्दुल जब्बार ने इस
फैसले को न्यायिक त्रासदी करार दिया है और न्यायिक मजिस्ट्रेट के फैसले के
खिलाफ और अभियुक्तों को फासी दिलाने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने का
ऐलान किया है।
सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी
भोपाल गैस काड दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी थी। दो दिसंबर 1984
को भोपाल की आबादी पर यूनियन गैस कार्बाइड का कहर बरपा था। घोर लापरवाही
के कारण भोपाल गैस कार्बाइड से मिथाइल आइसोसायनाइड गैस का रिसाव हुआ था।
मिथाइल आइसोसायनाइड के रिसाव ने न सिर्फ फैक्टरी के आसपास की आबादी को अपने
चपेट मे लिया था, बल्कि हवा के झोकों के साथ दूर-दूर तक निवास करने वाली
आबादी तक अपना कहर फैलाया था। गैस रिसाव से सुरक्षा का इंतजाम तक नहीं था।
दो दिन तक फैक्टरी से जहरीली गैसों का रिसाव होता रहा। फैक्टरी के अधिकारी
गैस रिसाव को रोकने के इंतजाम करने की जगह खुद भाग खड़े हुए थे। गैस का
रिसाव तो कई दिन पहले से ही हो रहा था। फैक्टरी के आसपास रहने वाली आबादी
कई दिनों से बैचेनी महसूस कर रही थी। इतना ही नहीं, बल्कि उल्टी और जलन
जैसी बीमारी भी घातकतौर पर फैल चुकी थी। उदासीन और लापरवाह कंपनी प्रबंधन
ने इस तरह मिथाइल गैस आधारित बीमारी पर गौर ही नहीं किया था।
मिथाइल आइसोसायनाइड गैस की चपेट में आने से करीब 15 हजार लोगों की मौत
हुई थी। पाच लाख से अधिक लोग घायल हुए थे। जहरीली गैस के चपेट में आने से
सैकड़ों लोगों की बाद में मौत हो गई। यही नहीं, आज भी हजारों पीड़ित ऐसे हैं,
जो जहरीली गैस के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं। भोपाल गैस कर्बाइड के आसपास
की भूमि जहरीली हो गई है।
सबसे बड़ी बात यह है कि भोपाल गैस काड के बाद में जन्म लेने वाली पीढ़ी
भी मिथाइल गैस के प्रभाव से पीड़ित है और उसे कई खतरनाक बीमारिया विरासत में
मिली हैं।
मुआवजे के नाम पर धोखाधड़ी
मुआवजे के नाम पर धोखाधड़ी हुई है। इस धोखाधड़ी में भारत सरकार और मध्य
प्रदेश की तत्कालीन सरकार के हाथ काले हैं। यूनियन कार्बाइड कंपनी के साथ
सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थता में मुआवजे के लिए एक समझौता हुआ था। समझौते
में एक तरह से भोपाल गैस काड के पीड़ितों के साथ अन्याय ही नहीं हुआ था,
बल्कि उनके संघर्ष और भविष्य पर भी नकेल डाली गई थी। जबकि यूनियन कार्बाइड
को कानूनी उलझन से मुक्त कराने जैसी शर्त को माना गया था।
शर्त के अनुसार यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन, यूनियन कार्बाइड इंडिया
लिमिटेड, यूनियन कार्बाइल हागकाग और वारेन एंडरसन के खिलाफ चल रही सभी
अपराधिक न्यायिक प्रक्रिया को समाप्त मान लिया गया। इसके बदले में भोपाल
गैस काड के पीड़ितों को क्या मिला, यह भी देख लीजिए? 713 करोड़ रुपये मात्र
मुआवजे के तौर पर यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन ने दिए थे।
दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी और 15 हजार से ज्यादा जानें छीनने
वाली व पाच लाख से ज्यादा लोगों को अपने घातक जद में लेने वाली इस
नरसंहारक घटना की मुआवजा राशि मात्र 713 करोड़ रुपये। भारत सरकार की अति
रुचि और यूनियन गैस कार्बाइड कारपोरेशन के प्रति अतिरिक्त मोह ने गैस
पीड़ितों की संभावनाओं का गला घोंट दिया।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस नरसंहारक घटना में सैकड़ों लोग ऐसे मारे गए
थे, जिनके पास न तो कोई रिहायशी प्रमाण थे और न ही नियमित पत्ते का
पंजीकरण था। ऐसे गरीब हताहतों के साथ न्याय नहीं हुआ। उन्हें मुआवजा भी
नहीं मिला। सरकारी कामकाज के झझटों के कारण भी मुआवजा की राशि दुर्बल और
असहाय लोगों तक नहीं पहुंची।
एंडरसन को मिला सरकारी कवच
यूनियन गैस कार्बाइड कारपोरेशन के मालिक वारेन एंडरसन के साथ भारत
सरकार का विशेषाधिकार जुड़ा हुआ था। पुलिस-प्रशासन और न्यायपालिका ने भी
एंडरसन के प्रति नरम रुख जताया था। पुलिस-प्रशासन, केंद्र व मध्य प्रदेश की
उस समय की सरकारें और न्यायपालिका का नरम रुख नहीं होता और पक्षकारी
भूमिका नहीं होती तो क्या एंडरसन भारत से भागने में सफल होता।
ऐसे तथ्य हैं, जिससे साफ झलकता है कि भारतीय सत्ता व्यवस्था एंडरसन के
हित को सुरक्षित रखने में कितनी संलग्न थी और पक्षकारीथी।इतनी बड़ी
नरसंहारक घटना के लिए मुख्य दोषी को रातोंरात जमानत कैसे मिल जाती है? घटना
के बाद पाच दिसंबर 1984 को एंडरसन भारत आया था। पुलिस उसे गिरफ्तार करती
है, पर एंडरसन को जेल नहीं भेजा जाता है। गेस्ट हाउस में रखा जाता है।
गेस्ट हाउस से ही उसे जमानत मिल जाती है। इतना ही नहीं, भोपाल से दिल्ली
आने के लिए भारत सरकार हवाई जहाज भेजती है। भारत सरकार के हवाई जहाज से
एंडरसन दिल्ली आता है और फिर अमेरिका भाग जाता है। अभी तक एंडरसन अमेरिका
में ही रह रहा है। ज्ञात तौर पर उसकी सक्रियता बनी हुई है। विभिन्न
व्यापारिक और औद्योगिक योजनाओं में न केवल वह सक्रिय है, बल्कि उसके पास
मालिकाना हक भी है। इसके बावजूद सीबीआई वारेन एंडरसन का पता नहीं खोज पाई
है। अभी तक वह भारतीय न्याय प्रकिया के तहत फरार ही है।
फैसला या न्यायिक त्रासदी
गैस पीड़ितों के लिए लड़ाई लड़ने वाले हरेक संगठन ने न्यायिक मजिस्ट्रेट
के इस फैसले को न्यायिक त्रासदी करार दिया है। अब्दुल जब्बार कहते हैं कि
पीड़ितों पर पहले औद्योगिक त्रासदी का नरसंहार हुआ और अब न्यायिक त्रासदी
हुई है। जिम्मेवार और लापरवाह अभियुक्तों को फासी मिलनी चाहिए थी, लेकिन
उन्हें मात्र दो-दो साल की जेल की सजा हुई है और एक-एक लाख का जुर्माना हुआ
है। यह सजा कुछ भी नहीं है। गैस पीड़ितों की नाराजगी समझी जा सकती है। गैस
पीड़ित न्यायिक मजिस्ट्रेट के इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करने का
ऐलान कर चुके हैं। जहा से न्याय की उन्हें उम्मीद तो होगी पर संघर्ष भी कम
नहीं होगा।
सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि न्यायिक मजिस्ट्रेट के फैसले में
मुख्य दोषी वारेन एंडरसन पर कोई टिप्पणी नहीं है। एंडरसन पर टिप्पणी न होना
भी गैस पीड़ितों की पीड़ा और संधर्ष की राह मुश्किल करता है।
एंडरसन को सजा क्यों न मिले
भोपाल गैस काड के पीड़ितों को न्याय मिले। ऐसी सरकारी प्रक्रिया क्यों
नहीं चलनी चाहिए? अमेरिका पर कूटनीतिक दबाव डालना चाहिए कि एंडरसन को पकड़कर
भारत को सौंपा जाए। अमेरिका भारत के साथ मधुर सबंधों की रट रोज लगाता है,
लेकिन भोपाल गैस काड के मुख्य आरोपी को उसने एक तरह से संरक्षण दिया हुआ
है। हेडली का प्रकरण भी हमें नोट करने की जरूरत है। ऐसे में दोस्ती का क्या
मतलब रह जाता है। भारत सरकार को खरी-खरी बात करनी होगी। अमेरिका से कहना
होगा कि एंडरसन भारतीय न्यायपालिका से फरार घोषित है। इसलिए उसकी जगह
भारतीय जेल है।
सीबीआई एंडरसन पर तभी सक्रियता दिखा सकती है, जब भारत सरकार ऐसी इच्छा
रखेगी। क्या भारत सरकार एंडरसन को भारत लाने के लिए कूटनीतिक पहल फिर से
करेगी? शायद नहीं। ऐसी स्थिति में गैस पीड़ितों के संघर्ष की राह और चौड़ी
होगी।
काश! पहले चेत जाती कंपनी
-तीन दिसंबर की सुबह भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के कारखाने के पास की
झुग्गी झोपड़ियों के पास से पुलिस की गाड़ी निकली। गाड़ी पर लगे माइक से आवाज
आ रही थी- घबराइए नहीं, अबस्थिति नियंत्रण में है। सब ठीक है, लेकिन कुछ
भी ठीक नहीं था। जिस समय यह घोषणा की जा रही थी, उस समय हजारों लोग अपने
निकट संबंधियों के मारे जाने से सकते में थे। मौतें अभी और भी होनी थी।
-भोपाल गैस काड के लिए जिम्मेदार जहरीली वायु है मिथाइल आइसो साइनाइड।
इस गैस के अलावा फ्रोजिन नामक गैस के रिसाव से भी इस कारखाने के
कर्मचारियों के स्वास्थ्य पर विपरित प्रभाव पड़ता रहता था।
-दुर्घटना से तीन वर्ष पहले तीन दिसंबर 1981 फ्रोजिन गैस के लीक होने
से एक कर्मचारी मौत हई थी, लेकिन इसके बावजूद सुरक्षा उपायों की समीक्षा
में लापरवाही बरती गई।
-जहरीली मिथाइल आइसो साइनाइड गैस को जमीन में आधी अंदर आधी बाहर ऐसी
तीन टंकियों [610,611 और 619] में भरकर रखा जाता था। सुरक्षा मानक के हिसाब
से हर टंकी को आधा ही भरा जाना चाहिए था।
-कंपनी ने सुरक्षा मानकों की परवाह नहीं की थी। कंट्रोल रूम मात्र एक
व्यक्ति के भरोसे चल रहा था।
-एमआईसी गैस का रीसाव होने की स्थिति में चेतावनी देने वाला अलार्म चार
वर्ष से बंद पड़ा था।
-विभिन्न यंत्रों को छह महीने के बदले एक वर्ष में बदला जा रहा था।
-रिसाव के समय लीक हो रही गैस को जला देने के लिए उपयुक्त फ्लेर टावर
पांच महीने से बंद पड़ा था। यदि फ्लेर टावर चालू भी होता तो कोई खास फर्क
नहीं पड़ता, क्योंकि उसकी रचना ही खामीयुक्त थी।
-दुर्घटना के समय 610 नंबर की टंकी 42 टन एमआईसी के साथ ठसाठस भरी हुई
थी।
-25 हजार से अधिक लोग जहरीली गैस रिसाव से मारे गए।
-दुर्घटना का असर लंबे काल तक रहा। दुर्घटना के बाद जन्मे 14 प्रतिशत
नवजात शिशु एक माह के बाद मृत्यु को प्राप्त हुए। आज भी यूनियन कार्बाइड के
आसपास की जमीन प्रदूषित है।