नई
दिल्ली [अरविंद जयतिलक]। बेशक देश में महिलाएं सफलता का इतिहास रच रही
हैं। अपने बुलंद हौसले से उन कार्यो को भी अंजाम तक पहुंचा रही हैं, जो
सदियों से उनके लिए असंभव बताया जाता रहा है। बात चाहे देश में सरकार को
नेतृत्व देने का हो अथवा सेवा क्षेत्र में मिसाल कायम करने की, आज वह हर
कहीं पुरुषों से कंधा मिला रही हैं, लेकिन इन सबके बावजूद दुखद स्थिति यह
है कि बुनियादी स्वास्थ्य प्राप्त करने के अपने संवैधानिक अधिकार से वह
लगातार वंचित हो रही हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर विश्वास किया जाए तो आज देश के
सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में महिलाओं और बच्चों की मृत्युदर का औसत
विश्व के सर्वाधिक पिछड़े कहे जाने वाले क्षेत्रों विशेषकर अफ्रीका और
लैटिन अमेरिकी देशों के समान है।
आकड़े यह भी बता रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में जच्चा-बच्चा की मृत्युदर
राष्ट्रीय औसत से दोगुनी है। एक आकड़े के अनुसार देश में प्रतिवर्ष लगभग
ढाई करोड़ बच्चे जन्म के कुछ माह के अंदर ही मौत की गोद में समा जाते हैं।
चौंकाने वाली बात तो यह है कि इनमें लगभग 40 लाख से अधिक बच्चे केवल उत्तर
प्रदेश से हैं। कुछ इसी प्रकार के आकड़े महिलाओं की मृत्यु दर से भी जुड़े
हुए हैं यानी प्रदेश में प्रत्येक साल लगभग 40 हजार महिलाएं प्रसव के
दौरान ही दम तोड़ देती हैं।
स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश
में पैदा होने वाले प्रति हजार बच्चों में 58 की मृत्यु कुछ माह के अंदर
ही हो जाती है। वहीं उत्तर प्रदेश में मरने वाले बच्चों की प्रति हजार दर
100 के आसपास है। आज से लगभग दो दशक पहले 1990 में विश्व स्वास्थ्य संगठन
द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतरी के लिए यूपी सरकार के साथ मिलकर एक
ठोस कार्ययोजना तैयार की थी, जिसका मकसद यह था कि स्वास्थ्य सेवाओं में
सुधार लाकर जच्चे-बच्चे की मृत्यु दर को कम किया जाए। इसके लिए विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने आगे बढ़कर यूपी सरकार को भारी-भरकम अनुदान भी दिया था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन उत्तर प्रदेश में 2015 तक शिशु मृत्युदर को कम
करके 33 पर लाना चाहता है, लेकिन चिंता वाली बात यह रही कि 19 साल बाद जब
2008-09 में इस कार्ययोजना की समीक्षा की गई तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के
होश उड़ गए। स्वास्थ्य प्रगति का हाल इतना बुरा रहा कि 33 तक के आकड़े को
छूने के लिए अभी ढाई दशक का इंतजार और करना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश के उन
क्षेत्रों में जच्चे-बच्चे के जीवन पर ज्यादा परेशानी देखी गई, जहा
साक्षरता का प्रतिशत और जागरूकता की बेहद कमी रही।
बुंदेलखंड को ही लिया जाए तो वहा साक्षरता की कमी के कारण बेकारी,
भुखमरी और भ्रष्टाचार चरम पर है। वहा स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आवंटित
अनुदानों को जमकर लूटा जा रहा है। अस्पताल जर्जर और डाक्टर नदारद हैं। दवा
की उपलब्धता तो दूर की कौड़ी है। भला इन परिस्थितियों में होने वाली मौतों
को कैसे रोकाजा सकता है? इन पिछड़े क्षेत्रो में स्वयंसेवी संस्थाएं भी
काम करने से कतरा रही हैं।
अगर स्वयंसेवी संस्थाएं सरकार के साथ हाथ मिलाकर सहयोग करें तो
जागरूकता बढ़ सकती है। आज भी देखा जा रहा है कि गावों में जागरूकता की कमी
के कारण ही प्रसव प्रक्रिया को परंपरागत ढंग से अंजाम दिया जा रहा है।
लिहाजा, जान का खतरा बढ़ जाता है। आज दवा और उचित इलाज के अभाव में 20
वर्ष से कम उम्र की 50 प्रतिशत महिलाएं प्रसव के समय ही दम तोड़ रही हैं।
दूर-दराज क्षेत्रों में स्थापित अस्पतालों और उसमें भी चिकित्सकीय उपकरणों
की कमी तथा डाक्टरों की हीला-हवाली जैसे कई कारण हैं, जो 10 से 15 प्रतिशत
मरीजों को मौत के मुंह में पहुंचाने में भूमिका निभा रहे हैं।
साक्षरता और जागरूकता की कमी का ही नतीजा है कि सर्वाधिक साक्षर राच्य
केरल की तुलना में उत्तर प्रदेश में महिलाओं की मृत्युदर आठ से 10 गुना
अधिक है। उत्तर प्रदेश की तरह अन्य राच्य भी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं
के अभाव से जूझ रहें हैं।
बाल अधिकार संगठन ‘सेव द चिल्ड्रेन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार मा बनने
के लिए सर्वोत्तम देशों की सूची में शामिल 77 देशों में भारत का स्थान
73वा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों की कमी
के चलते खासकर अर्द्धशहरी और गावों में स्वास्थ्य प्रणाली की हालत बहुत
कमजोर हो गई है। भारत में 74 हजार मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य
कार्यकर्ताओं और लगभग 21,066 सहायक नर्सो की कमी है। मैदानी इलाकों में
1000 की आबादी पर एक आशा कार्यकत्री और 5000 की आबादी पर एक एएनएम होना
चाहिए। ग्रामीण इलाको में तो 3000 की आबादी पर एक एएनएम होना चाहिए, लेकिन
ग्रामीण क्षेत्र इन सुविधाओं से वंचित है। यही कारण है कि देश में तकरीबन
हर दिन 5000 बच्चे या कहें 20 सेकेंड में एक बच्चे की मौत हो रही है, जो
आकड़े के लिहाज से विश्व में सर्वाधिक और शर्मनाक है।
जन्म के बाद बच्चों को बीमारियों से बचाने के लिए खसरा, टिटनेस और
बीसीजी सहित कुल पाच टीके लगाए जाते हैं, लेकिन अभी तक देश में इन टीकों
का सौ प्रतिशत लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका है। बानगी के तौर पर यूपी में
तो महज 32 फीसदी बच्चों का ही टीकाकरण हो पाता है। यूनिसेफ के दिसंबर 2009
की रिपोर्ट के अनुसार यूपी के 26 जिलों में टीकाकरण की दर मात्र 20 फीसदी
ही रही। 39 जिलों में 20 से 40 फीसदी के बीच और मात्र पाच जिलों में 40
फीसदी से ऊपर टीकाकरण हुआ है।
देश के कई राज्य टीकाकरण के मामले में बेहतर स्थिति में हैं। मसलन,
तमिलनाडु में यह आकड़ा 92 फीसदी है तो कर्नाटक में 84 फीसदी। हालाकि यूपी
सरकार बच्चों के टीकाकरण का सौ प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रदेश
की 823 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में संविदा पर डाक्टर तैनात करने की
योजना बना रही है। संभव है कि इस योजना के क्रियांवयन से स्थिति में कुछ
सुधार आए, लेकिन आमूल-चूल परिवर्तन तो तभी होगा, जबराष्ट्रीयस्तर पर
जच्चा-बच्चा को बचाने की क्रातिकारी पहल की जाएगी।
स्वस्थ भारत का निर्माण तभी पूरा होगा, जब सरकार की स्वास्थ्य नीति का
फायदा आम आदमी तक पहुंचेगा। आज भी देश के 56 फीसदी बच्चों का जन्म
झुग्गी-झोपड़ियों में ही हो रहा है, जहा सरकार की स्वास्थ्य संबंधी
बुनियादी जरूरतें अभी पहुंचनी बाकी है। इसके अलावा देश में करीब दो तिहाई
गरीबों के पास शौचालय तक नहीं है। आज भी देश में 40 फीसदी लोग ऐसे हैं
जिनके पास पीने के लिए पानी तक उपलब्ध नहीं है। ऐसे में स्वस्थ भारत के
निर्माण की बुनियाद कैसे रखी जा सकती है? इसके लिए सरकार और स्वयंसेवी
संस्थाओं को मिलकर भगीरथ प्रयत्न करना होगा।