नई
दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। सुप्रीमकोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा है कि
हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से 1967 के बाद वैद्य विशारद व आयुर्वेद
रत्न की डिग्री लेने वाले वैद्यों की डिग्री कानूनी नहीं है और इन लोगों
को मरीजों का इलाज करने का अधिकार नहीं है। सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले से
पिछले 43 वर्षों में हिन्दी साहित्य सम्मेलन से डिग्री लेकर मरीजों का
इलाज कर रहे हजारों वैद्यों का बोरिया बिस्तर बंध जाएगा।
न्यायमूर्ति बीएस चौहान व न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने देश
के विभिन्न उच्च न्यायालयों के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं का
निपटारा करते हुए यह फैसला सुनाया है। राजस्थान, पंजाब-हरियाणा और दिल्ली
हाईकोर्ट ने भी यही कहा था। उन फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी
थी।
कोर्ट ने कहा है कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन न तो विश्वविद्यालय है, न
सम विश्वविद्यालय और न ही शैक्षणिक बोर्ड है। यह सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट
के तहत पंजीकृत एक संस्था है। यह आयुर्वेद या चिकित्सा क्षेत्र सहित किसी
भी विषय में शिक्षा देने वाली शिक्षण संस्था नहीं है। न तो कोई स्कूल,
कालेज या शैक्षिक संस्था इससे संबद्ध है और न ही यह खुद किसी
विश्वविद्यालय या बोर्ड से संबद्ध है। कोर्ट ने कहा कि 1967 के बाद हिन्दी
साहित्य सम्मेलन ने किसी अधिकृत विधायी संस्था से मान्यता नहीं ली और न ही
संस्था ने कानून के तहत मान्यता लेने के लिए आवेदन दिया या प्रयास ही
किया।
सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कामकाज पर कहा कि वह इस
बात की कोई जांच पड़ताल नहीं करता कि परीक्षा देने वाले अभ्यर्थी ने किसी
मान्यता प्राप्त कालेज से आयुर्वेद की बेसिक शिक्षा प्राप्त की है कि
नहीं। यह संस्था सिर्फ परीक्षा कराती है। कोर्ट ने कहा कि अधिनियम 1970 के
बाद से दूसरी, तीसरी और चौथी अनुसूची में दी गयी योग्यता नहीं रखने वाले
व्यक्ति को मेडिकल प्रैक्टिस यानी इलाज करने का अधिकार नहीं है। सिर्फ
राज्य अधिनियम के तहत स्टेट रजिस्टर में नाम शामिल हो जाने भर से व्यक्ति
इलाज करने के योग्य नहीं हो जाता।
वैद्यों की रोजगार के अधिकार की दलील काटते हुए कोर्ट ने कहा कि
संविधान के अनुच्छेद 19 [1][जी] में प्राप्त रोजगार का अधिकार पूर्ण
अधिकार नहीं है। इस पर जरूरी नियंत्रण लगाया जा सकता है। जरूरी योग्यता के
अभाव में मेडिकल प्रैक्टिस पर रोक लगाने से समानता के मौलिक अधिकार का
उल्लंघन नहीं होता है। कोर्ट ने कहा कि अदालत का कर्तव्य है कि वह वैद्यों
को प्राप्त रोजगार के अधिकार और निरीह लोगों को प्राप्त जीवन के अधिकार,
जिसमें स्वास्थ्य सुरक्षा उपाय शामिल हैं, के बीच संतुलन कायम करे और आम
जनता को गलत इलाज से बचाए। कोर्ट ने कहा कि एक अयोग्य और गैर कानूनी
मेडिकल प्रैक्टिशनर्स को अवैध डिग्री व प्रमाणपत्र के आधार पर गरीब
देशवासियों का शोषण करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।