मणिपुर में मीडिया पर किसका दबाव

कोहिमा
[एशिया डिफेंस न्यूज़ इंटरनेशनल]। मणिपुर में एक उम्मीद सी सुबह, अचानक
मुझे पत्रकारों के परिचित भय ने घेर लिया। क्या मैं इतनी दूर [माओ गेट से
इंफाल तक के नाम भर के राजमार्ग-39 पर यात्रा करके], एक कहानी की [दबाव
झेलते उग्रवादी] तलाश में आया हूं? एक स्थानीय समाचारपत्र में ‘आरपीएफ
द्वारा पुलिस/सेना के दोहरेपन की भ‌र्त्सना’ शीर्षक से छपी एक खबर ने सारी
बात कह डाली है।

लगता है कि मणिपुर में प्रकाशन गृहों को उसी ‘हुक्मनामे’ के कारण किसी
छिपी धमकी का सामना करना पड़ रहा है। हम सभी जानते है कि राज्य का माहौल
अनुकूल नहीं है और मीडिया का काम उतना आसान कभी नहीं रहा है। एक ओर तो
उसने, विभिन्न विद्रोही सगठनों की ओर से जनादेश के अधिकार से हाथ खींचने
के लिए खुलेआम या छिपे तौर पर डराए-धमकाए जाने के रूप में कानून-व्यवस्था
के तत्काल परिणामों से समझौता कर लिया है, तो दूसरी ओर, इन बाधाओं के
बावजूद अभी भी सावधानी बरतने की जरूरत है, ताकि विद्रोह को बढ़ावा देने
वाली समाज की सोच और गतिशीलता को बारीकी से समझने मे चूक न हो जाए।

एक और भी खतरा है। अगर सरकार को लगे कि अपना काम करने और उसमें
सूक्ष्म संतुलन बनाए रखने में मीडिया कानून की हदों को पार कर रहा है, तो
वह मीडिया के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है। इसलिए विद्रोहग्रस्त इलाकों में
काम करने वाले पत्रकारों के लिए तलवार की धार पर चलने जैसा होता है। मैंने
हालात को पहले के संदर्भ में देखने और पिछले तीन महीनों में उग्रवाद से
जुड़े हताहतों की संख्या, उग्रवादी समूहों के नुकसान, राज्य के लोगों
द्वारा सहे गए कष्टों और सुरक्षा बलों दांव के संदर्भ में उग्रवाद के
उभरते रुझानों को समझने की कोशिश की है।

हर नागरिक, यहां तक कि स्वयं सेना भी राज्य और समाज के सैन्यकरण को
लेकर चिंतित है। मेरे एक दोस्त का कहना कि राज्य में 44 उग्रवादी गुटों का
सफाया करने या उन्हें बातचीत के लिए राजी करने के लिए 50,000 से अधिक
सैनिक तैनात है [पुलिस और कमांडो अलग है]।

मणिपुर में एक लाख की आबादी के पीछे 627 सिपाहियों का अनुपात है, असम
के 176 और देश के 125 के अनुपात से आश्चर्यजनक रूप से अधिक है। इसके
बावजूद राज्य, मौजूदा पुलिस बल के अलावा और सिपाहियों की भरती करने और
1600 और पुलिस कमांडों लाने की योजना बना रहा है, लेकिन पुलिस बल बढ़ाने
और 2009 में ंिहंसा में कमी के बावजूद, मणिपुर में उग्रवादियों से लगातार
निपटने की राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है।

सेना, असम राइफल्स और पुलिस कमांडों के दबाव के चलते, आबादी वाले
इलाकों में सक्रिय गुट भागते फिर रहे है। पहले, कमांडों को जिला
मुख्यालयों में तैनात किया गया था, लेकिन अब हर थाने के साथ एक छोटी
टुकड़ी लगा दी गई है। दूसरे सैनिक और अ‌र्द्ध-सैनिक बलों के साथ मिलकर ये
उग्रवादियों को आबादी वाले इलाकों से दूर खदेड़ने की कोशिश कर रहे है।
पिछले तीन महीनों में पीएलए के दो शीर्षनेता मारे गए, आरपीएफ का वित्त
सचिव पकड़ा गया, शिलांग से केवाईकेएल का स्वयंभू कमांडर-इन-चीफ गिरफ्तार
किया गया।

हाल की इन सफलताओं से इन संगठनों को जबरदस्त आघात पहुंचा है। प्राप्त
सूचना के अनुसार, इस साल 2010 में यूएनएलएफ, पीएलए और केवाईकेएल के
सैंकड़ों कार्यकर्ता, अपने कैंप छोड़कर चले गए है। कारण शायद उनके
परिवारों को भूमिगत सगठनों द्वारा दी जाने वाली सहायता राशि का भुगतान
नहीं किया गया है।

रोजमर्रा की जरूरतों के लिए आबादी वाले इलाकों में जाने पर लगाए गए
प्रतिबंधों की वजह से हो रही दिक्कतें भी कारण हो सकती है। हाल ही में,
मीडिया में ‘म्यांमार में विद्रोहियों के खिलाफ समानांतर कार्रवाई’ की
खबरों से भी इन्हें भागने पर मजबूर होना पड़ सकता है। दबाव किस पर है, बहस
का मुद्दा हो सकता है, लेकिन आम आदमी जरूर परेशान है। जरूरत शांति, विकास
और सुप्रशासन की है।

राज्य के लोग जानना चाहते है कि यह सब कब खत्म होगा? कब आम आदमी,
निश्चिंत होकर अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा और अच्छा भविष्य दे पाएगा? कब
ये राजनीतिज्ञ, राज्य की प्रतिष्ठा और विकास के लिए नैतिक जिम्मेदारी
उठाएंगे? कब सुप्रशासन आएगा? कब इस निरर्थक खून-खराबे का अंत होगा? कब
मणिपुर मे मीडिया निर्भय होकर काम कर सकेगा? कब ये हिंसक उग्रवादी गुट
हुक्मनामा और मांग-पत्र जारी करना और अत्यंत निर्धन गैर-मणिपुरियों को
मारना बंद करेंगे?

लगता है कि अब किसी की इन सवालों के जवाबों में दिलचस्पी नहीं है।
मणिपुर, गहरे संकट में घिरा है। प्रशासन धीरे-धीरे अपना महत्व खोता जा रहा
है, न कानून है और न ही व्यवस्था। जो चाहे, राज्य को बंधक बना लेता है।
राजमार्ग, दिन में भी सुरक्षित नहीं है। पिछले तीन महीनों में स्थिति में
सुधार हुआ है, लेकिन इतना नहीं कि आप सोचने लगें कि राज्य में फिर शांति
बहाल हो गई है। हाल ही में देश और उत्तरपूर्व के सभी मीडियाकर्मियों का
दिल्ली में एक सेमिनार हुआ। नामी पत्रकार वहां मौजूद थे। मेरे लिए सबसे
महत्वूपर्ण सवाल यह था कि उत्तरपूर्वी राज्य मीडिया के नक्शे से बाहर
क्यों है? काफी आत्ममंथन के बाद जवाब मिला कि इस क्षेत्र में कोई बड़ा
व्यापार घराना या बड़ी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय कंपनी नहीं है, जो
किसी बड़े प्रिंट और इलेक्ट्रानिक घराने को प्रायोजित कर सके या उसके
परिचालन का खर्च वहन कर सके।

बाद में क्षेत्र के समाचारपत्रों में कहा गया कि देश की चार प्रतिशत
आबादी और सात प्रतिशत भू-भाग इस क्षेत्र में है, लेकिन कवरेज अपेक्षा से
कहीं कम है। कहने का अर्थ यह है कि जहां हिंसा हो, शासन नाम की चीज़ न हो,
विकास न हो, हुक्मनामे जारी होते रहते हों, अपहरण और बेमतलब हत्याएं होती
रहती हों, वहां कौन कंपनी अपना कारोबार लगाएगी। चूंकि किसी उत्पादन गृह या
कंपनी यहां कारोबार करने में दिलचस्पी नहीं है, इसलिए यहां के नौजवानों के
लिए रोजगार के अवसर ही नहीं है, जिसके चलते हमारी युवा पीढ़ी को या जो लोग
पढ़-लिख नहीं सके है, वे रोजगार की तलाश में जंगलों की ओर निकले है और
उग्रवादी संगठनों में शामिलहोगए है।

आम आदमी, नौजवानों और मणिपुर समाज के अन्य वर्गो के साथ लगातार
सम्पर्क में रहकर, इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि उग्रवादी गुटों पर
तो दबाव, अस्थायी है, लेकिन राज्य के लोग तो लगातार खुद अपने लिए और आने
वाली पीड़ी के लिए असुरक्षा और अनिश्चय के ‘दबाव की इस भावना’ के साथ जी
रहे है।

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