..मुट्ठीभर दाने को, भूख मिटाने को

गया
[प्रभंजय कुमार]। पेट-पीठ दोनों मिलकर एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठीभर
दाने को, भूख मिटाने को..महाकवि निराला की यह पंक्तियां गया जिले के
ईट-भट्ठों पर काम करने वाले मजदूरों के बीच आज भी चरितार्थ हो रहीं हैं।
कंपकंपाती सर्दी हो या तपती दुपहरिया, मेहनतकश मजदूरों को हर वक्त दो जून
की रोटी की ही चिंता सताती रहती है। ईटों की पथाई करते-करते इनके जिस्म
फौलाद की तरह भले ही कठोर हो चुके हों, लेकिन अभावों में जीवनयापन के नाते
इनके पेट और पीठ में कोई खास फर्क नहीं रह गया है।

कमाई के सारे पैसे खर्च करने के बावजूद बमुश्किल इनका परिवार चल पाता
है। फिर भी ऐसे माकूल ठिकाने उन्हें तसल्ली देते है। पेट की खातिर झारखंड
के चुंबा और बीर से जगन गूंजा, बंसत उराव, योगेन्द गूंजा, हरि उराव, सूरज
उराव बेलागंज में ईट भट्ठों पर काम करने के लिए परिवार समेत पिछले तीन
सालों से आ रहे हैं। अमीरों की शानदार इमारतें, ऊंची-ऊंची कोठियां इन
मेहनतकश मजदूरों के श्रम का ही परिणाम है।

दूसरों के आशियाने के लिए ईटें बनाने वाले ये मजदूर खुद अस्थाई
झोपड़ियां बनाकर रहते हैं। ये झोपड़ियां कब इन्हें अपने ही हाथों उजाड़नी पड़
जाए, कुछ पता नहीं रहता। मजदूरों ने बताया कि ठेकेदार उनसे अलग-अलग दरों
पर ईटों की पथाई कराते हैं। जबकि भट्ठा मालिकों से वे उनके ही काम के अधिक
पैसे लेते हैं।

मजदूर यह जानते हुए भी अपने परिवार और पेट की खातिर सब कुछ बर्दाश्त
करते हैं। उन्हें उसी में गुजारा करने को मजबूर होना पड़ता है। भट्ठे पर
काम करने वाली उर्मिला ने कहा कि हमको न आरक्षण की जरूरत है और न ही
पुरुषों की दया की। लल्लू, भूपाल से जब पूछा गया कि वे अपने बच्चों से यह
काम क्यों कराते हैं, उन्हें पढ़ने क्यों नहीं भेजते। जवाब था कि हम तो
पढ़-लिखकर भी यही काम करते हैं। हां यह जरूर है कि सरकार की तमाम लाभकारी
योजनाओं का लाभ उनको नहीं मिल पा रहा। रोजगार गारंटी योजना सिर्फ कागजों
में सिमट कर रह गई है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *