रुड़की। दिसंबर खत्म होने को है। हल चलाकर किसान धरती के सीने में
सुनहरे भविष्य की आशाएं संजोए गेहूं और दूसरी फसलों के बीज बो चुके हैं।
धरा के गर्भ में पड़ा नन्हा बीज अंकुरित होकर जन्म लेने को आतुर है, लेकिन
इंद्रदेव का दिल पसीजने को तैयार नहीं है। कातर निगाहें लगातार आसमान की
ओर टकटकी लगाए हुए हैं, रह-रहकर आकाश पर बादल तो छाते हैं, लेकिन शाम
ढलते-ढलते ये भी अनंत गंतव्य का रुख कर लेते हैं। आंखें नम हुई जा रही
हैं, लेकिन फलक जमीन की प्यास बुझाने को तैयार नहीं है। खरीफ के बाद रबी
में भी मौसम का दगा देना किसानों की नियति बनता जा रहा है। आईआईटी रुड़की
की ओर से जारी एक शोध रिपोर्ट आने वाले बरसों की भयावह स्थिति को बयां
करती है।
ग्लोबल वार्मिग के चलते पर्यावरणीय असंतुलन, वर्षा और फसल चक्र का
परिवर्तन दुनिया भर को परेशान किए हुए है। आईआईटी रुड़की का एक शोध भविष्य
के गर्त में छुपे जलसंकट की ओर इशारा करता है। दरअसल, संस्थान ने गत तीस
वर्ष की बरसात संबंधी रिपोर्ट तैयार की है। इसमें साफ हुआ है कि दिसंबर
माह में होने वाली बारिश में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। यह बात
इसलिए परेशानी का सबब बन रही है कि यही महीना रबी की फसलें बोने के लिए
सबसे उपयुक्त माना जाता है। शोध रिपोर्ट पर नजर डालें, तो भयावह स्थिति
सामने आती है। इसके मुताबिक वर्ष 1990 में दिसंबर में सबसे ज्यादा 40 मिमी
बारिश दर्ज की गई थी और सबसे कम बारिश वर्ष 2004 में महज एक मिमी हुई,
जबकि वर्ष 1979 में दिसंबर पूरी तरह सूखा रहा। रिपोर्ट के मुताबिक गत तीस
वर्ष में दो से चार दिसंबर और 16 व 17 दिसंबर को कभी पानी नहीं बरसा।
ठीकठाक बारिश की बात करें, तो वर्ष 1982, 83, 84, 86, 89 व 97 में 20 से
37 मिमी बारिश हुई। कम बारिश वाले वर्षो में 1980, 81, 85, 87, 95 में
बारिश आठ से 15 मिमी रही। वर्ष 2000 के बाद तो बारिश और घट गई और अब तक
गुजरे नौ साल में बारिश एक से पांच मिमी तक ही हुई है, जिसमें वर्ष 2008
तो सूखा ही गुजरा।
इस बाबत, आईआईटी के मौसम वैज्ञानिक डा. डीके त्रिपाठी कहते हैं कि शोध
रिपोर्ट भविष्य के खतरे के प्रति आगाह करती है। उन्होंने बताया कि वर्ष
2009 की रिपोर्ट तैयार की जा रही है। उन्होंने कहा कि पर्यावरण संरक्षण की
दिशा में अब भी प्रयास नहीं किए गए, तो देश ही नहीं दुनिया के अधिकतर
हिस्सों को सूखा व भुखमरी की मार झेलनी पड़ेगी।