एक नदी कुछ कहती है, रोते-रोते बहती है

वाराणसी [स्टाफ रिपोर्टर]। मैं वरुणा हूं। संगम नगरी के मैलहन झील से निकलकर काशी में गंगा में समाहित हो जाती हूं। इस लंबे सफर में अनगिनत घात-प्रतिघात सहन कर रही हूं। मैं अपना सर्वस्व मानव जाति के लिए अर्पित कर रही हूं। उसके बाद भी मेरे अस्तित्व को समाप्त करने की कोशिश हो रही।

मुझे नहीं पता मेरा क्या अपराध है? मैंने तो अपने पानी के दोहन के लिए न तो किसी सरकार की तरह टैक्स लिया और न ही कोई व्यापार ही कर रही हूं। फिर भी मेरे प्रति ऐसी नाराजगी क्यों? एक लंबे समय से संगम [इलाहाबाद] से काशी तक के बीच बसने वाली एक बड़ी आबादी मेरे सहारे खेती-बारी कर रही। कई पीढि़यों का रिश्ता रहा। मैंने कभी अपने जल के इस्तेमाल को नहीं रोका। गंगा के कोप को भी अपने ऊपर लेकर आपको बचाया। भूजल के स्तर को भी सुधारा। मैंने बदले में कभी कुछ नहीं मांगा। मैं जिस क्षेत्र में गंगा के बढ़े जल को एकत्र कर संकट टालती थी, उसमें भी आप लोगों ने बसेरा बना डाला।

अब जब पानी बढ़ेगा तो आपके आशियाने में भरेगा उसकी तकलीफ मुझे होगी। मैं लाचार स्थिति में रहूंगी। क्योंकि मेरे पास जगह नहीं होगी पानी को समेटने की। अपलक नेपथ्य को निहार रही हूं कि किसी भगीरथ का कदम आगे बढ़े जो मुझे सहेजकर नवजीवन प्रदान करें। जब कुछ प्रभावशाली लोगों ने मेरे नाम पर महोत्सव प्रारंभ किया तो लगा शायद मेरे शरीर पर बन रहे घावों को भरने का प्रयास होगा, लेकिन मेरी उम्मीदों पर पानी फिर गया। सिर्फ झूठी दिलासा मिली। मेरे नाम पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश हुई। मुझे नहीं पता कौन व्यवस्था का पालक है और किसकी जिम्मेदारी बनती है।

मेरी याचना सभी से है कि एक नदी खत्म हो गई तो दूसरी नहीं ला पाओगे। मेरी सहोदर असी खत्म हो गई तो क्या उसे पुन: जिंदा कर पाएंगे। मैं किसी स्वार्थ के वशीभूत नहीं हूं। आने वाली पीढ़ी की चिंता है। जब मैं नहीं रहूंगी तो क्या हालात होंगे उसकी कल्पना तो जानकार ही कर सकेंगे। हे ! व्यवस्था के कर्ता-धर्ता थोड़ी रहम करो मुझे बख्श दो ताकि वर्तमान और भविष्य दोनों को संवार सकूं।

 

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