दो जून भर पेट भोजन ना जुटा पाने वालों की तादाद दुनिया में इस साल एक अरब २० लाख तक पहुंच गई है और ऐसा हुआ है विश्वव्यापी आर्थिक मंदी और वित्तीय संकट(२००७-०८) के साथ-साथ साल २००७-०८ में व्यापे आहार और ईंधन के विश्वव्यापी संकट के मिले जुले प्रभावों के कारण। यह खुलासा किया है संयुक्त राष्ट्र संघ की इकाई फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन की हालिया रिपोर्ट ने । द स्टेट ऑव फूड इस्क्योरिटी इन द वर्ल्ड रिपोर्ट २००९- इकॉनॉमिक क्राइसिस-इम्पैक्ट एंड लेसन्स् लर्न्ट नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व में कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या अपेक्षाकृत धीमी गति से बढ़ी है लेकिन आर्थिक मंदी और आहार तथा ईंधन के संकट से ऊपजी स्थितियों में दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या में तेजी से ईजाफा हुआ है।
रिपोर्ट के मुताबिक भारत में साल २०००-०२ में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या कुल जनसंख्या में २१ फीसदी थी जो साल २००४-०६ में बढ़कर २२ फीसदी हो गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि साल २०००-०२ में भारत में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या २२ करोड़ ३० लाख थी जो साल २००४-०५ में बढ़कर २५ करोड़ १० लाख ५० हजार तक पहुंच गई।( देखे नीचे दिया गया ग्राफ) ध्यान रहे कि सहस्राब्दि लक्ष्यों के अनुसार विश्व में भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या को साल २०१५ तक आधा करने का लक्ष्य तय किया गया था और फूड एंड एग्रीकल्चरल आर्गनाइजेशन के ताजा आंकड़े इस बात का संकेत करते हैं कि इस लक्ष्य को पूरा कर पाना अब पहले से कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती है।
ग्राफ: भारत में आहार की कमी की समस्या से जूझ रहे लोगों की संख्या(मिलियन में)
स्रोत: तालिका १, द स्टेट ऑव फूड इन्स्क्योरिटी इन द वर्ल्ड २००९
ftp://ftp.fao.org/docrep/fao/012/i0876e/i0876e05.pdf
रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि २०१५ तक विश्व में भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या को सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों के अनुसार घटाकर ४२ करोड़ तक करना अब व्यावहारिक रुप से असंभव जान पड़ता है। रिपोर्ट के अनुसार साल १९७० के दशक में विश्वव्यापी खाद्य संकट के मद्देनजर सरकारों नें खेती में निवेश बढ़ाया, नतीजतन साल १९८० और १९९० के दशक में लोगों को पहले की तुलना में आहार सामग्री कहीं ज्यादा परिमाण में मुहैया कराना संभव हुआ। लेकिन साल १९९५-९७ से २००४-०६ के बीच दुनिया के अधिकांश देशों में सरकारों ने खाद्य सामग्री पर से सामाजिक सुरक्षा का कवच हटा लिया, नतीजतन लोगों की एक बड़ी तादाद भोजन की कमी का शिकार हुई।
रिपोर्ट का दावा है कि लातिनी अमेरिका और कैरेबियाई देशों को छोड़कर दुनिया के हर हिस्से में साल १९९५-९७ से २००४-०६ के बीच भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई। दूसरे, खाद्यान्न-संकट और आर्थिक मंदी के दुष्प्रभावों के बीच भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या में कमी कर पाना इन्ही सालों मेंपहले से कहीं और दुष्कर हो गया।
आमतौर पर माना जाता है कि खाद्यान्न की कीमतें अपनी आपूर्ति के परिमाण से तय होती हैं लेकिन रिपोर्ट के अनुसार आने वाले सालों में खाद्यान्न की कीमतों के निर्धारण पर ऊर्जा-बाजार में चल रही तेल की कीमतों का निर्णायक असर पड़ने वाला है क्योंकि आगामी सालों में ऊर्जा की बढ़ती जरुरतों के मद्देनजर खाद्यान्न (मसलन मक्का) की ज्यादा से ज्यादा मात्रा जैव-ईंधन( बायो फ्यूएल) तैयार करने में लगायी जाएगी। साल २००८ में रोजमर्रा के खाद्यान्न की कीमतें इससे पहले के दो सालों के अपेक्षा १७ फीसदी ज्यादा थीं। इससे गरीब उपभोक्ताओं की खरीद की क्षमता पर मारक असर पड़ा। गौरतलब है कि गरीब उपभोक्ता अपनी आमदनी का ४० फीसदी हिस्सा रोजमर्रा के खाद्यान्न पर खर्च करते हैं।
भुखमरी पर केंद्रित एक रिपोर्ट इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट( इफ्री) ने ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई)- द चैलेंज ऑव हंगर नाम से तैयार किया है। रिपोर्ट में खास तौर से वित्तीय संकट और लैंगिक असमानता के कोण से भुखमरी की समस्या पर विचार किया गया है। रिपोर्ट का एक आकलन है कि दक्षिण एशिया भुखमरी के वैश्विक सूचकांक(जीएचआई) के हिसाब से २३ अंकों के साथ सबसे ज्यादा बुरी स्थिति में है।भुखमरी के मामले में अफ्रीका के सबसे गरीब माने जाने वाले देश दक्षिण एशिया की तुलना में कहीं बेहतर (जीएचआई-२२.१) स्थिति में हैं। दक्षिण एशियाई क्षेत्र में साल १९९० के दशक से हालात थोड़े बेहतर हुए हैं। रिपोर्ट के अनुसार उप-सहारीय अफ्रीकी देशों में राजनीतिक अस्थिरता, लचर सरकारी तंत्र, जातीय दंगे-फसाद और एचआईवी एडस् के मरीजों की बढ़ती संख्या के कारण एक तरफ तो शिशु मृत्यु दर ज्यादा है दूसरी तरफ ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जो अपने रोजाना इतना भी आहार हासिल नहीं हो पाता कि वे कैलोरी की मानक मात्रा का उपभोग कर सकें। दक्षिण एशिया में भुखमरी की स्थिति के साथ कुछ और ही कारण नत्थी हैं। इस क्षेत्र में एक बात है महिलाओं की शैक्षिक, सामाजिक और पोषणगत बदहाली। नतीजतन, इस क्षेत्र औसत से कम वजन के बच्चों की संख्या (पांच साल तक उम्र के) भी ज्यादा है ।
रिपोर्ट में भारत को जीएचआई इंडेक्स में २३.९ अंक दिए गए हैं जबकि साल १९९० में भारत का जीएचआई अंक ३१.७ था। जीएचआई अंक में गिरावट के फलस्वरुप भारत रिपोर्ट में टोगो( ६३ वां स्थान) और लाईबेरिया(६६ वां स्थान) के बीच में रखा गया है। रिपोर्ट के अनुसार भारत की स्थिति पोषणगत पैमानों पर बांग्लादेश, पूर्वी तिमूर और यमन के सामान है क्योंकि इन सभी देशों में औसत से कम वजन वाले बच्चों की संख्या (५ साल से कम उम्र वाले) ४० फीसदी से ज्यादा है।
रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पूर्वी एशिया(जीएचआई-८.७), उत्तर अफ्रीका(जीएचआई-५.२), लातिनी अमेरिका और कैरेबियाई देशों (जीएचआई-५.१)ने भुखमरी मिटाने की दिशा में बड़ी सफलता हासिल की है।
इफ्री की रिपोर्ट जीएचआई २००९ और २००८ की तुलना पर आधारित है। रिपोर्ट में एचएचआई का मान निर्धारित करने के लिए चार बातों-आर्थिक भागीदारी, शैक्षिक परिलब्धि, राजनीतिक सशक्तीकरण और सेहत तथाजीवन-धारिता-पर ध्यान दिया गया है। रिपोर्ट के अनुसार जहां साक्षरता की दर कम है वहां भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या भी ज्यादा है और उन्ही जगहों पर महिलाओं में साक्षरता भी कम है। भुखमरी की स्थिति का एक रिश्ता, रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं और पुरुषों की सेहत की दशा में विद्यमान असामनता से भी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण एशिया के देशों में लैगिक असमानता दुनिया के बाकी देशों की तुलना में कहीं ज्यादा है। ग्लोबल जेंडर गैप के पैमाने पर भारत को रिपोर्ट में ७६ वां स्थान दिया गया है यानी श्रीलंका (३रा) और बांग्लादेश (५८वां) से भी नीचे।
रिपोर्ट में कहा गया है कि स्थिति को सुधारने के लिए सरकारों को पोषणगत नीतियों ( मसलन स्कूल में बच्चों को भोजन उपलब्ध करवाना, गर्भवती महिलाओं को पोषाहार प्रदान करना आदि) द्वारा सामाजिक सुरक्षा के दृष्टिकोण से हस्तक्षेप करना चाहिए।
इस विषय पर विस्तृत जानकारी के लिए निम्नलिखित लिंक्स देखें:
http://www.fao.org/docrep/012/i0876e/i0876e00.htm:
http://www.reliefweb.int/rw/lib.nsf/db900SID/EGUA-7WSM9V?OpenDocument#
http://www.ifpri.org/sites/default/files/publications/ghi09.pdf
http://blog.livemint.com/the-development-dossier/2009/10/19/global-hunger-index-hunger-linked-to-gender-india%E2%80%99s-situation-%E2%80%9Calarming%E2%80%9D/#
http://www.ifpri.org/publication/2009-global-hunger-index