न्याय:कितना दूर-कितना पास

 

खास बात 

• साल २००९ के अप्रैल महीने तक सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मुकदमों की संख्या ५०१४८ थी। केसों के निपटारे की गति बढ़ी है मगर शिकायतों के आने की गति और जजों की संख्या केसों के आने की गति की तुलना में अपर्याप्त साबित हो रही है।* 

• दो साल पहले यानी साल २००७ के जनवरी महीने में सुप्रीम कोर्ट में लंबित केसों की संख्या ३९७८० थी। सुप्रीम कोर्ट लंबित केसों के निपटारे में तेजी लाने असहाय महसूस कर रहा है और लंबित मुकदमों की संख्या सालों साल बढ़ रही है।*

• देश के २१ उच्च न्यायालयों में जजों के कुल पद हैं ८८६ मगर सिर्फ ६३५ जजों के बूते ही काम चल रहा है। साल २००९ के १ जनवरी को देश के उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या ३८.७ लाख थी। एक साल पहले यानी १ ली जनवरी २००८ को देश के उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की कुल संख्या थी ३७.४ लाख।*

• भारत का पुलिस बल विश्व के सबसे बड़े पुलिस बल में एक है मगर इसमें महिलाओं की संख्या महज २.२ फीसदी है।**

• भारत में एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग है और फिर राज्यों के भी अपने मानवाधिकार आयोग हैं मगर देश में एक भी ऐसा व्यापक तंत्र नहीं है जो मौजूदा ३५ पुलिस बलों पर अतिचारिता की स्थिति में निगरानी रखे।**

* सुप्रीम कोर्ट ऑव इंडिया।
** कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव(२००५)- पुलिस एकाऊंटेबिलिटी, टू इंपोर्टेंट टू नेगलेट, टू अर्जेंट टू डिले।

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[inside]इंडिया जस्टिस रिपोर्ट– 2022, 4 अप्रैल, 2023 को जारी. पढ़ें रिपोर्ट की मुख्य बातें.[/inside]

 

न्याय पहुंचाने के मामले में कर्नाटक राज्य शीर्ष पर बना हुआ है; और उत्तर प्रदेश सबसे निचले पायदान पर।

न्याय पहुंचाने के मामले में दक्षिण भारत के राज्यों का दबदबा कायम। कृपया रिपोर्ट के लिए यहाँ, यहाँ और यहाँ क्लिक कीजिए।

 

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट– 2022 (आईजेआर), देश के नागरिकों की न्याय तक पहुंच कितनी है? इसी सवाल का जवाब ढूंढती है। इस रिपोर्ट को सेंटर फॉर सोशल जस्टिस, कॉमन कॉज, कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, दक्ष और टाटा ट्रस्ट ने मिलकर तैयार किया है।

 

इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण किया है। रिपोर्ट को बनाने के लिए 102 सूचकांकों का प्रयोग किया गया। इस रिपोर्ट के चार मुख्य स्तंभ हैं— पहला, पुलिस (30 सूचकांक)। दूसरा, कारागार (29 सूचकांक)। तीसरा, न्याय व्यवस्था (28 सूचकांक) और चौथा, कानूनी सहायता (15 सूचकांक)।

 

साथ ही इस रिपोर्ट के लिए राज्यों को दो समूहों में विभाजित किया है– पहले समूह में 18 बड़े राज्यों को शामिल किया है(जिसकी जनसंख्या 10 मिलियन से अधिक है) और दूसरे समूह में छोटे आकार के 7 राज्यों को शामिल किया है(जिसकी जनसंख्या 10 मिलियन से कम है)।

 

समग्र रूप में बड़े राज्यों की श्रेणी से पांच शीर्षस्थ राज्य– 1. कर्नाटक (स्कोर 10 में से– 6.38).

2.तमिल नाडु (6.11)

3.तेलंगाना (6.11)

4.गुजरात (5.60)

5. आंध्र प्रदेश (5.41)

 

छोटे राज्यों के श्रेणी से सिक्किम ने (5.01 स्कोर के साथ) पहला स्थान हासिल किया है। 

 

अलग–अलग स्तंभों के अनुसार महिलाओं की स्थिति—

  • देश के कुल पुलिस बल में महिला पुलिस कर्मियों का अनुपात 11.8 प्रतिशत है। पुलिस अधिकारियों के मामले में यह अनुपात घटकर 8 फीसद रह जाता है।
  • सबसे अधिक महिला पुलिसकर्मियों का अनुपात आंध्र प्रदेश राज्य में (21.8%) है; और महिला पुलिस अधिकारियों का सबसे ज्यादाअनुपात उत्तराखंड राज्य में(18.1%) है।
  • कारागार के कर्मचारियों में महिलाओं का अनुपात— राष्ट्रीय स्तर पर 13.8 फीसदी। कर्नाटक में सबसे अधिक– 32 फीसदी।
  • उच्च न्यायालय में महिला न्यायाधीशों का अनुपात– 13.1 प्रतिशत। सबसे ज्यादा अनुपात तेलंगाना में– 27.3 फीसदी।
  • अधीनस्थ न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों का अनुपात– राष्ट्रीय स्तर पर 35.1 प्रतिशत। तेलंगाना में यह अनुपात 52.8 प्रतिशत रहता है।
  • देश के कुल वकीलों में महिलाओं का अनुपात (राष्ट्रीय स्तर पर)– 40.3 फीसदी। सबसे अधिक केरल राज्य में 42.4 प्रतिशत।

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार त्रिपुरा पुलिस बल में महिलाओं की संख्या 33 प्रतिशत तक पहुंचने के लिए 554 साल लग जाएंगे।

पुदुचेरी में 33 फीसद का आंकड़ा हासिल करने के लिए 318 वर्ष का इंतजार करना पड़ेगा।

 

  • एक मिलियन जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या— 14.6 जज।
  • राष्ट्रीय स्तर पर अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या– 14.0 , उच्च न्यायालय में 0.6।
  • न्यायाधीशों का सबसे अव्वल अनुपात उत्तराखंड राज्य में देखा गया है। उत्तराखंड में 1 मिलियन जनसंख्या पर न्यायधीशों की संख्या 24.1 है।

 

स्तंभों में खाली वेकेंसी—

(जनवरी 2022 के आंकड़ों के अनुसार) पश्चिमी बंगाल में कांस्टेबल के 44.1 फीसद पद खाली पड़े थे; और अधिकारियों के 25.2 प्रतिशत पद रिक्त थे।

उसके बाद बिहार का नंबर आता है। बिहार में कांस्टेबल के 30 प्रतिशत पद खाली पड़े थे; और अधिकारियों के 53.8 फीसद पद धूल फांक रहे हैं।

राजस्थान राज्य के उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के 48 फीसद पद खाली पड़े हैं। हरियाणा राज्य में अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों के 39 प्रतिशत पद रिक्त हैं। बिहार उच्च न्यायालय में कर्मचारियों के 52.8 प्रतिशत पद रिक्तता से ग्रस्त हैं।

उत्तर प्रदेश की 77 % जेलें ऐसी हैं जहाँ तय सीमा से 150 प्रतिशत या उससे अधिक कैदी बंद किए हुए हैं। उत्तर प्रदेश के बाद असम राज्य (74%), उत्तराखंड (73%) और दिल्ली (67%) का नंबर आता है।

 

लंबित मामले—

  • लंबित मामलों के संबंध में अधीनस्थ न्यायालयों का प्रदर्शन उच्च न्यायालयों की तुलना में बेहतर है।
  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 14% मामले ऐसे हैं जो कि पिछले 20 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।इलाहाबाद उच्च न्यायालय के संदर्भ में ये आंकड़ा 12.3 % रहा।
  • इलाहाबाद हाईकोर्ट में 27.8 % मामले पिछले 10 से 20 वर्षों के समय काल से लंबित हैं।
  • केरल उच्च में 36.9 % मामले ऐसे हैं जो कि पिछले 5–10 वर्षों से लंबित हैं।

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निगरानी और निजता के सवालों का जवाब तलाशती कॉमन कॉज की रिपोर्ट [inside]स्टेट्स ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट (SPIR) 2023: निगरानी और निजता का सवाल[/inside], अंग्रेजी के लिए यहाँ क्लिक कीजिए और हिंदी के लिए यहाँ क्लिक कीजिए

 

रिपोर्ट की मुख्य बातें-

“स्टेट्स ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट, (SPIR) 2023: निगरानी और निजता का सवाल” नामक यह रिपोर्ट भारत में डिजिटल निगरानी के बारे में लोगों के विचारों व अनुभवों का अध्ययन करती है। भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की आबादी अच्छी–खासी है। सरकार सहित निजी क्षेत्र में भी डिजिटल माध्यम को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में निजता के मसले पर आमजन का ध्यान आकर्षित करना ज़रूरी हो जाता है।
हाल में हुए कुछ घटनाक्रमों के कारण निजता का मसला सुर्खियाँ बटोर रहा है। ‘पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ मामले’ में दिया गयासर्वोच्चअदालत का निर्णय और केंद्र सरकार की ओर से लाया गया ‘डाटा संरक्षण बिल’ निजता के मसले पर अपनाए गए सकारात्मक नज़रिए को दर्शाता है। वहीं दूसरी ओर सरकार के द्वारा पेगासस के अवैध इस्तेमाल और आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 के तहत पुलिस के द्वारा हिरासत में लिए गए, संदिग्ध लोगों के बायोमेट्रिक विवरण इकट्ठा करने का अधिकार, चिंताजनक स्थिति को दर्शाता है।
कॉमन कॉज़ ने सीएसडीएस के लोकनीति कार्यक्रम के सहयोग से ‘डिजिटल निगरानी’ पर अध्ययन किया है। इस अध्ययन के लिए सर्वेक्षण किया गया; जिसमें 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 9,779 लोगों को शामिल किया है। साथ ही इस रिपोर्ट में, निगरानी के मसले पर काम करने वाले विशेषज्ञों के साथ की गई विषय केंद्रित सामूहिक परिचर्चा, कार्यरत पुलिस अधिकारियों का साक्षात्कार और निगरानी से जुड़ी मीडिया ख़बरों का एक विश्लेषण भी शामिल किया है।

निगरानी के मसले पर जनता का रुख क्या है? 
अध्ययन के नतीजे इस ओर इशारा करते हैं कि जनता, सरकार की ओर से की जाने वाली कुछ विशिष्ट प्रकार की निगरानी का समर्थन करती है। साथ ही यह भी पता चला है कि पुट्टस्वामी केस और पेगासस जैसे गंभीर मुद्दों पर जनता के बीच समुचित जानकारी का अभाव देखा गया। SPIR, 2018 की तरह ही इस बार के अध्ययन में भी पाया कि जनता, हुकूमत की ओर से की जा रही निगरानी और ‘बोलने की आजादी’ पर किए जा रहे पुलिसिया दमन का मोटे तौर पर समर्थन करती है। पर समर्थन का स्तर एक जैसा नहीं था। समर्थन, समाज के सामाजिक–आर्थिक स्तर पर टिका हुआ था। समाज के निचले पायदान की ओर जाने पर समर्थन में कमी देखी गई। वहीं गरीबों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों में पुलिस के प्रति भरोसे की कमी देखी गई।

कुल मिलाकर SPIR 2023, डिजिटल निगरानी के बारे में जनता की नब्ज टटोलने का काम करती है। रिपोर्ट डिजिटल निगरानी के बारे में जनता के अनुभवों को दर्ज करती है; विचारों को समझने की कोशिश करती है। साथ ही, इस रिपोर्ट की कोशिश है कि निगरानी के मुद्दे पर जनता के बीच में जागरूकता का स्तर ऊंचा उठे। और सरकारी या गैर–सरकारी निगरानी के बाबत विश्वास और समर्थन में मौजूद असमानता को संबोधित करना है। 

इस रिपोर्ट के मुख्य नतीजे नीचे दर्ज किए गए हैं–

अधिकारिक आंकड़ों का रुझान 
परमवीर सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी लगाना अनिवार्य कर दिया था। पुलिस और निगरानी एजेंसियों के पास आधिकारिक डेटा की सीमित उपलब्धता है। उसके बावजूद हमने भारत में निगरानी के व्यापक रुझानों को समझने के लिए मौजूदा सरकारी आंकड़ों का उपयोग करते हुए एक विश्लेषण किया है।
●    जितने सीसीटीवी कैमरों तक पुलिस की पहुंच है (इसमें निजी हैसियत से लगाए गए कैमरे, किसी संस्था या सोसाइटी की तरफ से लगाए गए कैमरे शामिल हैं) शहर में उपलब्ध कुल सीसीटीवी कैमरों के मुकाबले कम है। यानी शहर में कैमरे ज्यादा हैं पर पुलिस की उन तक पहुंच नहीं है।
●    वर्ष 2016 से 2020 के बीच हो रही वाहन चोरी, मर्डर और संज्ञेय अपराध की दरों में बढ़ोत्तरी और पुलिस के पास उपलब्ध कैमरों की संख्या केबीच कोई सार्थक सांख्यिकीय सम्बन्ध नहीं है।
●    ऐसे राज्य जहाँ साइबर अपराध की घटनाएं अधिक संख्या में दर्ज होती हैं, उन राज्यों की ढांचागत क्षमता साइबर अपराध के इन मामलों से निपटने के लिए नाकाफ़ी है।
●    देश भर में साइबर अपराध के लिए चार्जशीट और सज़ा की दर, कुल संज्ञेय आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) और एसएलएल (स्पेशल एंड लोकल लॉ) के तहत दर्ज हुए कुल अपराधों की दर के मुकाबले कम है। उदाहरण के लिए, असम में वर्ष 2021 के दौरान साइबर क्राइम के लिए 6096 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया था। लेकिन इनमें से सिर्फ 16 प्रतिशत के खिलाफ चार्जशीट दायर की जा सकी और आरोप सिद्धि की दर केवल 2.2 फीसद रही।

निगरानी और निजता के अधिकार पर विशेषज्ञों का मत
निगरानी का मुद्दा आमजन के विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाता है। चौकसी के ऊपर गिने–चुने विशेषज्ञों की टोली ही बात कर पाती है।जिसके कारण इन मुद्दों पर जनता के बीच जागरूकता की कमी है; निगरानी के मसले पर फैली हुई अज्ञानता को तोड़ने के लिए, आमजन की बातचीत का हिस्सा बनाने के लिए इस रपट ने विशेषज्ञों के बयानों को दर्ज किया है। विशेषज्ञों के बयानों को विषय केंद्रित सामूहिक परिचर्चा और लंबे साक्षात्कारों के माध्यम से दर्ज किया है। 

●    विषय पर केंद्रित परिचर्चा में भाग लेने वाले अधिकतर विशेषज्ञ इस बात से सहमत थे कि निगरानी कई क्षेत्रों यथा– सरकारी, निजी क्षेत्र के उद्यमों और व्यक्ति विशेष के द्वारा निजी हैसियत पर की जा रही है। हुकूमत की ओर से की जा रही लक्षित निगरानी चिंता का सबसे बड़ा कारण है। कुछ प्रतिभागियों का मानना है कि निजी कंपनियों द्वारा की जा रही निगरानी भी विरोध को दबाने, चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने सरीखे कुटिल उद्देश्यों की पूर्ती के लिए किया जाता है। 
●    वहीं परिचर्चा के प्रतिभागियों में जन निगरानी की तकनीकों के बारे में आम राय नहीं थी। कईयों का मानना था कि सार्वजनिक सुरक्षा के नज़रिए से सीसीटीवी का प्रयोग किया जाना उचित है। तो कई इस बाबत सवालिया निशान खड़ा कर रहे थे। हालांकि, एक चिंता पर सबकी राय एक जैसी थी–  निगरानी तकनीकों का उचित ढंग से निरक्षण किया जाए और साथ ही उसका उत्तरदायित्व भी सुनिश्चित किया जाए।
●    विषय पर हुई परिचर्चा में शामिल सभी लोग इस बात पर मुख्यतः सहमत थे कि निगरानी तकनीकों के प्रति जनता का समर्थन निजता के अधिकार और उससे पैदा होने वाले खतरों से बेखबर होने के कारण उपजा था। साथ ही यह महसूस किया गया कि जनता, निगरानी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी मानती है। चर्चा में कुछ प्रतिभागियों ने गरीब व अमीर नागरिकों की अलग-अलग राय को भी रेखांकित किया। गरीब वर्ग निगरानी को ज्यादा पसंद नहीं करता है।
●    विषय पर केंद्रित सामूहिक परिचर्चा में शिरकत करने आए कुछ प्रतिभागियों और कुछ पुलिस अधिकारियों का कहना था कि भारत में उचित ढंग से निगरानी करने के लिए पुलिस विभाग के पास ढांचागत क्षमता की कमी है। और ठीक से निगरानी करने के लिए कानूनी तंत्र का भी अभाव है। (इसी कारण से पुलिस जमीनीस्तर परनिगरानी तकनीकों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल नहीं कर पाती है।) 
●    विषय पर केंद्रित सामूहिक परिचर्चा में भाग लेने वाले मुख्यतः इस बात पर सहमत थे कि निगरानी तकनीकों में आई अशुद्धियां या जानबूझकर की गई गलतियां एल्गोरिदम को बदल सकती हैं। जिसके कारण आपराधिक न्याय प्रणाली अपने मूल उद्देश्य से भटक सकती है।

 

सीसीटीवी के बारे में फैली धारणाएं और उसकी मौजूदगी
डिजिटल रूप से जनसमूह की निगरानी करने के लिए कई तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। सीसीटीवी, उनमें से एक तकनीक है। सीसीटीवी को जन समूह की बड़े पैमाने पर डिजिटल निगरानी के लिए एक अहानिकर साधन के तौर पर देखा जाता है। सीसीटीवी के समर्थक ये दावा करते है कि सीसीटीवी से अपराध की घटनाओं में कमी आती है और जन सुरक्षा सुदृढ़ होती है। पर आंकड़े इस बात की गवाही नहीं देते हैं। बावजूद इसके, सर्वे के दौरान हमने पाया कि एक बड़ा तबका सीसीटीवी के इस्तेमाल को जारी रखने की वकालत कर रहा था। हालांकि, जैसे–जैसे नागरिकों के शिक्षा और सामाजिक–आर्थिक स्तर में गिरावट आ रही थी, सीसीटीवी का समर्थन करने वालों में भी कमी आ रही थी।
●    दो में से एक आदमी (51%) का कहना था कि हमारे घर या कॉलोनी में सीसीटीवी लगा हुआ है। हालांकि, मलिन व गरीब बस्तियों की तुलना में उच्च आय वाले घरों के पास सीसीटीवी लगे होने की संभावना तीन गुना अधिक है। वहीं अगर सरकार की ओर से सीसीटीवी कैमरे लगाने की बात आती है तब वो मलिन या गरीबों की बस्तियों पर मेहरबान हो जाती है; अमीरों की तुलना में यहां सीसीटीवी लगाने की संभावना तीन गुना अधिक रहती है।

 

 

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं। उन्हीं आंकड़ों को शामिल किया है जिसमें उत्तरदाता सीसीटीवी कैमरा होने की हामी भरता है। सर्वे में भाग लेने वाले कुछ हिस्सेदारों ने सवाल style="font-family:Mangal">का जवाब नहीं दिया।

पूछा गया प्रश्न: क्या सीसीटीवी आपके द्वारा लगाये गए या किसी अन्य प्राधिकरण द्वारा?

●    गरीब जनता, सीसीटीवी कैमरों का कम समर्थन करती है; चाहे वो किसी भी स्थान पर हो–घर के अंदर, घर के बाहर या काम करने की जगह पर।
●    चार में से एक आदमी का कहना था कि सीसीटीवी के कारण बड़े पैमाने पर की जाने वाली गैर–कानूनी निगरानी की संभावना बढ़ जाती है। वहीं दूसरी ओर चार में से तीन आदमियों का मानना था कि सीसीटीवी अपराध की घटनाओं पर लगाम कसता है, घटनाओं की निगरानी रखता है।

 
नोट:– सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं।

पूछा गया प्रश्न: कृपया ये बताने का कष्ट करें कि आप इस कथन से सहमत हैं या असहमत– “सार्वजनिक स्थलों पर लगे सीसीटीवी कैमरों के कारण गैर–कानूनी रूप से ‘बड़े पैमाने पर निगरानी’ की संभावना बढ़ जाती है?

●    उच्च शिक्षा प्राप्त किए हुए तबके का मानना था कि सीसीटीवी कैमरे– अपराध में कटौती, अपराधों की जाँच पड़ताल और जन सुरक्षा को मजबूत बनाने में मदद करते हैं। साथ ही इस जमात को सीसीटीवी के माध्यम से गैर–कानूनी रूप से बड़े पैमाने पर निगरानी की संभावना भी कम दिखी।
●    पांच में से दो (40%) व्यक्तियों का मानना था कि सीसीटीवी फुटेज के साथ छेड़छाड़ या हेरफेर की जा सकती है।
●    पैंतालीस फ़ीसदी लोगों का मानना था कि पुलिस चौकियों में लगे सीसीटीवी कैमरों के माध्यम से कैदियों के मानवाधिकारों की सुरक्षा की जा सकती है। लगभग आधे उत्तर दाताओं का मानना था कि पुलिस की ओर से की जाने वाली पूछताछ सीसीटीवी कैमरे में रिकॉर्ड की जाए।

 

 नोट:– सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं। 
पूछा गया प्रश्न: क्या आपको लगता है कि सीसीटीवी कैमरों की मार्फत पुलिस हिरासत में लिए गए व्यक्तियों के साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार, यातना या मानवाधिकारों के उल्लंघन में कमी आ सकती है?  
कितनी कमी– काफी हद तक, थोड़ी बहुत, बहुत कम या बिलकुल नहीं?

सरकार और पुलिस की निगरानी
SPIR 2018 की तरह ही इस बार के अध्ययन में भी पाया कि जनता पुलिस के प्रदर्शन से संतुष्ट है। जनता को निगरानी के लिए इस्तेमाल की जा रही अनेक तकनीकों जैसे ड्रोन, फेशियल रिकॉग्निशन इत्यादि से भी ज्यादा दिक्कत नहीं है; हालांकि, हल्का–सा आलोचनात्मक रुख भी दिखाया है।
●    सर्वे में भाग लेने वाले आधे से अधिक लोगों का मानना था किविचाराधीन बंदियों यासंदिग्ध व्यक्तियों के बायोमेट्रिक डैटा जमा करना सही है। वहीं आदिवासी और मुस्लिम लोग इसका विरोध कर रहे थे।
●    करीब दो में से एक शख्स का मानना था कि सरकार, सैन्य व पुलिस बल की ओर से किए जा रहे ड्रोन का इस्तेमाल सही है। हालांकि, गरीबों और किसानों ने सरकार के द्वारा किए जा रहे ड्रोन के इस्तेमाल का विरोध किया है।
●    दो में से एक आदमी फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक के सरकार व पुलिस के द्वारा किए जा रहे इस्तेमाल का समर्थन कर रहे हैं। इस समर्थन की तुलना निजी क्षेत्र के साथ करें, तो निजी क्षेत्र से चार गुना अधिक समर्थन सरकार व पुलिस की ओर से किए जा रहे इस्तेमाल पर मिल रहा है।
●    तीन में से लगभग दो उत्तरदाताओं का मानना है कि राजनीतिक दल चुनावी सर्वेक्षण के लिए नागरिकों की निगरानी करवाते हैं ।
 


 

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं।

आपको क्या लगता है कि ये चीजें हमारे देश में किस हद तक होती हैं – हमेशा, कभी-कभी, शायद ही कभी या कभी नहीं?
a. राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए निगरानी और जासूसी करने वाली तकनीक का इस्तेमाल करते हैं
b. आम लोगों की चुनावी पसंद को प्रभावित करने के लिए, निजी कंपनियां या NGO उनका डेटा इकठ्ठा करते हैं 
c. इंटरनेट पर झूठी खबरें फैलाने के लिए, निजी कंपनियां, NGO और राजनीतिक दल साथ में मिलकर काम करते हैं 
d. देश की चुनी हुई सरकारें गैर-कानूनी रूप से अपने ही नागरिकों की जासूसी करती हैं            
●    चवालिस प्रतिशत लोगों का मानना है कि पुलिस को बिना वारंट के लोगों के फोन चेक करने की आज़ादी नहीं होनी चाहिए। पांच में से दो लोगों का मानना है कि किसी के भी लैपटॉप या फोन को ट्रैक करने से पहले पुलिस को हमेशा सर्च वारंट हासिल करना चाहिए।

 
नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं। 

पूछा गया प्रश्न:  पुलिस को बिना वारंट के, कभी भी आपके फोन की चेकिंग करने की कितनी आज़ादी होनी चाहिए – पूरी, कुछ मामलों में, कोई आज़ादी नहीं या बिल्कुल भी आज़ादी नहीं होनी चाहिए?

●    निजी कंपनियों द्वारा अवैध निगरानी के खिलाफ कार्रवाई की अपेक्षा जनता को एक ऐसे स्वतंत्र मंच की अधिक आवश्यकता महसूस होती है जो पुलिस जैसी सरकारी एजेंसियों द्वारा की गयी अवैध निगरानी से निपटने का काम करे।
●    केवल सोलह प्रतिशत लोगों का मानना है कि निगरानी तकनीकों जैसे सीसीटीवी, ड्रोन और एफआरटी का उपयोग करने के लिए पुलिस पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित है।
निजता का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
निगरानी के विषय में निपुण और विशेषज्ञों के साथ हुई विषय पर केन्द्रित सामूहिक परिचर्चा से निकले नतीजे जनता द्वारा अभिव्यक्त राय से उल्लेखनीय रूप से भिन्न हैं। सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक बहुत से लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के किसी भी रूप जैसे असहमति, विरोध आदि पर रोक लगाने के लिए सरकार द्वारा की गई निगरानी का समर्थन करते हैं। इसके अलावा, जहाँ एक तरफ लोग ऑनलाइन प्लेटफार्म पर अपनीराय व्यक्त करने को लेकर डर जताते हैं, वहीं दूसरी तरफ अवैध स्पाईवेयर जैसे पेगासस का उपयोग करके ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों प्रकार की सरकार द्वारा अवैध निगरानी की गतिविधियों का समर्थन किया है। हालांकि, ध्यान देने वाली बात यह है कि पेगासस स्कैंडल जैसे मौजूदा निगरानी मुद्दों या पुट्टास्वामी फैसले के बारे में लोगों की जागरूकता का स्तर बहुत ही कम है। आधे से अधिक लोग विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित करने के लिए सीसीटीवी कैमरों के इस्तेमाल को पुरजोर तरीके से सही ठहराते हैं। राजनीतिक आंदोलनों या विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए सीसीटीवी के उपयोग का समर्थन करने वालों में छोटे शहरों और गरीब पृष्ठभूमि के लोगों की संख्या कम है। 
●    पांच में से एक व्यक्ति का मानना है कि सरकार का आम लोगों की सोशल मीडिया पोस्ट पर नजर रखना सही है।  
●    उत्तरदाताओं के बड़े वर्ग को लगता है कि सरकारी निगरानी द्वारा विरोध और राजनीतिक आंदोलनों को दबाने के लिए सीसीटीवी (52%), ड्रोन (30%), FRT (25%), आदि का इस्तेमाल बहुत हद तक उचित है। विरोध प्रदर्शनों के दौरान सरकारी निगरानी का समर्थन पंजाब के लोगों ने सबसे कम किया। जबकि गुजरात के लोगों ने निगरानी का समर्थन सबसे अधिक है।   
●    तीन में से लगभग दो उत्तरदाता कानूनी कार्रवाई के डर से ऑनलाइन पोस्ट में अपनी राजनीतिक या सामाजिक राय देने से डरते हैं।
 

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं।

पूछा गया प्रश्न: आपको इस बात का कितना डर है कि अगर आप किसी राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे पर अपनी राय सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं और यदि यह कुछ समूहों की भावनाओं को ठेस पहुंचाती है, तो आप पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है – बहुत डर, थोड़ा बहुत डर, बहुत कम या बिल्कुल भी डर नहीं?

 
●    तीन में से दो लोगों ने पेगासस स्पाइवेयर मुद्दे के बारे में सुना ही नहीं है। एक चौथाई से अधिक उत्तरदाताओं को लगता है कि पेगासस का उपयोग करने वाले सांसदों/विधायकों और अन्य राजनेताओं की निगरानी पूरी तरह से उचित है।

 

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं।

पूछा गया प्रश्न: क्या आपने पेगासस सॉफ्टवेयर के बारे में सुना है जिसका इस्तेमाल भारत सहित अन्य देशों की सरकारों द्वारा राजनेताओं, पत्रकारों और न्यायाधीशों जैसे कुछ लोगों के फोन टैप करने, कॉल सुनने और मैसेज पढ़ने के लिए किया गया था? 1. हां 2. नहीं 98. याद नहीं

●    सर्वेक्षण में लगभग तीन में से एक उत्तरदाता ने राजनीतिक विरोध को रोकने के लिए सरकार के ड्रोन के इस्तेमाल का पुरजोर समर्थन किया है। 
●    साठ प्रतिशत से अधिक जनता प्रदर्शनकारियों की पहचान करने के लिए एफआरटी के इस्तेमाल का समर्थन करती है, जबकि पांच में से दो का कहना है कि आम नागरिकों की पहचान के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

 


नोट: "बहुत हद तक" और "कुछ हद तक" श्रेणी को 'समर्थन' बनाने के लिए एक कर दिया गया था और 'बहुत कम और बिल्कुल नहीं' को बेहतर अन्तर दिखाने के लिए 'विरुद्ध'बनाने के लिए एकसाथ मिला दिया गया था। सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं। 

पूछा गया प्रश्न: टेबल के बाएं स्तंभ में उल्लिखित परिस्थितियों की सूची में पुलिस या सरकार द्वारा फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी (FRT) का उपयोग किस हद तक उचित है – बहुत हद तक, कुछ हद तक, बहुत कम या बिल्कुल नहीं? 

●    छ: उत्तरदाताओं में से केवल एक (16%) ने निजता के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय (पुट्टास्वामी) के फैसले के बारे में सुना है। फैसले के बारे में सुनने वालों की संख्या में मुख्य रूप से उच्च वर्ग, कॉलेज और उच्च शिक्षा स्तर के लोगों की अधिकता है।
●    दो में से लगभग एक व्यक्ति निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पूरी तरह सहमत है।

निजी संस्थानों द्वारा निगरानी
जनता आम तौर पर सरकार के निगरानी तकनीकों के उपयोग के समर्थन में है। लेकिन व्यक्तिगत डाटा की सुरक्षा और निजी संस्थाओं द्वारा उनके दुरुपयोग को लेकर लोगों के बीच गंभीर चिंता बनी हुई है। यह तब और भी खुले तौर पर साफ़ हो जाती है जब सरकारी दस्तावेजों जैसे आधार या पैन कार्ड की बात आती है। आम लोग इन दस्तावेज़ों के विवरणों को निजी कंपनियों के साथ साझा करने से डरते हैं। सर्वेक्षण इस ओर इशारा करता है कि निजी कंपनियों ने आम लोगों की ऑनलाइन गतिविधियों पर नज़र बनायीं हुई है। लोगों को उनकी प्रोफाइल और अतीत में की गयी उनकी ऑनलाइन गतिविधियों के आधार पर उन्हें विज्ञापन दिखाए जाते हैं।
●    तीन में से लगभग दो उत्तरदाता इस बात को लेकर चिंतित हैं कि निजी संस्थाओं द्वारा एकत्र किए गए उनके डेटा का दुरुपयोग किया जा सकता है।
●    दो में से लगभग एक व्यक्ति इस बात से पूरी तरह सहमत है कि अक्सर उसकी ऑनलाइन सर्च के आधार पर उन्हें ऑनलाइन विज्ञापन दिखाए जाते हैं।

 
नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं।

पूछा गया प्रश्न: (i) आपकी ऑनलाइन सर्च के आधार पर आपको कितनी बार संदेश या विज्ञापन प्राप्त होते हैं- बार-बार, कभी-कभी या कभी नहीं? 

●    पांच में से एक व्यक्ति निजी एजेंसियों के साथ अपने आधार का विवरण साझा करने में बिल्कुल भी सहज नहीं है। 
●    चालीस प्रतिशत लोग इस बात को लेकर बहुत चिंतित हैं कि ऑनलाइन जानकारी देने से उसका दुरुपयोग किया जा सकता है। 
●    चवालीस प्रतिशत लोग इस बात को लेकर अत्यंत चिंतित हैं कि अज्ञात व्यक्ति/कंपनियाँ उनके बैंक खतों पर नज़र रख रहे हैं। 
●    चार में से लगभग तीन लोग चिंतित हैं कि उनका व्यक्तिगत डेटा जैसे आधार या पैन नंबर ऑनलाइन लीक हो सकते हैं।

 

 
नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं।
पूछा गया प्रश्न: इन बातों को लेकर आप कितना चिंतित महसूस करते हैं कि यह आपके साथ हो सकता है – बहुत चिंतित, कुछ हद तक चिंतित, बहुत कम या बिल्कुल भी नहीं? आपका व्यक्तिगत डेटा जैसे आधार नंबर, पैन नंबर आदि ऑनलाइन लीक हो सकता है।

हैकिंग और साइबर अपराध
आम जनता के लिए व्यक्तिगत डेटा, विशेष रूप से वित्तीय और अन्य संवेदनशील जानकारी की सुरक्षा एक प्रमुख चिंता का विषय है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्डब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इसका समर्थन करते हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक महामारी की शुरुआत के बाद साइबर अपराधों की रिपोर्टों में वृद्धि हुई है। सर्वेक्षण के निष्कर्ष भी इस चिंता को दर्शाते हैं। इसके अलावा सर्वेक्षण से पता चलता है कि जाति, वर्ग और आयु के आधार पर डिजिटल वित्तीय प्लेटफार्मों के उपयोग में काफी भिन्नता है।
●    पांच में से दो लोग (40%) इस बात को लेकर चिंतित हैं कि हैकर्स चोरी से उनके फोन की जानकारी तक पहुँच सकते हैं।
●    चार में से तीन लोग इस बात को लेकर चिंतिन हैं कि अज्ञात व्यक्ति/कंपनी उनके ईमेल खातों तक पहुँच सकते हैं।
●    सर्वे में पाया गया कि तीन में से लगभग एक व्यक्ति ऐसा है जो किसी भी प्रकार के डिजिटल बैंकिंग जैसे यूपीआई, बैंकिंग वॉलेट, डेबिट या क्रेडिट कार्ड या नेट बैंकिंग के माध्यम से ऑनलाइन लेनदेन नहीं करता है। अधिक उम्र के उत्तरदाता डिजिटल भुगतान वॉलेट जैसे ऐप्स के साथ कम सहज पाए गए हैं।
●    अनुसूचित जाति के उत्तरदाता डिजिटल बैंकिंग विधियों का उपयोग करते हुए कम पाए गए, जबकि उच्च जाति के उत्तरदाता सबसे अधिक।
●    बारह प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि वे ऑनलाइन वित्तीय धोखाधड़ी के शिकार हुए हैं।

 


 
नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं। 
पूछा गया प्रश्न: क्या आपने या आपके किसी करीबी ने, कभी ऑनलाइन धोखाधड़ी के कारण अपने बैंक खाते से पैसे खोये हैं?

निगरानी पर मीडिया सामग्री का वस्तु-विश्लेषण
निगरानी संबंधित मुद्दों की मीडिया कवरेज को गहराई से समझने के लिए रिसर्च टीम ने 1 जुलाई, 2021 से 30 जून, 2022 तक की एक वर्ष की अवधि के समाचारों का विश्लेषण किया। छह मीडिया संस्थानों (तीन हिंदी और तीन अंग्रेजी) के कुल 1,113 समाचारों को कोड किया गया और व्यापक रुझानों की पहचान करने के लिए उनका विश्लेषण किया गया। इनमें ख़बरों के प्रकार, उनका झुकाव, कहानियों का फ्रेम इत्यादि शामिल हैं। 
●    निगरानी पर आधारित चुनी गयीं ख़बरों में हमने पाया कि चार में से तीन में प्राथमिक स्रोत के लिए मीडिया संस्थानों ने सरकारी एजेंसियों पर भरोसा किया। 
●    निगरानी पर चार में से एक खबर में इसका समर्थन पाया गया।
●    टाइम्स ऑफ़ इंडिया और दैनिक जागरण की निगरानी पर अधिकतर ख़बरों में सरकार का समर्थन पाया गया, और द वायर की सबसे ज़्यादा खबरों में सरकार के प्रति आलोचना थी।
●    तीन में से लगभग दो ख़बरें निगरानी के जन-सुरक्षा और कानून व्यवस्था के लिए उपयोग के बारे हैं। सैंपल के लिए चुनी गयीं ख़बरों में से केवल एक चौथाई ख़बरें ही मूलरूप से मानव अधिकारों से सम्बन्धित विषय पर केंद्रित हैं।
●    सीसीटीवी और ड्रोन पर आधारित ख़बरों में इन तकनीकों की वैधता या निजता के अधिकार पर सबसे कम बहस देखने को मिलती हैं।
●    कुल सैंपल में से 14 प्रतिशत से भी कम ख़बरों ने निजता के अधिकार या निगरानी की वैधता का उल्लेख किया है।

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लाल परिवार फाउंडेशन की वित्तीय मदद से कॉमन कॉज़ द्वारा तैयार की गई [inside]पुलिस रिस्पांस टू द पैंडेमिक: ए रैपिड सर्वे ऑफमाइग्रेंट एंड ऐड वर्कर्स (30नवंबर, 2021 को जारी)[/inside], नामक रिपोर्ट के मुख्य अंश इस प्रकार हैं (देखने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):

अचानक लगाए गए लॉकडाउन के लिए सबसे गंभीर रूप से प्रभावित या उन्हें राहत पहुंचाने वाले लोगों का नजरिया सहज नहीं रहा. पांच प्रवासी कामगारों में से चार और सहायता कर्मियों के लगभग बराबर अनुपात का मानना ​​है कि अगर लोगों को लॉकडाउन के बारे में पहले ही बता दिया जाता तो उन्हें कम मुश्किलों का सामना करना पड़ता.

प्रवासी और सहायता कर्मियों दोनों के अनुसार, संकट के समय में पुलिस द्वारा की गई मदद का मुख्यत बड़ा हिस्सा सहायता और भोजन, राशन या आवश्यक सामान का वितरण था. लगभग साठ प्रतिशत सहायता कर्मियों को लगता है कि पुलिस भोजन/राशन वितरित करने में अत्यधिक या कुछ हद तक सहायक थी.

साक्षात्कार में शामिल आधे से अधिक सहायताकर्मियों का मानना ​​था कि पुलिस के पास लॉकडाउन से निपटने के लिए प्रशिक्षण की कमी है. इसके अलावा, पांच में से तीन (57 प्रतिशत) सहायता कर्मियों ने महसूस किया कि पुलिस स्थिति से निपटने के लिए बिल्कुल भी सुसज्जित नहीं है.

लॉकडाउन के दौरान लगभग आधे प्रवासी कामगारों ने पुलिस के बल प्रयोग का सामना किया. इसके अलावा, 10 में से एक प्रवासी कामगार को अपने गृह राज्यों/गांवों में वापस जाते समय पुलिस की मार झेलनी पड़ी. प्रवासी कामगारों की तरह, सहायता कर्मियों ने भी लॉकडाउन के दौरान पुलिस द्वारा किए गए बल प्रयोग को उनके द्वारा की गई क्रूरता के सबसे सामान्य रूप के तौर पर दर्ज किया. सत्तर प्रतिशत ने बताया कि पुलिस ने आम लोगों के खिलाफ कई बार या कभी-कभी बल प्रयोग किया.

पांच में से दो प्रवासी कामगारों (38 फीसदी) का मानना ​​था कि लॉकडाउन के दौरान पुलिस जिस सख्ती के साथ नियमों का पालन कर रही है, वह अनुचित और कठोर है, जबकि 47 फीसदी का मानना ​​था कि सुरक्षा के लिए सख्ती जरूरी है और पुलिस अपना काम कर रही है. सहायता कर्मियों का एक बड़ा हिस्सा (40 प्रतिशत) भी इस बात पर एकमत था कि लॉकडाउन के अनावश्यक रूप से सख्त नियम इस अवधि के दौरान पुलिस के समुचित कार्य में एक बड़ी बाधा थे.

एक तिहाई से अधिक सहायता कर्मियों का मानना ​​है कि पुलिस ने तालाबंदी के दौरान बेघर लोगों, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों और प्रवासी कामगारों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया. दो में से एक सहायता कर्मी का यह भी कहना है कि पुलिस ने तालाबंदी के दौरान मुसलमानों के साथ भेदभाव किया, जिसमें 50 प्रतिशत ने उच्च या मध्यम स्तर के भेदभाव की सूचना दी.

कुल मिलाकर पांच में से तीन प्रवासी कामगार (59 फीसदी) और सहायता कर्मी (61 फीसदी) लॉकडाउन के दौरान पुलिस के काम से संतुष्ट थे. साथ ही, हालांकि, दोनों समूहों का यह भी मत था कि लॉकडाउन के दौरान पुलिस द्वारा अत्यधिक बल प्रयोग किया गया. पांच में से लगभगतीन प्रवासी कामगार (57 प्रतिशत) और पांच में से चार सहायता कर्मी (80 प्रतिशत) लॉकडाउन के दौरान आम लोगों के खिलाफ पुलिस द्वारा लगातार बल प्रयोग की बात कही.

कार्यकारी सारांश

स्टेट्स ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट, (SPIR) 2020-21, खंड II: कोविड -19 महामारी में पुलिस व्यवस्था नामक यह रिपोर्ट, लॉकडाउन के दौरान नागरिक-पुलिस के बीच संपर्क, कोरोना वायरस संकट से निपटने और कानून व्यवस्थातंत्र में नई चुनौतियों के उभरने जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को कवर करती है. इससे पहले, अप्रैल 2021 में जारी SPIR 2020-21 खंड-I में हिंसाग्रस्त, अतिवाद या विद्रोह से प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस व्यवस्था का अध्ययन किया गया है. SPIR के यह दोनों खंड असामान्य और असाधारण परिस्थितियों के दौरान पुलिस व्यवस्था का अध्ययन करते हैं.

SPIR 2020-21 का यह भाग 10 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के टियर 1 और टियर II/III शहरों के आम लोगों और पुलिस कर्मियों के सर्वेक्षण के आंकड़ों का विश्लेषण करता है. रिपोर्ट राष्ट्रीय लॉकडाउन के शुरुआती चरणों के दौरान पुलिस व्यवस्था के स्वरूप पर हुई मीडिया कवरेज का भी अध्ययन करती है. इस रिपोर्ट में दिल्ली-NCR, राजस्थान और गुजरात के प्रवासी श्रमिकों और राहतकर्मियों के साथ एक अलग सर्वेक्षण के कुछ प्रमुख निष्कर्ष भी प्रस्तुत किए गए हैं.

यह गौरतलब है कि रिपोर्ट के सभी निष्कर्ष 2020 में भारत में कोविड -19 संकट की पहली लहर से संबंधित हैं, क्योंकि डेटा संग्रह अक्टूबर और नवंबर 2020 के महीनों में किया गया था.

कॉमन कॉज और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) के लोकनीति कार्यक्रम द्वारा जारी की गई, [inside]स्टेट्स ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट, (SPIR) 2020-21 खंड II: कोविड-19 महामारी में पुलिस व्यवस्था[/inside] नामक रिपोर्ट के कुछ प्रमुख अंश इस प्रकार हैं: (देखने के लिए यहां क्लिक करें.)

पुलिस द्वारा कानून के शासन का पालन

लोकतंत्र की केंद्रीय विशेषताओं में से एक कानून के शासन का पालन है. हालाँकि, यह कागज पर एक शासकीय सिद्धांत के रूप में मौजूद हो सकता है, लेकिन जमीन पर वास्तविकता पूरी तरह से अलग हो सकती है. महामारी की पहली लहर के दौरान पुलिस के कामकाज में भी कुछ ऐसी ही स्थिति देखने को मिली, जैसा कि इस रिपोर्ट के निष्कर्ष से स्पष्ट है.

• तीन पुलिस कर्मियों में से केवल एक ने लॉकडाउन के दौरान कानून और व्यवस्था बनाए रखने और अपराधों की जांच करते हुए कानूनी प्रक्रियाओं का पूरी तरह से पालन करने में सक्षम होने की सूचना दी.

• एक चौथाई से अधिक (27%) पुलिस कर्मियों ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान पुलिस के लिए सबसे बड़ी चुनौती लोगों को संभालना था. आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के पुलिस कर्मियों ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान गरीब और प्रवासी श्रमिकों को संभालना उनके लिए दूसरी सबसे बड़ी चुनौती थी.

https://lh6.googleusercontent.com/jLJp_1cGCO2iD_kBKKtGXyF3EBURftoSEIULmakTWXXzG05d6Q-jMgxWfxUrrftkC9lMcq-ptQnd9xW12HjasC-uirUCA79ZpMw4rP_7UK7AnyI9-1fTN09JXF9y6crSjfxawCxY

नोट: सभी आंकड़े पूर्णांकित (rounded off) हैं.यह पुलिस कर्मियों की राय है.

style="margin-right:35px; text-align:justify">प्रश्न: आपके अनुसार, लॉकडाउन के दौरान कोरोनावायरस महामारी से निपटने में पुलिस के लिए सबसे बड़ी बाधा/कठिनाई क्या थी?

पुलिस ज्यादती, बल प्रयोग और पुलिस और लोगों के बीच टकराव

लॉकडाउन के दौरान, यहां तक कि सख्त लॉकडाउन नियमों के मामूली उल्लंघन के मामलों में भी, पुलिस द्वारा बल प्रयोग और पुलिस की बर्बरता आमतौर पर रिपोर्ट की गई. इससे पुलिस और लोगों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई. इसके अलावा, आम लोगों में पुलिस के भय का स्तर बढ़ गया था:

• तीन आम लोगों में से एक (33%) ने लॉकडाउन के दौरान नागरिकों और पुलिस के बीच लगातार टकराव की सूचना दी.

• आम लोगों में से अधिकांश (55%) ने लॉकडाउन के दौरान पुलिस से डरने की सूचना दी. पांच में से लगभग तीन ने जुर्माना (57%) और पुलिस (55%) द्वारा पीटे जाने की सूचना दी.

https://lh6.googleusercontent.com/fXLVksvI8ry8kQlkiwJ-yraL_dJioqr-FCQ4_86OeTc6OorV0RwY75Iuf05OJPl1jZ2A35uNa1tMw8au81nv0j5Z3yEyEolR6vvFU9m-3746EucB3pmuvEJGbwqZxDV360BYdsi-

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित (rounded off) हैं.

सवाल: लॉकडाउन के दौरान जब भी आप अपने घर से जरूरी सामान खरीदने या काम के लिए बाहर जाते हैं, तो आपको निम्न बातों का कितना डर ​​लगता है – बहुत ज्यादा, कुछ ज्यादा नहीं या बिल्कुल नहीं? ए) पुलिस द्वारा जुर्माना/जुर्माना लगाने या आपके वाहन को जब्त करने का डर? बी) पुलिस को पीटने का डर? सी) पुलिस द्वारा आपको हिरासत में लेने/गिरफ्तार करने का डर?

आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित वर्गों पर प्रतिकूल प्रभाव

लॉकडाउन और इसके मद्देनजर पुलिस द्वारा की कार्रवाई पहले से ही वंचित समूहों जैसे कि गरीबों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों के लिए सख्त थी. सबसे पहले, इन समुदायों को आम तौर पर लॉकडाउन के कारण अधिक नुकसान का सामना करना पड़ा. इन समुदायों को भोजन या राशन जैसी आवश्यक चीजों तक पहुंचने में कठिनाई हो रही थी. दूसरा, उन्हें किरायेदारों (मकान मालिकों) द्वारा निकाल दिए जाने की भी अधिक संभावना थी. इस अवधि के दौरान पुलिस द्वारा उनके साथ किए गए भेदभाव से उनकी परेशानी और बढ़ गई, जैसा कि निष्कर्षों से स्पष्ट है:

• लॉकडाउन के दौरान, अमीरों की तुलना में सबसे गरीब और निम्न वर्ग के दोगुने से अधिक लोगों को बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.

https://lh4.googleusercontent.com/yZVksS8EmbmssYb6P6dZ0QAxIVBRvyjn4V6HwnGX2up028eV-d0HFA3O_i847vk7JADYvORamCm3l2i37_ciMG55MBNYIdu1S9QHdwKEslDn4qrQ-Lvzwo0SwHLbliIJtl3JncFH

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित (rounded off) हैं.

प्रश्न: कई क्षेत्रों में, स्थानीय लोगों को लॉकडाउन के दौरान भोजन या दवाओं जैसी बुनियादी आवश्यक चीजों तक पहुंचने में मुश्किलात का सामना करना पड़ा. आपके और आपके परिवार के लिए मूलभूत आवश्यक चीज़ों तक पहुँचना कितना कठिन था – बहुत, कुछ हद तक, अधिक नहीं, या बिल्कुल भी नहीं?

• लॉकडाउन के दौरान, अमीरों की तुलनामें गरीब वर्ग के लोगों में मकान मालिकों द्वारा जबरन बेदखल किए जाने के 'कई' मामलों की रिपोर्ट करने की संभावना तीन गुना अधिक थी. दलितों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को लॉकडाउन के दौरान जबरन बाहर निकाले जाने की भी सबसे अधिक संभावना थी.

https://lh4.googleusercontent.com/HJ2DM2aORsa9zwSWNdoDVRaoRU-nOCgKwvWmtLn3rtcwg5P3RYyoYvB3KJ9enuLiggUpL9-wp7UiQXiv-s_Dj8JAmnA1AjgqlSmD41mhTiZBfjIWcHQaLo63Klur7OWE2hxkNHbm

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित (rounded off) हैं.

*अन्य समुदायों में अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक जैसे सिख, बौद्ध/नव बौद्ध, जैन, पारसी और वे लोग शामिल हैं जिन्होंने अपनी जाति का खुलासा नहीं किया. छोटे-छोटे मामलों के कारण इन सभी को एक साथ जोड़ दिया गया है.
प्रश्न: कोविड -19 के प्रकोप/लॉकडाउन के दौरान, मालिकों द्वारा किरायेदारों को जबरन बेदखल करना कितना आम था?

• लॉकडाउन के दौरान पुलिस की धारणाओं में स्पष्ट वर्ग विभाजन था. गरीब और निम्न वर्ग के लोग लॉकडाउन के दौरान पुलिस से अधिक भयभीत थे. विशेष रूप से, वे पुलिस द्वारा शारीरिक हिंसा से डरते थे. उन्हें इस अवधि के दौरान पुलिस के निर्देशों को धमकी के रूप में देखने की अधिक संभावना थी. दूसरी ओर, पुलिस कर्मी भी ज्यादातर यह मानते थे कि गरीब इलाकों में लॉकडाउन नियमों का कम से कम अनुपालन हो रहा था.

https://lh3.googleusercontent.com/j4KUefObeKd1GPBudRVvOpdJHLVmWsOOlo3grwfKK3m2eAWAnWtrFFsJHTfG4qKxB5smOVctdqGm1DhBpOI5Vretvrirzpxtuum3ND-7fHvwYMzYs2KI67HgwqQ4mY9q28MEeFpk

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित (rounded off) हैं.'कुछ डर' और 'बहुत डर' की श्रेणियों से मिलाकर'पुलिस का डर' एक श्रेणी बना दी है.

• आम लोगों (62%) और पुलिस कर्मियों (71%) के बहुमत का मानना ​​था कि लॉकडाउन के दौरान लगाए गए प्रतिबंध सभी पर समान रूप से लागू होते हैं. हालांकि, एक महत्वपूर्ण अनुपात (29% लोग; 26% पुलिस कर्मियों) ने महसूस किया कि कुछ लोग अधिक आसानी इन प्रतिबंधों से बच गए. गरीब लोगों के यह मानने की अधिक संभावना है कि सभी के लिए समान रूप से प्रतिबंध नहीं लगाए गए थे.

• लॉकडाउन की वजह से सार्वजनिक स्थानों पर पुलिस की अधिक तैनाती के साथ, चार में से लगभग तीन (71%) लोगों ने सुरक्षित महसूस करने की सूचना दी. हालांकि, पांच में से एक (18%) को खतरा महसूस हुआ. गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों ने पुलिस तैनाती से अधिक खतरा महसूस किया. यह दर्शाता है कि वे पुलिस की तैनाती से असमान रूप से प्रभावित थे.

• सहायता कर्मियों के एक अलग त्वरित अध्ययन के अनुसार, एक तिहाई से अधिक सहायता कर्मियों का मानना ​​है कि पुलिस ने लॉकडाउन के दौरान बेघर लोगों, झुग्गीवासियों और प्रवासी श्रमिकों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया. दो में से एक सहायता कर्मी का यह भी कहना है कि पुलिस ने लॉकडाउन के दौरान मुसलमानों के साथ भेदभाव किया, जिसमें 50 प्रतिशत ने अधिक या मध्यम स्तर के भेदभाव की सूचना दी.

https://lh6.googleusercontent.com/2rOPOHRVbmF1jkln55LdE4r3T5KW7QCVGBlog-dZ_fEx3gAaLYYNbM4jIx5MTrDUI1N7DhDdoicARtlOChPmeS7ZCrXOsq3_koTqERH25oP_Qx-cKZYJc-JOR3XmDCcY31vDOODl

नोट: सभीआंकड़े पूर्णांकित हैं.

प्रश्न: "आपके अनुभव में, लॉकडाउन के दौरान, निम्नलिखित समूहों के लोगों के साथ पुलिस का व्यवहार कैसा था- बहुत अच्छा, कुछ अच्छा, तटस्थ, कुछ बुरा, बहुत बुरा या पुलिस ने लॉकडाउन के दौरान उनके साथ बातचीत नहीं की. (चुप विकल्प): ए) एनजीओ कर्मचारी/स्वयंसेवक; बी) बेघर लोग; सी) बड़े समाज या अपार्टमेंट के निवासी; डी) झुग्गी में रहने वाले/अनधिकृत कॉलोनियों के निवासी; इ) अपने गांव या गृह राज्य वापस जाने की कोशिश कर रहे प्रवासी श्रमिक.”

प्रवासी कामगारों की दुर्दशा

महामारी की पहली लहर के दौरान प्रवासी श्रमिक यकीनन सबसे बुरी तरह प्रभावित थे, और उन्हें आर्थिक असुरक्षा, राहत योजनाओं और आवश्यक सेवाओं की कमी जैसी कई चुनौतियों से जूझने के लिए छोड़ दिया गया था. घरों और परिवारों से दूर रहने के कारण उनकी परेशानी और बढ़ गई थी. इस प्रकार, आम लोगों और पुलिस कर्मियों के साथ किए गए सर्वेक्षण में प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा पर कुछ प्रश्न भी शामिल थे. इसके अलावा, प्रवासियों और राहतकर्मियों के एक अलग तत्विरक सर्वेक्षण के कुछ निष्कर्ष भी पुलिस की बर्बरता और प्रवासियों के साथ हुई ज्यादतियों की ओर इशारा करते हैं.

• दो पुलिस कर्मियों में से लगभग एक (49%) ने घर वापस जाने वाले प्रवासी कामगारों के खिलाफ अक्सर बल प्रयोग करने की सूचना दी. इसके अलावा, तीन में से एक पुलिस कर्मी (33%) को अक्सर ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ा जहां प्रवासी घर वापसी करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन पुलिस ने उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए बल प्रयोग किया.

https://lh5.googleusercontent.com/aqi8wpqwwL5fRy2SVLnvZSptWGbvT7qrnqRpvZmOc-7JhDy1YeJ3jRlfy214nxpeWIDUzokiSWOMslUh0tspzGUwaaJ1HOPb4UbyYRqb9cKvaIzaueDIwLjNu1-fJCAXirR6Xrch

नोट: सभी आंकड़े पूर्णांकित हैं.

प्रश्न: अपने घरों की ओर पैदल जा रहे प्रवासियों को नियंत्रित करने के लिए पुलिस ने कितनी बार बल प्रयोग का सहारा लिया–अक्सर, कभी-कभार, बहुत कम या कभी नहीं?

• चार कर्मियों में से लगभग एक (23%) ने भ्रमित होने की सूचना दी कि प्रवासी श्रमिकों को कौन आश्रय देगा, जबकि अन्य 22 प्रतिशत ने जिला पुलिस के साथ समन्वय की कमी का उल्लेख किया.

• प्रवासी कामगारों के एक अलग त्वरित सर्वेक्षण के अनुसार, अचानक हुए लॉकडाउन को सबसे गंभीर रूप से प्रभावित लोगों या उन्हें राहत प्रदान करने वालों द्वारा अनुकूल रूप से नहीं देखा गया. पांच प्रवासी कामगारों में से चार और सहायता कर्मियों के लगभग बराबर अनुपात का मानना ​​है कि अगर लोगों को लॉकडाउन के बारे में पहले ही बता दिया जाता तो उन्हें कम मुश्किलों का सामना करना पड़ता.

• तत्वरिक अध्ययन में पाया गया कि प्रवासी और सहायता कर्मियों दोनों के अनुसार, सहायता प्रदान करना और भोजन, राशन या आवश्यक प्रावधान वितरित करना संकट के समय पुलिस द्वारा प्रदान की जाने वाली सहायता का सबसे बड़ा रूप था. लगभग 60 प्रतिशत सहायता कर्मियों को लगता है कि पुलिस भोजन/राशन वितरित करने में अत्यधिक या कुछ हद तक सहायक थी.

• तत्वरिक अध्ययन केलिए संपर्क किए गए प्रवासी कामगारों में से लगभग आधों ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान, उन्हें पुलिस द्वारा हमले का सामना करना पड़ा. इसके अलावा, 10 में से एक प्रवासी श्रमिक को अपने गृह राज्यों / गांवों में वापस जाते समय पुलिस द्वारा हमले का सामना करना पड़ा. प्रवासी कामगारों की तरह, सहायता कर्मियों ने भी लॉकडाउन के दौरान पुलिस द्वारा किए गए बल प्रयोग को क्रूरता का सबसे सामान्य रूप बताया. अस्सी प्रतिशत का कहना है कि पुलिस ने आम लोगों के खिलाफ कई बार या कभी-कभी बल प्रयोग किया.

https://lh5.googleusercontent.com/QCXp4qFP8n8bREqHq_6NMibr0k6GocL8IvpkOu6lRtuRBtUiQNew5wQv9uOVpqo3F-xQxkS-vSUpYXB9q2xyQo9mAIWBO-wOMvYkMiVHPtjdOsmPz8qAwNLhh-8NJ9YHEVv_U84x

नोट: सभी आंकड़े पूर्णांकित हैं.

प्रश्न: "आपके अनुभव में, लॉकडाउन के दौरान, पुलिस ने कितनी बार आम लोगों पर बल प्रयोग किया-कई बार, कभी-कभी, शायद ही कभी या बिल्कुल नहीं?"

• एक अलग तत्वरिक अध्ययन के अनुसार, कुल मिलाकर पांच में से तीन प्रवासी कामगार (59%) और सहायता कर्मी (61%) लॉकडाउन के दौरान पुलिस के काम से संतुष्ट थे. हालांकि दोनों गुटों का यह भी मानना ​​था कि इस दौरान पुलिस द्वारा अत्यधिक बल प्रयोग किया गया. पांच प्रवासी श्रमिकों में से लगभग तीन (57%) और पांच में से चार सहायता कर्मियों (80%) ने लॉकडाउन के दौरान आम लोगों के खिलाफ पुलिस द्वारा लगातार बल प्रयोग की सूचना दी.

लॉकडाउन का प्रबंधन: आम लोगों और पुलिस की राय

भले ही पुलिस ने लॉकडाउन नियमों को लागू किया और आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 का अनुपालन सुनिश्चित किया, लेकिन लागू किए जाने वाले सटीक नियमों के निर्णय उनके काम के दायरे में नहीं आते. लॉकडाउन की प्रकृति और प्रवर्तन समय का निर्णय राज्य पुलिस बलों के परामर्श के बिना लिया गया था. रिपोर्ट के कुछ निष्कर्ष नियमों और उन्हें लागू करने के तरीके से असंतोष दिखाते हैं.

• पांच में से तीन से अधिक लोगों (64%) का मानना ​​है कि लॉकडाउन के बारे में पहले ही बता दिया जाता, तो प्रवासी संकट को रोका जा सकता था.

https://lh6.googleusercontent.com/tjJlnjNu15Ace-Rt6OF3Zd0lzA4dlEeVFPaK9E2wbHOqUa-kF_98LmSKtqAXpcYgZEw59lBBBJZJOMnMAE3Z2h0Zv_QXyZAGfcTEwC0NWeUY9uBTsmGa1yJcSza3d_D_31EtA83Q

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित हैं.

प्रश्न: मैं दो कथन पढ़ूंगा, मुझे बताएं कि आप दोनों में से किससे अधिक सहमत हैं?

• पांच में से दो प्रवासी कामगारों (38%) का मानना है कि पुलिस द्वारा लॉकडाउन नियम लागू करने की सख्ती अनुचित और कठोर थी. हालाँकि, 47 प्रतिशत का मानना ​​था कि सुरक्षा के लिए सख्ती की आवश्यकता है और पुलिस अपना काम कर रही है. सहायता कर्मियों (40%) के एक महत्वपूर्ण अनुपात ने भी दृढ़ता से महसूस किया कि इस अवधि के दौरान पुलिस के उचित कामकाज में अनावश्यक रूप से सख्त लॉकडाउन नियम एक बड़ी बाधा थे.

महामारी के दौरान पुलिस के काम का लोगों का मूल्यांकन

पुलिस द्वारा किए गए कार्यों से संतुष्टि केस्तर और लॉकडाउन के दौरान पुलिसिंग के उनकेसमग्र मूल्यांकन का आकलन करने के लिए, लोगों की संतुष्टि, विश्वास, अनुभव, लॉकडाउन के दौरान पुलिसिंग के बारे में धारणाओं से संबंधित प्रश्न पूछे गए:

• कुल मिलाकर, आम लोगों में 10 में से नौ (86%) ने लॉकडाउन के दौरान पुलिस के व्यवहार को सकारात्मक रूप से आंका. इसमें से एक चौथाई (25%) ने कहा कि व्यवहार बहुत अच्छा था और पाँच में से तीन (61%) ने इसे अच्छा बताया.

• चार में से तीन पुलिस कर्मियों को लगता है कि लॉकडाउन के दौरान निगरानी बहुत बढ़ गई है. आम लोगों के समान अनुपात ने भी अपने इलाके में पुलिस की उपस्थिति में वृद्धि की सूचना दी.

• सर्वेक्षण महामारी के दौरान पुलिसिंग के बारे में व्यापक रूप से सकारात्मक सार्वजनिक धारणा को दर्शाता है. हर पांच में से दो लोगों (40%) ने पुलिस को अत्यधिक कुशल और 46% को प्रकोप को नियंत्रित करने में कुछ हद तक कुशल माना. हालांकि, गरीब लोगों को यह विश्वास करने की संभावना कम थी कि पुलिस कुशल थी.

• कुल मिलाकर, महामारी ने पुलिस और नागरिकों के बीच संबंधों में सुधार किया है. तीन में से दो लोगों (66%) ने विश्वास के स्तर में सुधार की सूचना दी और लगभग इतनी ही संख्या (65%) ने लॉकडाउन के बाद पुलिस की छवि में सुधार की सूचना दी. सर्वेक्षण में शामिल लगभग आधे आम लोगों ने महसूस किया कि अचानक देशव्यापी लॉकडाउन के बावजूद पुलिस ने स्थिति को कुशलता से संभाला.

https://lh4.googleusercontent.com/pW8YJ5Q3XM7ksSprOqgXf5zACRrRXxOH6WSgRB0zaqX74X0u7W4CbcW1SUMifUlgXONU4dKUvmiJ5uUUGY5kNVRD7BxlxQleQQvT3H2-iukfNaKH0Izx1O13IKyN9cr1tY3zofuV

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित हैं.

सवाल: कोरोना वायरस महामारी के बाद आपके मन में पुलिस की छवि सुधरी है, बिगड़ी है या वही बनी हुई है?

https://lh4.googleusercontent.com/nd6fhq5EEIJgvG17jOTJpLH5U-shGxgbI_IeLIGjuG-mzqboJ2ScQkBvvJfgwarKxXOEkL4f9brGOu8wOIhTVzv8iWLhxO7iwIV3w3LyHIwqZYq7ZrfAXDQY_sLsSjAG1xdla4Ko

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित हैं.

सवाल: कोरोनावायरस के प्रकोप के दौरान पुलिस ने कैसा प्रदर्शन किया, इस पर विचार करते हुए, पुलिस पर आपका भरोसा बढ़ा है या घटा है?

• टियर I शहरों की तुलना में मोटे तौर पर, टियर II/III शहरों में लोगों की लॉकडाउन के दौरान पुलिस के बारे में बेहतर धारणा थी. छोटे शहरों में अधिक लोगों ने महसूस किया कि पुलिस स्थिति को नियंत्रित करने में सक्षम है और लॉकडाउन के दौरान अपनी बढ़ी हुई उपस्थिति से वे सुरक्षित हैं.

लॉकडाउन के दौरान अपराध

लॉकडाउन लागू होने के साथ, यह देखा गया कि दुनिया भर में सामान्य अपराध जैसे डकैती, चोरी, हत्या, हिंसक अपराध आदि में भारी कमी आई. हालांकि, लॉकडाउन के कारण साइबर अपराध और घरेलू हिंसा जैसे अपराधों की विभिन्न श्रेणियों में वृद्धि हुई, जैसा कि सर्वेक्षण के निष्कर्षों से स्पष्ट है. हालांकि, यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि ये निष्कर्ष लोगों और पुलिस की धारणाओं तक सीमित हैं, अपराधों की दरों के बारे मेंऔर वास्तविक रिपोर्ट की गई अपराध दर के बारे में आधिकारिक आंकड़े हैं, जो इस रिपोर्ट में शामिल नहीं किए गए हैं.

• कुल मिलाकर, आंकड़ों से पता चलता है कि कम लोगों के बाहर निकलने के साथ, देश की अपराध दर में कथित तौर पर काफी कमी आई है. पांच में से चार पुलिस कर्मियों ने समग्र अपराध दर में गिरावट की सूचना दी. आम लोगों के समान अनुपात ने भी लॉकडाउन के दौरान अपराध में कमी दर्ज की.

• जबकि पुलिस कर्मियों ने बताया कि चोरी, डकैती, अपहरण और हत्या जैसे अपराध काफी हद तक कम हो गए, निजी दायरों में किए गए अपराध, जैसे कि महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा और साइबर अपराध, लॉकडाउन के दौरान बढ़ गए. चार पुलिस कर्मियों में से एक ने लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा में वृद्धि की सूचना दी.

https://lh5.googleusercontent.com/SGsbTHdPBGpZPFdGQjLqdaybiM2RxiC9z8tYnT83H0oKzxycd6p8MMqOSD1tfB35YXo4bIfPpPm7-pWkIs0E9o_RmwrNPRThPRQtVAQWFGmJyq-ITzXo97mYQWLH6_AujZZfoLkw

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित हैं.

सवाल: पहले के समय की तुलना में लॉकडाउन के दौरान निम्नलिखित चीजें बढ़ी या घटीं? ए). आपके थाने में दर्ज शिकायतों या प्राथमिकी/एनसीआर की संख्या ख) चोरी, डकैती, अपहरण, हत्या जैसे सामान्य अपराध? सी) शराब या तंबाकू उत्पादों के अवैध व्यापार जैसे अपराध? डी) साइबर क्राइम से जुड़ी घटनाएं? इ) महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की घटनाएं?

लॉकडाउन के दौरान पुलिस की तैयारी और काम करने की स्थिति

अचानक हुए लॉकडाउन ने न केवल देश भर में आम लोगों पर, बल्कि लॉकडाउन को लागू करने वाले पुलिस कर्मियों पर भी भारी असर डाला. प्रशिक्षण, संसाधनों की कमी, कर्मचारियों की कमी के कारण पुलिस कर्मी बहुत निम्म स्तर की तैयारियों के साथ अपना दायित्व निभा रहे थे. पुलिस कर्मियों को आम तौर पर उन्हें सौंपे गए इतने बड़े कार्य को संभालने के लिए खराब तरीके से सुसज्जित किया गया था, सर्वेक्षण के निष्कर्षों से यह स्पष्ट होता है:

• टियर II/III शहरों की तुलना में टियर I शहरों में पुलिस कर्मियों को लॉकडाउन के दौरान बेहतर सुविधाएं प्रदान की गईं. टियर I शहरों में पुलिस के पास महामारी के दौरान ड्यूटी के लिए उपकरणों का अधिक प्रावधान था, बेहतर स्वच्छता की स्थिति, अधिक बीमा कवर, विशेष आवास जैसे सुरक्षा व्यवस्था, विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले कर्मियों का उच्च अनुपात और लॉकडाउन के दौरान अधिक विभागीय रूप से व्यवस्थित स्वास्थ्य जांच. इन शहरों में सह-रुग्णता वाले कर्मियों को भी अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों में तैनात किए जाने की संभावना कम थी.

https://lh6.googleusercontent.com/7zHxxba2wFodq1TYTnfBuwQbJLlPvH8gda39TFZi1P4K3GgBTzOrrkCB2Tu2BhI3H26O2hhHuiwURYhZJPHrj33yOQyEJ1GHMW-3TA4qI6dK2bHaTSG4jhCjj01zzLawtw0FI9C7

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित हैं.

प्रश्न: कोरोनावायरस के प्रकोप के दौरान, पुलिस ने अपने कर्मियों को वायरस से बचाने के लिए कई संपर्क रहित तरीके अपनाए. क्या आपके पुलिस स्टेशन में निम्नलिखित में से कोई स्थापित किया गया था- ए)सेंसर आधारितसैनिटाइजेशन मशीन; बी) थर्मल कैमरे; सी) वीडियो-इंटरकॉम डिवाइस; डी)यूवी कीटाणुशोधन बॉक्स?

https://lh5.googleusercontent.com/4vv5lmRpo3uBKKxpyA5--JyhOGlGm0hwtDrxqxaDW-ACXLHIrr0BJRpaEOaAr2LlUUXRrPXX9zKAns3zMiJ2NIpKe65bWYCiZakpsVH9FY-E7V4X4yTOk6gbgH1r_TZrd0rWyiRw प्रश्न: कोरोनावायरस के प्रकोप के दौरान, कुछ राज्यों में अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों में ड्यूटी पर तैनात पुलिस कर्मियों के लिए विशेष व्यवस्था की गई थी. क्या सरकार ने आपके क्षेत्र में निम्नलिखित में से किसी की व्यवस्था की है- क) पुलिस कर्मियों के लिए विशेष आवास, ताकि उन्हें हर दिन अपने परिवार के पास वापस न जाना पड़े; बी) पुलिस के लिए समर्पित कोरोना/कोविड स्वास्थ्य केंद्र या अस्पतालों में 'विशेष वार्ड'; सी) कोरोना वायरस के कारण मरने वाले पुलिस कर्मियों के मामले में परिवार को विशेष बीमा कवर या वित्तीय सहायता; डी) उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में तैनात लोगों के लिए अतिरिक्त मौद्रिक प्रोत्साहन?

• बहुसंख्यक (56%) ने बताया कि कमजोर पुलिस कर्मियों को कम जोखिम वाले क्षेत्रों में स्थानांतरित कर दिया गया या उन्हें पूर्ण आराम दिया गया, जबकि पांच में से दो (37%) ने इससे इनकार किया, जो एक समान नीति की कमी को दर्शाता है. हालांकि, पांच में से चार (84%) ने सहमति व्यक्त की कि कोविड -19 के दृश्य लक्षणों वाले पुलिस कर्मियों को छुट्टी दी गई थी.

• आधे पुलिस कर्मियों (56%) ने प्रकोप के दौरान जनता से निपटने के लिए एक विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने का दावा किया, जबकि पांच में से दो (43%) असहमत थे.

• कोविड-19 ड्यूटी ने अधिकांश पुलिस बल के मानसिक स्वास्थ्य पर भारी असर डाला, क्योंकि प्रत्येक 10 में से नौ ने कहा कि वे इससे बहुत अधिक या कुछ हद तक प्रभावित थे.

https://lh4.googleusercontent.com/LJpMqZd6y5ONtJlY7NO3-U0AfCaIOKSw_TfK3RjQBya9U7gU3fd60uYjEOpR-8_WVGZEHRhK6-yUW4WhmoyJKbnvbqkbV0BPTN_frXCVCqbQy_wIbVqN3sevD-slm9NaZqrE6N5J

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया, सभी आंकड़े पूर्णांकित हैं.

प्रश्न: आपको क्या लगता है कि कोरोनावायरस के प्रकोप के दौरान नियमित ड्यूटी पर रहने से आप जैसे पुलिस कर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य पर कितना प्रभाव पड़ा है – बहुत कुछ, कुछ हद तक, बहुत नहीं या बिल्कुल नहीं?

• सामान्य तौर पर, केरल और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्य महामारी के दौरान कर्मियों को विशेष प्रशिक्षण प्रदान करने में अधिक सक्रिय थे. इन राज्यों ने पीपीई किट आदि जैसे सुरक्षा उपकरणों की बेहतर उपलब्धता भी सुनिश्चित की, जबकि बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य इन मानकों के तहत सबसे कम तैयार थे. चुनौतियों पर प्रकाश डालते हुए, आधे पुलिस कर्मियों (52%) ने कर्मचारियों की कमी को एक बड़ी बाधा के रूप में पहचाना. नतीजतन, पुलिस बल अधिक बोझिल प्रतीत हुआ, जिसमें पांच में से चार (78%) ने लॉकडाउन के दौरान दिन में कम से कम 11 घंटे काम करने की सूचना दी. एक चौथाई से अधिक (27%) ने कथित तौर पर लॉकडाउन के दौरान दिन में कम से कम 15 घंटे काम किया.

नोट: शेष उत्तरदाताओं ने उत्तर नहीं दिया. सभी आंकड़े पूर्णांकित हैं.

सवाल: जब लॉकडाउन था, तब आप रोजाना कितने घंटे काम करते थे? और सामान्य समय में यानी लॉकडाउन से पहले आपके दैनिक काम केघंटे क्या हुआ करते थे?[RJ1] 

महामारी के दौरान पुलिसिंग का मीडिया कवरेज

जब सूचना के कई अन्य स्रोत ठप हो गए थे, उस मुश्किल घड़ी में, मीडिया ने उस अवधि के दौरान सूचना के प्रसारक के रूप में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसलिए, अध्ययन में महामारी के दौरान पुलिसिंग के समाचार कवरेज का विश्लेषण शामिल था. इस विश्लेषण के मुख्य निष्कर्ष नीचे दिए गए हैं:

• लॉकडाउन के दौरान पुलिसिंग पर मीडिया कवरेज की एक अच्छी मात्रा — चार समाचारों में से एक — लॉकडाउन उल्लंघन की घटनाओं और पुलिस द्वारा की गई परिणामी कार्रवाई के बारे में थी. इनमें से आधे से ज्यादा खबरें लॉकडाउन के एक महीने के भीतर ही सामने आईं.

• समाचार रिपोर्टों से पता चलता है कि आवश्यक समझे जाने वाले किसी भी साधन का उपयोग करके लॉकडाउन मानदंडों को बहुत सख्त रूप से लागू करने के लिए पुलिस पर महत्वपूर्ण सरकारी दबाव है.

• मीडिया की रिपोर्टें लॉकडाउन के दौरान पुलिस की विस्तारित भूमिका को दृढ़ता से दर्शाती हैं. लगभग सभी राज्यों में पुलिस शुरुआती हफ्तों के दौरान भोजन और आवश्यक आपूर्ति वितरित करने में शामिल थी. इसके अलावा व्यापक रूप से कवर किए गए नए पुलिस प्रयोगों की रिपोर्टें भी थीं, अर्थात, गायन, नृत्य, रचनात्मक स्वास्थ्य जागरूकता अभियान चलाने वाले पुलिस; जरूरतमंदों को मास्क, दवाएं आदि वितरित करना; नागरिकों के घरों का औचक निरीक्षण करना और उनका जन्मदिन आदि मनाना.

• सैंपल की गई 10 में से लगभग एक खबर लॉकडाउन के दौरान पुलिस की ज्यादती और लापरवाही की रिपोर्ट करती है. मीडिया रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि इस अवधि के दौरान प्रवासी श्रमिकों को पुलिस की बर्बरता का शिकार होने की सबसे अधिक संभावना थी.

• मीडिया ने यह भी बताया कि पुलिस ने लॉकडाउन को लागू करने के लिए ड्रोन कैमरा, फेस डिटेक्शन टेक्नोलॉजी, जीपीएस सक्षम सिस्टम जैसे जियोफेंसिंग आदि जैसे उन्नत निगरानी उपकरणों का व्यापक रूप से उपयोग किया. पुलिसिंग के लिए उन्नत तकनीक पर बढ़ती निर्भरता को मीडिया से खूब प्रशंसा मिली, लेकिन इस दौरान उनकी वैधता, नियमों के पालन और डेटा सुरक्षा विधियों से संबंधित कुछ सवाल उठाए गए.

• मीडिया रिपोर्टों के विश्लेषण में लॉकडाउन के दौरान सरकारी नीतियों या पुलिस के व्यवहार का बहुत कम या कोई आलोचनात्मक मूल्यांकन नहीं दिखा. जबकि इस अध्ययन में मीडिया की कहानियों के झुकाव का सामग्री विश्लेषण नहीं किया गया था, सामान्य विश्लेषण से कुछ महत्वपूर्ण रिपोर्टों का पता चला, सिवाय हिरासत में हुई मौतों जैसे अत्यधिक पुलिस बर्बरता के मामलों को छोड़कर.

 


 [RJ1]Figure missing

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सोसायटी वॉचडॉग कॉमन कॉज, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के सहयोग से हर साल स्टेटस ऑफ पुलिसिंग रिपोर्ट (एसपीआईआर) जारी करती है.

साल 2020-21 के लिए स्टेट्स ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट, 2020-2021, नामक इस रिपोर्ट को दो खंडों में विभाजितकिया गया है. पहला खंड हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में पुलिसिंग परकेंद्रित है. यह हिंसाग्रस्त, अतिवाद या विद्रोह से प्रभावित जिलों और राज्यों में पुलिस की प्रकृति और उनकी कार्यशैली का एक अध्ययन है. भारत और दक्षिण एशिया में पुलिस कर्मियों के दृष्टिकोण, उनकी कार्य स्थितियों, प्रशिक्षण और तैयारियों के साथ-साथ संघर्षग्रस्त इलाकों के विभिन्न हितधारकों के साथ उनके संबंधों के बारे में विस्तार से बात करने वाला अपने तरह का पहला अध्ययन है. इस अध्ययन में 11 राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के 27 जिलों और चार पूर्वोत्तर राज्यों व मध्य-भारत के वामपंथी अतिवाद से प्रभावित क्षेत्र के पुलिस कर्मियों और नागरिकों दोनों के आमने-सामने सर्वेक्षण शामिल हैं (सर्वेक्षण में शामिल जिलों की एक सूची रिपोर्ट के परिशिष्ट 1 में दी गई है).

अध्ययन में सरकारी एजेंसियों द्वारा जारी आधिकारिक आंकड़ों का भी विश्लेषण किया गया है. सर्वेक्षणों को भारत भर के विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में शिक्षाविदों के एक नेटवर्क द्वारा समन्वित किया गया था जो सीएसडीएस के लोकनीति कार्यक्रम का हिस्सा हैं. रिपोर्ट और इसके प्रमुख निष्कर्षों को कॉमन कॉज़ की वेबसाइट से डाउनलोड किया जा सकता है. रिपोर्ट के विमोचन के कार्यक्रम को https://youtu.be/BFu40ADPhmw पर देखा जा सकता है. 

कॉमन कॉज और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) के लोकनीति कार्यक्रम द्वारा 19 अप्रैल, 2021 को जारी की गई [inside]स्टेट्स ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट, 2020-2021[/inside], के मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं, (अंग्रेजी में देखने के लिए यहां और यहां क्लिक करें.)

अध्याय 1: भारत के हिंसा ग्रस्त राज्यों के आधिकारिक आंकड़ों का विश्लेषण

हिंसा ग्रस्त जिलों और राज्यों में संज्ञेय अपराधों की दर पांच साल के औसत के हिसाब से देखें तो राष्ट्रीय औसत से कम है. जहां हिंसा ग्रस्त जिलों में आईपीसी अपराधों की औसत दर 178 अपराध प्रति लाख जनसंख्या है, वहीं भारत की राष्ट्रीय औसत दर 237 अपराध प्रति लाख जनसंख्या है. हालाँकि, असम राज्य में किसी भी अन्य चयनित राज्य या राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक अपराध दर है, जिसमें प्रति लाख जनसंख्या पर 328 आईपीसी अपराध हैं.

हिंसा ग्रस्त जिलों में भारत के राष्ट्रीय औसत 146 एसएलएल (विशेष और स्थानीय कानून) प्रति लाख के मुकाबले प्रति लाख जनसंख्या पर चार गुना कम एसएलएल यानी 33 एसएलएल अपराध हैं.

राष्ट्रीय औसत की तुलना में हिंसा ग्रस्त जिलों में हिंसक अपराधों (हत्या, गंभीर चोट, अपहरण और अपहरण) की दरें बहुत अधिक हैं. जबकि अपहरण और अगवा करने की राष्ट्रीय दर 7 प्रति लाख जनसंख्या है, वहीं प्रभावित जिलों के लिए इसकी दर 10 प्रति लाख जनसंख्या है. हिंसाग्रस्त प्रभावित राज्यों में, अपहरण और अगवा करने की औसत दर 21 घटनाएं प्रति लाख जनसंख्या है, जोकि राष्ट्रीय औसत से तीन गुणा अधिक है.

• 2001 और 2019 के बीच, जम्मू औरकश्मीर क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी राज्यों और देश के वामपंथी अतिवाद प्रभावित क्षेत्रों से 68,500 से अधिक हिंसा की घटनाएं हुईं, जिसमें 23,283 नागरिकों और सुरक्षा बल के जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी. पहले दशक यानी साल 2001 से 2010 के बीच लगभग 75 प्रतिशत घटनाएं दर्ज की गई थीं, और उनमें से लगभग 45 प्रतिशत घटनाएं उस दशक के पहले पाँच वर्षों में हुई थीं.

जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में हिंसा और तनाव का स्तर 1990 के दशक और 2000 के दशक की तुलना में काफी कम हो गया है. घटनाओं की संख्या में और नागरिकों, सुरक्षा बल कर्मियों और मारे गए आतंकवादियों की संख्या में एक अवधारणात्मक गिरावट दर्ज की गई है.

• 2012 के बाद, उत्तर-पूर्वी राज्यों में हिंसात्मक घटनाओं में तेजी से गिरावट आई है और 2019 में हिंसक घटनाएं 1025 से गिरकर 223 रह गई हैं. पूर्वोत्तर क्षेत्र में साल 2012 में मारे गए 97 नागरिक और 14 सुरक्षाकर्मियों की तुलना में साल 2019 में 21 नागरिक और चार सुरक्षाकर्मियों की जान गई है.  

अध्याय 2: संघर्ष और संघर्ष समूहों के प्रति दृष्टिकोण

हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में, 46 प्रतिशत आम लोग और 43 प्रतिशत पुलिस कर्मियों का मानना ​​है कि नक्सली/विद्रोहियों की मांग जायज है, लेकिन उनके तरीके गलत हैं. अनुसूचित जनजाति के लोगों में ऐसा विश्वास करने की संभावना अधिक है. अनुसूचित जनजाति में से हर दूसरा व्यक्ति उनकी मांगों से सहमत है.

आम लोगों के अनुसार, गरीबी और बेरोजगारी के बाद असमानता, अन्याय, शोषण, भेदभाव नक्सली/विद्रोही गतिविधियों के पीछे सबसे बड़े कारण हैं.

नक्सलियों / विद्रोहियों की मांगें कितनी वास्तविक हैं?

 

 • 37 प्रतिशत आम लोगों को नक्सलियों / विद्रोहियों द्वारा शारीरिक हमले का डर है; 35 प्रतिशत लोग पुलिस द्वारा शारीरिक हमले का डर है; 32 प्रतिशत लोगों को अर्धसैनिक / सेना द्वारा शारीरिक हमले का डर है.

पांच आम व्यक्तियों में से एक नागरिक और पुलिसकर्मी को लगता है कि एक खतरनाक नक्सली / विद्रोही को मारना कानूनी प्रक्रिया अपनाने से बेहतर है.

59 प्रतिशत आम लोगों और 50 प्रतिशत पुलिस कर्मियों का मानना ​​है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर मानव अधिकारों की अनदेखी करना गलत है. हालाँकि, 34 प्रतिशत आम लोग और 42 प्रतिशत पुलिस कर्मी भी इस कथन से पूरी तरह सहमत हैं कि पुलिस को नक्सलियों / विद्रोहियों को खत्म कर देना चाहिए.

लगभग एक-चौथाई (24%) लोग किसी ऐसे व्यक्ति को जानते थेजो पुलिस या अर्धसैनिक / सशस्त्र बलों द्वारा शारीरिक यातना काशिकार था. उसी अनुपात (24%) लोगों ने कहा कि वे एक निर्दोष व्यक्ति के बारे में जानते थे जिसे नक्सलवाद / उग्रवाद से संबंधित आरोपों के लिए पुलिस या अर्धसैनिक / सेना द्वारा गिरफ्तार किया गया था.

अशांत जिलों में रहने वाले लोगों की तुलना में वामपंथी अतिवाद प्रभावित जिलों में रहने वाले लोग पुलिस और अर्धसैनिक बलों से अधिक प्रभावित थे. वामपंथी अतिवाद प्रभावित क्षेत्रों के पांच लोगों में से एक ने व्यक्तिगत रूप से पुलिस द्वारा शारीरिक यातना दिए जाने की जानकारी दी; वामपंथी अतिवाद प्रभावित क्षेत्रों के पांच लोगों में से एक आदमी को पुलिस द्वारा नाबालिगों को गिरफ्तार किए जाने / हिरासत में लिए जाने या नाबालिगों के प्रति हिंसक होने के मामलों के बारे में भी जानकारी थी.

अध्याय 3: संघर्ष को नियंत्रित करना: पुलिस सिस्टम में चुनौतियां

सर्वे किए गए पुलिस कर्मियों का एक बड़ा हिस्सा (60%) मानता है कि नक्सली / विद्रोही गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए यूएपीए, एनएसए आदि जैसे सख्त कानून महत्वपूर्ण हैं. गौरतलब है कि केवल 30 प्रतिशत आम लोग ऐसा मानते हैं.

पूर्वोत्तर के विद्रोह प्रभावित क्षेत्रों के आम लोगों में से 42 प्रतिशत का मानना है कि यूएपीए जैसे सुरक्षा कानून बहुत कठोर हैं और इन्हें निरस्त किया जाना चाहिए.

तीन पुलिस कर्मियों में से एक का मानना है कि नक्सली / विद्रोही एक समानांतर कराधान या न्याय प्रणाली चलाते हैं. हालांकि, केवल 18 प्रतिशत और 14 प्रतिशत आम लोग मानते हैं कि नक्सली / विद्रोही एक समानांतर कराधान प्रणाली और एक समानांतर न्याय / कानून और व्यवस्था चलाते हैं.

अध्याय 4: हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में पुलिस और लोगों के बीच संबंध

छत्तीस प्रतिशत आम लोगों का मानना है कि पुलिस नक्सलियों / विद्रोहियों के खिलाफ उनके अभियान में गरीबों के साथ भेदभाव करती है.

चार में से एक (27%) आम इंसान का मानना है कि आदिवासियों को नक्सलवाद / उग्रवाद-संबंधी आरोपों में गलत तरीके से फंसाए जाने की संभावना है.

वामपंथी अतिवाद से प्रभावित क्षेत्रों के आम लोगों में, 40 प्रतिशत लोग मानते हैं कि आपराधिक जांच के दौरान पुलिस एक गरीब व्यक्ति के उलट एक अमीर व्यक्ति का साथ देगी, 32 प्रतिशत को लगता है कि पुलिस एक दलित के उलट एक उच्च जाति का साथ देगी; 22 प्रतिशत को लगता है कि पुलिस एक आदिवासी के उलट एक गैर-आदिवासी का साथ देगी; और 20 प्रतिशत महसूस करते हैं कि पुलिस एक मुस्लिम के उलट एक हिंदू का साथ देगी.

तीन आम लोगों में से लगभग एक को बिना किसी कारण से पुलिस द्वारा पीटे जाने या पुलिस द्वारा गिरफ्तार या हिरासत में लिए जाने का डर है; हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों के 19% प्रतिशतलोगों में पुलिस का बहुत डर है.

अध्याय 5: पुलिस, अर्धसैनिक बल या सेना के बारे में धारणाएं

आम लोगों (60%) का एक महत्वपूर्ण बहुमत मानता है कि उनकी बचाव और सुरक्षा के लिए, उन्हें अर्धसैनिक / सेना से अधिक राज्य पुलिस की आवश्यकता है; आम लोग जो उस क्षेत्र में असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, उनके ऐसा मानने की संभावना अधिक है.

पांच में से दो लोगों (39%) का मानना है कि हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में पुलिस भ्रष्ट है, जबकि 20 प्रतिशत का मानना है कि ऐसे क्षेत्रों में अर्धसैनिक बल / सेना भ्रष्ट है.

अध्याय 6: एक हिंसा ग्रस्त क्षेत्र में पोस्टिंग: पुलिस और आम लोगों की राय

हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में स्वयं पुलिसकर्मी अपने लिए उस इलाके को जितना सुरक्षित मानते हैं, उससे अधिक वहां रहने वाले आम लोग उस इलाके को पुलिस के लिए सुरक्षित मानते हैं. उसी समय, आम लोग भी उस क्षेत्र को अपने स्वयं के रहने के लिए सुरक्षित मानते हैं, – 70 प्रतिशत मानते हैं कि यह क्षेत्र जीवन जीने के लिए बहुत सुरक्षित है.

आदिवासियों, विशेष रूप से वामपंथी अतिवाद प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को, रहने के लिए जगह को सुरक्षित मानने की संभावना कम है.

अधिकांश लोग (53%) मानते हैं कि क्षेत्र में विकास की कमी सबसे बड़ी समस्या है.

दो पुलिस कर्मियों में से लगभग एक (49%) को लगता है कि उनकी वर्तमान पोस्टिंग उनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है.

अध्याय 7: संघर्ष के बीच साधारण पुलिस

वामपंथी अतिवाद प्रभावित क्षेत्रों के पुलिस कर्मियों और आम लोगों का मानना है कि संघर्ष के कारण साधारण पुलिस सिस्टम प्रभावित होता है.

हिंदू उच्च जातियों और ओबीसी जातियों की पुलिस से संपर्क करने की अधिक संभावना थी, जबकि आदिवासियों को पुलिस द्वारा संपर्क किए जाने की अधिक संभावना थी.

अध्याय 8: बेहतर पुलिस सिस्टम सुनिश्चित करना: आगे का रास्ता

अधिकांश पुलिस कर्मियों (75%) और आम लोगों (63%) ने महसूस किया कि विकास के मुद्दे को गंभीरता से लेना और क्षेत्र में बेहतर सुविधाएं प्रदान करना संघर्ष को कम करने के लिए बहुत उपयोगी होगा.

दस पुलिस कर्मियों में से नौ का मानना ​​है कि पुलिस कर्मियों की संख्या बढ़ाना नक्सलवाद / उग्रवाद गतिविधियों को कम करने के लिए एक उपयोगी उपाय होगा, जबकि लगभग 75 प्रतिशत आम लोग इससे सहमत थे.

तीन में से एक से अधिक पुलिस कर्मियों (35%) को लगता है कि सरकार को पुलिस की कार्य स्थितियों में सुधार करना चाहिए. लगभग एक चौथाई ने यह भी कहा किसरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उन्हें संघर्ष स्थितियों को संभालनेमें सक्षम होने के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण और सुविधाएं मिलनी चाहिए.

अधिकतर पुलिसकर्मी यह मानते हैं कि अन्य जिलों के कर्मियों की तुलना में उसी जिले के कर्मचारी हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में अधिक प्रभावी हैं.

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यह रिपोर्ट एनएसएस के 76वें दौर (जुलाई – दिसम्बर 2018) के दौरान संचालित, भारत में दिव्यांगजनों के सर्वेक्षण पर आधारित है. दिव्यांगजनों के 76 वें दौर का सर्वेक्षण 8,992 एफएसयू (5,378 एफएसयू ग्रामीण क्षेत्रों में और 3,614 एफएसयू नगरीय क्षेत्रों में) फैला हुआ था, जिसमें 1,18,152 परिवार (81,004 ग्रामीण क्षेत्रों में और 37,148 नगरीय क्षेत्रों में) सम्मिलित थे, और इसमें 5,76,569 व्यक्तियों (4,02,589 ग्रामीण क्षेत्रों में और 1,73,980 नगरीय क्षेत्रों में) की परिगणना की गई. इस सर्वेक्षण में कुल 1,06,894 दिव्यांगजनों (74,946 ग्रामीण क्षेत्रों में और 31,948 नगरीय क्षेत्रों में) का सर्वे किया गया.

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी 76 वें दौर की [inside]एनएसएस रिपोर्ट संख्या 583: भारत में दिव्यांगजन, जुलाई 2018 से दिसंबर 2018 (नवंबर, 2019 में जारी)[/inside] के प्रमुख निष्कर्ष (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें) निम्नानुसार हैं:

दिव्यांगता की व्यापकता एवं आपतन:

• भारत में दिव्यांगता की व्यापकता (जनसंख्या में दिव्यांगजन का प्रतिशत) 2.2 प्रतिशत् था. यह ग्रामीण क्षेत्रों में 2.3 प्रतिशत् एवं शहरी क्षेत्रों में 2.0 प्रतिशत है.

• दिव्यांगता की व्यापकता पुरुषों में महिलाओं से अधिक थी. पुरुषों में दिव्यांगता की व्यापकता 2.4 प्रतिशत थी, जबकि महिलाओं में 1.9 प्रतिशत थी.

• जनसंख्या में दिव्यांगता का आपतन (उन दिव्यांगजनों की संख्या जिनमें दिव्यांगता जन्म से या किसी दूसरी वजह से थी) सर्वेक्षण की तारीख से पहले प्रति 1,00,000 व्यक्तियों में 86 था.

दिव्यांगजनों के बीच शिक्षा का स्तर

• 7 वर्ष और उससे अधिक आयु के दिव्यांगजनों में 52.2 प्रतिशत साक्षर थे.

• 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के 19.3 प्रतिशत दिव्यांगजनों का उच्चतम शैक्षिक स्तर माध्यमिक और उससे अधिक था.

• 3 से 35 वर्ष की आयु के दिव्यांगजनों में 10.1 प्रतिशत ने प्रीस्कूल इंटरवेंसन प्रोग्राम में भाग लिया था.

• 3 से 35 वर्ष की आयु के 62.9 प्रतिशत दिव्यांगजनों ने शिक्षा के लिए साधारण स्कूल में दाखिला लिया था.

• 3 से 35 वर्ष के दिव्यांगजन जो कि साधारण विद्यालयों में नहीं पढ़ रहे थे या साधारण विद्यालयों में दाखिल तो थे किन्तु वर्तमान में वहां पढ़ाई नहीं कर रहे थे, उनमे से 4.1 प्रतिशत विशेष विद्यालयों में दाखिल थे.

 रहन-सहन की व्यवस्था, देखभाल, सहायता/मदद प्राप्ती, दिव्यांगता प्रमाण पत्र:

• 3.7 प्रतिशत दिव्यांगजन अकेले ही रह रहे थे.

•  62.1 प्रतिशत दिव्यांगजनों के पास देखभाल करने वाला था, 0.3 प्रतिशत् दिव्यांगजन को देखभाल करने वालों की आवश्यकता थी किन्तु कोई उपलब्ध नहीं था और अन्य 37.7 प्रतिशत् दिव्यांगजन के लिए कोई भी देखभाल करने वालों की आवश्यकता नहीं थी.

•  21.8 प्रतिशत दिव्यांगजनों को सरकार से सहायता/मदद प्राप्त हुई, 1.8 प्रतिशत को सरकार के अलावा किसी अन्य संगठन से सहायता/मदद प्राप्त हुई और अन्य 76.4 प्रतिशत् दिव्यांगजनों को कोई सहायता/मदद प्राप्त नहीं हुई.

• 28.8 प्रतिशत दिव्यांगजनों के पास दिव्यांगता प्रमाण पत्र था.

15 वर्ष एवं उससे अधिक उम के दिव्यांगजनों (पीएस + एसएस) में श्रम बल भागीदारी दर, कामगार जनसंख्या अनुपात एवं बेरोजगारी दर:

• 15 वर्ष एवं उससे अधिक उम्र के दिव्यांगजनों में सामान्यत(पीएस + एसएस) श्रमबल भागीदारी दर 23.8 प्रतिशत थी.

• 15 वर्ष एवं उससे अधिक उम्र के दिव्यांगजनों में सामान्यत (पीएस + एसएस) कामगार जनसंख्या अनुपात 22.8 प्रतिशत था.

• 15 वर्ष एवं उससे अधिक उम के दिव्यांगजनों में सामान्यत बेरोजगारी दर (पीएस + एसएस) 4.2 प्रतिशत थी.

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कॉमन कॉज, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS), और लोकनीति ने मिलकर [inside]स्टेटस् ऑफ पोलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019: पुलिस एडेक्वेसी एंड वर्किंग कंडीशन्स[/inside] तैयार की है. इस रिपोर्ट का मकसद उन परिस्थितियों की जांच करना है जिनमें भारतीय पुलिस काम कर रही है और अपने संसाधनों, विचारों, अनुभवों और दृष्टिकोणों के कारण सुर्खियों में होती है. 

एसपीआईआर-2019 भारत और दक्षिण एशिया में अपनी तरह का पहला अध्ययन है, जिसमें पुलिस कर्मियों की कामकाजी परिस्थितियों और उनके परिवार के सदस्यों के विचारों, उनके लैंगिक और सामाजिक विविधता के खराब रिकॉर्ड, बुनियादी ढाँचे और दिन प्रतिदिन की पुलिसिंग के बारे में चित्रण किया गया है. यह पुलिसिंग और हाशिए के समुदायों के साथ-साथ जनता-पुलिस के संपर्क और पुलिस की हिंसा के बीच संबंधों का भी बारीक चित्रण है. पूरे भारत (20 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली) के पुलिस स्टेशनों में 11,834 पुलिस कर्मियों के सर्वे के साथ-साथ, अध्ययन में पुलिस कर्मियों के 10,535 परिवार के सदस्यों का उनके घरों में किया गया साक्षात्कार सर्वे भी शामिल है. 

समय और कई मापदंडों पर पुलिस बलों के प्रदर्शन के संकेतकों में सुधार या गिरावट की दर दिखाने के लिए पहली बार आधिकारिक आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है. पूरे भारत में विविधताओं को सामने लाने के लिए तुलनात्मक रूप से अध्ययन किया गया है. पुलिसिंग पदानुक्रम के सबसे निचले पायदान पर और विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि से पुरुषों और महिलाओं को विशेष रुप से शामिल किया है.

SPIR 2019 का लक्ष्य भारत में पुलिसिंग पर एक व्यापक डेटाबेस तैयार करना है. राज्य-वार प्रदर्शन में भिन्नताओं से राज्यों और उनके राजनीतिक नेतृत्व के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा.

स्टेटस ऑफ़ पोलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट, 2019 के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (देखने के लिए यहां क्लिक करें),

– पुलिस कर्मी दिन में औसतन 14 घंटे काम करते हैं, जिसमें लगभग 80 प्रतिशत आठ घंटे से अधिक काम करते हैं.

– दो कर्मियों में से एक को कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता है.

– नागालैंड को छोड़कर, 21 राज्यों में कर्मियों का औसत कार्य समय 11 से 18 घंटे के बीच है.

– लगभग दो कर्मियों में से एक नियमित रूप से ओवरटाइम काम करता है, जबकि 10 में से आठ कर्मियों को ओवरटाइम काम के लिए भुगतान नहीं किया जाता है.

– पिछले पांच वर्षों में, औसतन केवल 6.4 प्रतिशत पुलिस बल को इन-सर्विस ट्रेनिंग दी गई है. कांस्टेबल स्तर के कर्मियों की तुलना में वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को इन-सर्विस ट्रेनिंग मिलने की बहुत अधिक संभावना होती है.

– 22 राज्यों में, 70 पुलिस स्टेशनों में वायरलेस उपकरणों की सुविधा नहीं है, 224 पुलिस स्टेशनों में टेलीफोन की सुविधा नहीं है, और 24 पुलिस स्टेशनों में न तो वायरलेस और न ही टेलीफोन की सुविधा है.

– 12% प्रतिशत कर्मियों ने बताया कि उनके पुलिसस्टेशनों में पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है, 18 प्रतिशत नेकहा कि कोई साफ शौचालय नहीं है, और 14 प्रतिशत ने कहा कि जनता के लिए बैठने की जगह का कोई प्रावधान नहीं है.

– तीन सिविल पुलिस कर्मियों में से लगभग एक ने कभी फोरेंसिक तकनीक पर प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया.

– 22 राज्यों के लगभग 240 पुलिस स्टेशनों में वाहनों की सुविधा नहीं है.

– 46 प्रतिशत कर्मी अक्सर ऐसी स्थितियों से गुजरे हैं जब उन्हें सरकारी वाहन की आवश्यकता थी, लेकिन वाहन उपलब्ध नहीं था. इसके अलावा, 41 प्रतिशत कर्मियों ने अक्सर ऐसी स्थितियों का सामना किया है जब वे कर्मचारियों की कमी के कारण समय पर अपराध स्थल पर नहीं पहुंच सके.

– 28 प्रतिशत पुलिस कर्मियों का मानना है कि राजनेताओं का दबाव अपराध की जांच करने में सबसे बड़ी बाधा का काम करता है.

– 72 प्रतिशत पुलिस कर्मियों ने प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़े मामलों की जांच के दौरान राजनीतिक दबाव का अनुभव किया है.

– महिला कर्मियों के पुलिस स्टेशन के कार्य करने दिए जाने की संभावना अधिक होती है जैसे रजिस्टर, डेटा आदि को बनाए रखना, जबकि पुरुष कर्मियों के क्षेत्र-आधारित कार्यों जैसे गश्त, कानून और व्यवस्था कर्तव्यों, आदि दिए जाने की अधिक संभावना होती है.

– पांच महिला कर्मियों में से एक ने अपने पुलिस स्टेशन / कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए अलग शौचालय न होने की सूचना दी.

– चार महिला पुलिसकर्मियों में से एक ने कहा कि उनके पुलिस स्टेशन / अधिकार क्षेत्र में कोई यौन उत्पीड़न समिति नहीं थी.

– पांच में से दो पुलिस कर्मियों को लगता है कि 16 से 18 साल के कानून तोड़ने वाले बच्चों को वयस्क अपराधियों की तरह माना जाना चाहिए.

– 35 प्रतिशत पुलिस कर्मियों को लगता है (काफी हद तक और कुछ हद तक संयुक्त) कि गोहत्या के मामले में भीड़ द्वारा अपराधी को दंडित करना स्वाभाविक है.

– 54 प्रतिशत पुलिस कर्मियों की राय है कि दर्ज की गई एफआईआर की संख्या में वृद्धि से क्षेत्र में अपराध में वृद्धि का संकेत मिलता है.

– सिविल पुलिस के 60% सदस्य मानते हैं कि कोई भी अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो, सीधे एफआईआर दर्ज करने से पहले प्राथमिक जांच होनी चाहिए.

– एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को सामान्य पुलिस कर्मियों की तुलना में अधिकारी-रैंक पर भर्ती / तैनात किए जाने की संभावना कम है.

– पांच पुलिस कर्मियों में से एक को लगता है कि खतरनाक अपराधियों को मार देना कानूनी मुकदमे से बेहतर है.

– चार में से तीन कर्मियों को लगता है कि अपराधियों के प्रति पुलिस का हिंसक होना उचित है.

– पांच में से चार कर्मियों का मानना है कि अपराध कबूल करवाने के लिए पुलिस द्वारा अपराधियों को पीटे जाने में कुछ भी गलत नहीं है.

– 37 प्रतिशत कर्मियों को लगता है कि मामूली अपराधों के लिए, कानूनी मुकदमे के बजाय पुलिस द्वारा एक छोटी सी सजा दी जानी चाहिए.

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[inside]कॉमनकॉज और सीएसडीएस के लोकनीति प्रोग्राम द्वारा प्रस्तुत देश के प्रथम स्टेटस् ऑफ पोलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट (SPIR 2018)के मुख्य तथ्य[/inside] : 

मूल रिपोर्ट के लिए कृपया यहां क्लिक करें 

रिपोर्ट में देश के 22 राज्यों में विधि-व्यवस्था को सवालिया नजरों से परखा गया है और भारत में पुलिस-व्यवस्था की स्थितिका जायजा लेते हुए मूल्यांकन करने की कोशिश की गई है. रिपोर्ट पुलिस के कामकाज तथा इस कामकाज को लेकर लोगों में प्रचलित धारणा के बारे में है. इसके लिए रिपोर्ट में आधिकारिक आकड़ों का विश्लेषण किया गया है तथा लोगों में पुलिस के कामकाज को लेकर प्रचलित धारणा के बारे में एक व्यापक सर्वेक्षण का सहारा लिया गया है. रिपोर्ट में पुलिस की व्यवस्था से जुड़ी उन कमियों की भी चर्चा की गई है जिनके बारे में सीएजी(CAG)ने बार बार अपनी रिपोर्टों में आगाह किया है और जो देश में तकरीबन हर राज्य में नजर आती हैं.

 

—    सर्वक्षण में शामिल तकरीबन 82 फीसद उत्तरदाताओं का कहना था कि पिछले 4-5 साल की अवधि में उनका पुलिस से कोई संपर्क नहीं हुआ है.

 

— सर्वेक्षण में शामिल जिन उत्तरदाताओं ने कहा कि उनका पुलिस से संपर्क हुआ है उनमें से 67 फीसद तादाद ऐसे लोगों की थी जिन्होंने खुद पुलिस से संपर्क किया था. ऐसे केवल 17 फीसद मामलों में संपर्क पुलिस के द्वारा किया गया. 

 

— जिन मामलों में संपर्क पुलिस की तरफ से किया गया उनमें सर्वाधिक तादाद(27 फीसद) आदिवासी समुदाय से जुड़े व्यक्तियों की थी. इसके बाद मुस्लिम (21 प्रतिशत), ओबीसी (17 प्रतिशत, दलित (16 प्रतिशत तथा अगड़ी जाति(13 प्रतिशत) का नंबर है. 

 

— पुलिस से खुद संपर्क करने के मामलों में सबसे आगे (74 प्रतिशत) धनी व्यक्ति हैं जबकि पुलिस ने जिन मामलों में अपनी तरफ से संपर्क किया उनमें गरीब सबसे ज्यादा(21 प्रतिशत) हैं. धनी व्यक्ति (12 प्रतिशत) की अपेक्षा गरीब व्यक्ति (21 प्रतिशत) से पुलिस के संपर्क साधने की संभावना तकरीबन दोगुनी ज्यादा है.  

 

— सर्वेक्षण  में शामिल 44 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उन्हें पुलिस और उसकी प्रताड़ना का बहुत ज्यादा डर है. 

 

— जहां तक धार्मिक समुदायों का सवाल है सिख(मुख्य रुप से पजाब) समुदाय में पुलिस का खौफ ज्यादा है. सर्वेक्षण में इस समुदाय के 37 फीसद लोगों ने कहा कि उन्हें पुलिस से बहुत ज्यादा डर लगता है.(यह राष्ट्रीय औसत का दोगुना है)

 

— सर्वेक्षण में शामिल ज्यादातर (51 प्रतिशत) लोगों ने कहा कि पुलिस वर्गीय आधार पर भेदभाव करती है, लिंग के आधार पर पुलिस द्वारा भेदभाव करने की बात सर्वेक्षण में शामिल तकरीबन 30 फीसद लोगों ने कही. पुलिस के जाति के आधार पर भेदभाव करने की बात कहने वालों की तादाद सर्वेक्षण में 26 प्रतिशत रही जबकि धार्मिक आधार पर पुलिस के भेदभाव भरे बरताव की बात 19 प्रतिशत लोगों ने कही.

 

 — सर्वेक्षण में शामिल 38 फीसद उत्तरदाता इस बात से सहमत थे कि पुलिस दलित समुदाय के लोगों को झूठे मामलों में फंसाती है, 28 फीसद उत्तरदाताओं ने कहा कि आदिवासियों पर माओवादी होने के आरोप मढ़ते हुए उन्हें झूठे मामलों में फंसाया जाता है तथा 27 फीसद उत्तरदाताओं ने कहा कि मुसलमानों को आतंकवाद के आरोप मढ़कर झूठे मामलों में फंसाया जाता है. 

 

— अगर पूरे पांच साल की अवधि के औसत को आधार माने तो चुनिन्दा 22 राज्यों में से केवल 3 राज्य(पंजाब, उत्तराखंड, दिल्ली) ऐसे हैं जिनमें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पुलिस के पदों परबहाली हुई. अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित पुलिस के कुल पदों पर बहाली करनेमें सिर्फ छह राज्य( बिहार, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, नगालैंड, तेलंगाना, उत्तराखंड) कामयाब हुए. केवल नौ राज्य (आंध्रप्रदेश, असम, झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओड़ीशा, पंजाब, तेलंगाना, उत्तराखंड) ऐसे हैं जिनमें ओबीसी श्रेणी के अंतर्गत आरक्षित पुलिस के कुल पदों पर बहाली हुई. कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जहां महिलाओं के लिए आरक्षित पुलिस के 33 प्रतिशत पदों पर पूर्ण बहाली हुई हो.

 

सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट के मुख्य तथ्यों का विश्लेषण:

 

• स्टॉफ क्वार्टर की कमी का मामला गंभीर है. असम के कुछ चुनिन्दा जिलों में स्टॉफ क्वार्टर की कमी का अनुपात 99 प्रतिशत, बिहार में 80 प्रतिशत तथा हिमाचल में 88 प्रतिशत है.

 

• मध्यप्रदेश में 50 महिला पुलिस-कर्मियों में 48 ने कहा कि उन्हें असुविधा( समुचित टॉयलेट का ना होना, बैठने-सुस्ताने तथा काम करने की उचित जगह का ना होना) होती है. 

 

• पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए उपलब्ध फंड के इस्तेमाल ना होने का मामला भी बहुत गंभीर है. बिहार में इस श्रेणी के उपलब्ध फंड का 71 फीसद हिस्सा इस्तेमाल ना हो सका, यूपी में इस श्रेणी के इस्तेमाल ना हुए फंड की मात्रा 41 प्रतिशत तथा असम में 32 प्रतिशत है. 

 

• उत्तरप्रदेश ने प्रशिक्षण सामग्री के मद में उपलब्ध कराये गए 80 फीसद फंड खर्च नहीं किए, लौटा दिए. 

 

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[inside]पीआरएस द्वारा प्रस्तुत नवीनतम आंकड़ों के अनुसार[/inside]-

http://www.prsindia.org/administrator/uploads/general/1251796330~~Vital%20Stats%20-%20Pendency%20of%20Cases%20in%

• साल 2009 के जुलाई महीने के अंत तक देश के सर्वोच्च न्यायालय में ५३००० हजार मुकदमे निबटारे की बाट जोह रहे थे।

• देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में साल २००९ के जुलाई तक ४० लाख मुकदमों पर फैसला सुनाया जाना बाकी था जबकि निचली अदालतों में लंबित मुकदमों की तादाद २.७ करोड़ है।

• अगर साल २००० के जनवरी महीने को आधार माने तो सुप्रीम कोर्ट, उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में लंबित पड़े मुकदमों की संख्या में क्रमशः १३९ फीसदी, ४६ फीसदी और ३२ फीसदी का इजाफा हुआ है।

• गौरतलब है कि देश के विभिन्न जेलों में कैद कुल ७० फीसदी व्यक्ति विचाराधीन कैदी की श्रेणी में आते हैं  और इतनी बड़ी तादाद में मुकदमों के लंबित रहने का मामले खास इस कारण भी संगीन है ।

• जिस गति से मुकदमों का निपटारा होता है उससे कहीं ज्यादा तेज गति से नये मुकदमों अदालत में दाखिले का दरवाजा खटखटाते हैं।

• एक रोचक तथ्य है कि पिछले एक दशक में हर साल निपटाये जाने वाले मुकदमों की तादाद बढ़ी है लेकिन मुकदमों के निपटारे के बावजूद नए मुकदमों के दाखिल होने की रफ्तार कहीं ज्यादा तेज है।

• साल २००८ में निचली अदालतों ने १.५४ करोड़ मुकदमों का फैसला सुनाया। एक दशक पहले यानी साल १९९९ में निचली अदालतों में निपटाये गए मुकदमों की तादाद इससे कहीं कम (१.२४ करोड़) थी और इस तरह देखें तो एक दशक के अंदर निपटाये गए मुकदमों की संख्या में कुल ३० लाख का इजाफा हुआ मगर साल २००८ में अदालतों में १.६४ करोड़ नए मुकदमे आ जमे।

• एक दशक पहले यानी साल १९९९ में अदालतों में दाखिल नये मुकदमों की संख्या इससे ३७ लाख कम थी। उस साल अदालतों में कुल १.२७ करोड़ नए मुकदमे दर्ज हुए थे।

• लंबित मुकदमों की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन अदालतोंमें न्यायाधीश सहित अन्य खाली पड़े पदों को भरने का कोई खास प्रयास नहीं किया जा रहा है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के अनुसार देश के विभिन्न अदालतों में न्यायाधीश के कुल १७ फीसदी पद बरसों से खाली हैं।

• अगर सुप्रीम कोर्ट में कोई नया मुकदमा दाखिल नहीं हो और जजों का तादाद भी ना बढ़े तब भी उसे अपने यहां लंबित पड़े मुकदमों को मौजूदा गति से निपटाने में कुल नौ महीने लग जायेंगे।

• देश के उच्च न्यायालयों को नये मामले ना दाखिल होने की शर्त पर मौजूदा जज-संख्या के साथ सारे मुकदमों को निपटाने में दो साल सात महीने लगेंगे और निचली अदालतों को १ साल ९ महीने।

• देश की अदालतों में ना तो जरुरत के हिसाब से जजों की संख्या प्रयाप्त है और ना ही जजों की संख्या को जनसंख्या के अनुपात के लिहाज से उचित कहा जा सकता है।

• फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या तय सीमा से २३ फीसदी कम है। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के २६ फीसदी पद खाली हैं और निचली अदालतों में १८ फीसदी।

• इलाहाबाद हाईकोर्ट की दशा इस मामले में सबसे ज्यादा खराब है। वहीं जजों के ४५ फीसदी पद खाली पड़े हैं।

• साल १९८७ में विधि आयोग ने अनुशंसा की थी कि देश में १० लाख की आबादी पर जजों की संख्या १०.५ है और इसे जल्दी से जल्दी बढ़ाकर ५० कर देना चाहिए। विधि आयोग का सुझाव था कि साल २००० तक दस लाख की जनसंख्या पर देश में जजों की संख्या १०० होनी चाहिए।

• इस सुझाव पर संसद की स्थायी समित ने फरवरी २००२ में मंजूरी की मुहर लगायी थी। जहां तक विकसित मुल्कों का सवाल है भारत में फिलहाल प्रति दस लाख जनसंख्या पर जजों की संख्या १२.५ है जबकि अमेरिका में साल १९९९ में प्रति दस लाख जनसंख्या पर जजों की संख्या १०४ थी।

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कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइटस् इनिशिएटिव(2005)- [inside]पुलिस एकाउंटेबेलिटी- टू इम्पोर्टेंट टू नेगलेट, टू अर्जेन्ट टू डिले[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार- http://www.humanrightsinitiative.org/publications/chogm/chogm_2005/chogm_2005_full_report.pdf

 
• हिन्दुस्तान में उपरले स्तर की न्यायपालिका में समाज के अभिजन तबके का बाहुल्य है। उपरले स्तर के न्यायाधीशों की नियुक्ति में उनके द्वारा सरकार के पक्षपोषण में दिए गए फैसलों का बड़ा हाथ होता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है।

 • हिन्दुस्तान की पुलिस तादाद के लिहाज से दुनिया के चंद बड़े पुलिसबलों में एक है लेकिन इसमें महिलाओं की तादाद 2.2 फीसदी है।

 • पूरे भारतवर्ष में महिलाओं पर बड़े पैमाने पर हिंसाचार होता है लेकिन इससे संबंधित मुकदमों या फिर ऐसे अपराध रोकने की कार्रवाई पर सामाजिक रुढछवियां और पुरुष वर्चस्व की छाया होती है।

 • मामला घरेलू हिंसा की शिकार महिला का हो तो उसे खास तवज्जो नहीं दी जाती। इससे संबंधित कानून होने के बावजूद महिला को पुलिस जरुरी मदद नहीं पहुंचाती।

 • भारत भी उन देशों में से एक है जहां डीजीपी स्तर के अधिकारी की नियुक्ति में भाई-भतीजावाद की चलती है। सूबे के मुख्यमंत्री अपने पसंदीदा व्यक्ति को चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता के अभाव में मनमाने ढंग से चुन लेतेहैं।सेवाकालीन वरिष्ठता या फिर गुणवत्ता की उपेक्षा होती है।

• भारत में एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगहै और फिर राज्यों के भी अपने मानवाधिकार आयोग हैं लेकिन कुल 35 किस्म के पुलिसबल की ज्यादती पर निगाह रखने के लिए यहां एक भी सविलियन संस्थायी व्यवस्था मौजूद नहीं है।

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[inside]द एक्सेस टू जस्टिस, प्रैक्टिस नोटस्[/inside], यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम-यूएनडीपी(2004) के नामक दस्तावेज के अनुसार-

न्यायिक सेवा हासिल करने वालों के पक्ष से देखें तो भारत में न्याय व्यवस्था निम्नलिखित कारणों से कमजोर है-

 
1. बहुत देरी से मिलता है न्याय, न्यायिक सेवा हासिल करने में खर्चे ज्यादा लगते हैं। इससे हर पीड़ित उसे हासिल नहीं कर पाता।सत्ता का दुरुपयोग।इसके परिणाम जबरिया जामातलाशी, कुर्की जब्ती, नजरबंदी और गिरप्तारी के रुप में नजर आता है। अदालती फैसलों पर अमल बड़ी मशक्कत के बाद हो पाता है।

2. विधि व्यवस्था भेदभावमुक्त नहीं है और वह समय रहते पीड़ित को अत्याचार से बचाने के उपाय नहीं प्रदान कर पाती।
 

3. विधि व्यवस्था में लैंगिक तथा जातिगत पूर्वग्रह काम करते हैं। बच्चे, महिलायें, वंचित तबके के लोग और गरीब इसी कारण आसानी से न्याय हासिल नहीं कर पाते।निरक्षर और शारीरिक रुप से अक्षमता के शिकार लोगों को भी प्रभावकारी ढंग से इंसाफ नहीं मिल पाता।

4. बंदीगृह में बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा का अभाव।

5. कानूनी बारिकियों सहित कानून द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बारे में जानकारी का अभाव।

6. पीडित को जरुरत के समय पर्याप्त विधिक सहायता ना मिल पाना।

7. सुधार के कार्यक्रमों में जन-भागीदारी की कमी।

8. कानूनों का बाहुल्य।

9. कानूनी प्रक्रिया में औपचारिकता की भरमार और खर्चे की अधिकता।

10.लोगों का हताशा में यह सोचना कि कुछ नहीं हो सकता या फिर आर्थिक कारणों या भय-भावना के कारण विधिक अदालती व्यवस्था के प्रति उत्साहित ना रहना।

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विनायक सेन का मामला

(बिजनेस स्टैन्डर्ड, द हिन्दू आदि समाचार पत्र)

• नागरिक अधिकारों के लिए सक्रिय बिनायक सेन ने 14 मई 2009 को विचाराधीन कैदी के रुप में जेल में दो साल पूरे किए। उन पर नक्सलवादियों (छत्तीसगढ़) के मददगार होने का आरोप लगाया गया था।

 

• बिनायक सेन और उनकी पत्नी इलीना सेन ने अपना सारा जीवन समाज के वंचित तबके, गरीब और आदिवासियों के बीच स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने में लगाया है। सेन की गिरफ्तारी के बाद यह कार्य रुका और उनकी क्लीनिक तहस नहस हो गई।

 

.• सुप्रीम कोर्ट से बिनायक सेन को 25 मई 2009 के दिन जमानत मिली। पीयूसीएल के उपाध्यक्ष श्री सेन को मई 2007 से अनलॉफुल एक्टिविटी(प्रीवेंशन) एक्ट के तहत नक्सलवादियों का मददगार होने का आरोप लगाकर नजरबंद रखा गया था। उन पर छत्तीसगढ़ पब्लिक सिक्युरिटी एक्ट, 2005 की धारायें भी मढ़ी गईं। दोनों कानून नागरिक स्वतंत्रता का हनन करते हैं।

 

• बिनायक सेन को समाज सेवा के लिए कई अवार्ड मिल चुके हैं। इसमें जोनाथन मॉन अवार्ड ऑव ग्लोबल हेल्थ एंड ह्यूमन राइटस् भी शामिल है.

 

ईरोम शर्मिला का मामला

(विविध समाचार पत्र)

• साल 2009 के नवंबर में इरोम चानू शर्मिला के आमरण अनशन के ठीक नौ साल पूरे हो गए।शर्मिला लगातार नौ सालों से आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट के विरोध में भूख हड़ताल पर है।  वह फिलहाल इंफाल के जे एन इंस्टीट्युट ऑव मेडिकल साईंसेज के सिक्टुरिटी वार्ड में बंदी है।

 

• उसपर आत्महत्या की कोशिश करने का आरोप है।

 

• पिछले सितंबर में शर्मिला को इंफाल के किमनेईंगनाग स्थितएडीशनल चीफ मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो उसकी न्यायिक हिरासत की अवधि अदालत ने दोबारा 15 दिनों के लिए बढ़ा दी ।

 

• अदालत में पेश किए जाने और रिमांड पर लिए जाने का यह सिलसिला शर्मिला के साथ पिछले नौ सालों से बदस्तूर जारी है।

 

• आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट की बेरहमी से शर्मिला के सामना आज से नौ साल पहले 2002 के 2 नवंबर को हुआ था। एक दिन पहले यानी 1 नवंबर 2000 के दिन मणिपुर में सक्रिय एक उग्रवादी धड़े ने सेना के एक दस्ते पर बम पर फेंका था।बदले की कार्रवाई पर उतारु 8 वीं असम राईफल्स के जवानों ने मलोम स्थित एक बस स्टैंड पर अंधाधुंध फायरिंग की। अगले दिन मणिपुर के अखबारों में हताहतों की हृदयविदारक तस्वीरें छपीं ।

 

• इस घटना का शर्मिला पर गहरा असर पडा और 4 नंवबर 2000 के दिन से वह सेना को विशेषाधिकार देने वाले इस खास कानून के विरोध में आमरण अनशन पर बैठ गई।

 

• मानवाधिकार संगठनों की मानें तो  आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर) एक्ट(1958) पिछले 45 सालों में भारतीय संसद द्वारा पास किया गया सबसे क्रूर कानून है।

 

• आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावरस्) एक्ट (1958) का पहला प्रयोग असम और मणिपुर में हुआ।

 

• साल 1972 के संशोधन के बाद इसे पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्यों पर लागू किया गया। इस कानून के द्वारा फौजों को उपद्रवग्रस्त घोषित इलाकों में अपना ऑपरेशन मनमाने तरीके से चलाने की अकूत ताकत दी गई है ।

 

• यह कानून एक गैर-कमीशंड अधिकारी तक को शक के आधार पर या कानून व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर जबरिया तलाशी ही नहीं किसी पर भी गोली चलाने का अधिकार देता है।यह कानून कई कोणों से न्यायभावना के विरूद्ध है।

 

• मिसाल के लिए इस कानून में यह नहीं बताया गया कि किन परिस्थितयों की मौजूदगी हो तो किसी इलाके को उपद्रवग्रस्त माना जाय। बस इतना कहा गया गया है कि अधिकारी वर्ग को लगना चाहिए कि किसी इलाके में हालात इतने बिगड़ उठें हैं कि सैन्य बल की तैनाती के बिना कानून-व्यवस्था नहीं बहाल की जा सकती।

 

• इस परिभाषा की अस्पष्टता को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट में इंद्रजीत बरुआ बनाम असम सरकार नाम का एक मुकदमा चला था। अदालत ने तब गोलमटोल फैसला सुनाया कि परिभाषा की अस्पष्टता कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि सरकार और भारतीय जनता इसका आशय बखूबी समझती है।

 

• इस कानून को लेकर एक दफे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी भारत की किरकिरी हुई है।  1991 में भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ की मानवाधिकार समिति के सामने अपनी दूसरी रिपोर्ट पेश की तो समिति के सदस्यों ने स्पेशल एक्ट की वैधता पर सवाल उठाये और पूछा कि इस कानून को भारतीय कानूनों की न्यायभावना के विपरीत क्यों ना माना जाय।

 

ललित मेहता की हत्या

(स्रोत- राइट टू फूड इंडिया)

• विकास सहयोग केंद्र( पलामू जिला ) के सदस्य ललित मेहता की 14 मई 2008 के दिन बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी गई। श्री मेहता इस दिन मोटरसाइकिल से डाल्टेनगंज से छत्तरपुर लौट रहे थे।

 

• ललित मेहता(उम्र 36 साल), भोजन का अधिकार अभियानऔर ग्राम स्वराज अभियान के सक्रिय सहयोगी थे। वे भोजन और काम के अधिकार को लेकरपिछले पंद्रह वर्षों से इलाके में कार्य कर रहे थे।स्वभाव से अति विनम्र श्री मेहता के कार्यों की इलाके में खूब सराहना हो रही थी। भ्रष्टाचार की पोल खोलने, शोषण के खिलाफ आवाज उठाने और निहित स्वार्थों से टकराने में श्री मेहता ने अद्भुत साहस का परिचय दिया था।

 
• जिन दिनों श्री मेहता की हत्या हुई उन दिनों वे नरेगा के कामों के सामाजिक अंकेक्षण के लिए पलामू जिले के छत्तरपुर और चैनपुर प्रखंड में दिल्ली से आये स्वयंसेवकों की टोली की रहबरी कर थे।

 
 

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