घटती आमदनी

खास बात

 

दिहाड़ी मजदूरों सहित हर श्रेणी के कामगार के मेहनताने की बढोतरी दर साल 1983-1993 की तुलना में 1993-94 से 2004-05 के बीच घटी है। #

साल 1983 से 1993-94 के बीच रोजगार की बढ़ोतरी की दर 2.03 फीसदी थी जो साल 1993-94 से 2004-05 के बीच घटकर 1.85 हो गई। साल 1993-94 से 2004-05 के बीच कामगारों के मेहनताने की बढ़ोतरी दर और आमदनी में भी पिछले दशक की तुलना में ठीक इसी तरह कमी आई।

साल 1993-94 और 2004-05 के बीच खेतिहर मजदूरी का स्तर बहुत कम रहा है और इस पूरे दशक में इनकी बढ़ोतरी की दर कम हुई है।*.

सीमांत किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी बड़े किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी से बीस गुना कम है। *

जिन किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है वे अपने परिवार का गुजारा खेती से होने वाली आमदनी के सहारे नहीं कर पा रहे। *

ग्रामीण इलाके की महिलाओं को मिलने वाली मजदूरी ग्रामीण इलाके के पुरुषों को मिलने वली मजदूरी से 58 फीसदी कम है। **

शहरी इलाकों की महिलाओं को शहरी पुरुषों की तुलना में 30 फीसदी कम मेहनताना मिलता है। **

ग्रामीण इलाके के पुरुषों को शहरी इलाके के पुरुषों की तुलना में 48 फीसदी कम मेहनताना हासिल होता है। **

# द चैलेंजेज ऑव एमप्लायमेंट इन इंडिया-एन् इन्फॉरमल इकॉनॉमिक पर्सपेक्टिव, खंड-एक, मुख्य रिपोर्ट, नेशनल कमीशन फॉर इन्टरप्राइजेज इन द अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर(एनसीईयूएस)अप्रैल,2009

* नेशनल कमीशन फॉर इन्टरप्राइजेज इन द अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर(एनसीईयूएस-2007), रिपोर्ट ऑन द कंडीशन ऑव वर्क एंड प्रमोशन ऑव लाइवलीहुड इन द अन-आर्गनाइज्ड सेक्टर ।

** इम्पलॉयमेंट एंड अन-इम्पलॉयमेंट सिचुएशन इन इंडिया 2005-06, नेशनल सैम्पल सर्वे,62 वां दौर।

 

एक नजर

हिन्दुस्तानी के गांवों में जाइए तो बहुत संभव है जो आदमी आपको सबसे गरीब दिखाई दे वह या तो दलित होगा या फिर आदिवासी।वह या तो भूमिहीन होगा या फिर उसके पास नाम मात्र के लिए थोड़ी जमीन होगी। गंवई इलाकों के ज्यादातर गरीब लोग ऐसे खेतिहर इलाकों में रहते हैं जो आज भी सिंचाई के लिए बारिश के पानी के आसरे है।ऐसे इलाकों में उन्हें ना तो बिजली की सुविधा हासिल है और ना ही बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं तक ही उनकी पहुंच बन पायी है। रोजगार का कोई वैकल्पिक जरिया भी मय्यसर नहीं है।भुखमरी की हालत से बचने के लिए लाखों लोग दूर-दराज पलायन करने पर मजबूर होते हैं। शुष्क या फिर कम नमी वाले इलाकों में तो हालत और भी गंभीर है। ऐसे इलाकों में जब ना तबसूखा पड़ना एक सामान्य सी बात है और ऐसे इलाकों में खेती से होने वाली वास्तविक आय लगातार कमती जा रही है।एक तो आमदनी कम उसपर सितम बढ़ती हुई बेरोजगारी और खस्ताहाल बुनियादी सेवाओं मसलन-स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा, पेयजल और साफ-सफाई का। सूरते हाल ऐसे में काफी गंभीर हो जाती है।(अगर नरेगा के अन्तर्गत हासिल रोजगार को छोड़ दें तो 15 साल से ज्यादा उम्र के केवल 5 फीसदी लोगों को ही सरकारी हाथ से कराये जा रहे कामों में रोजगार हासिल है) राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों से जाहिर होता है कि गंवई इलाकों में नकदी रोजगार बड़ा सीमित है। आश्चर्य नहीं कि साल 1983 में ग्रामीण पुरुषों में 61 फीसदी स्वरोजगार में लगे थे लेकिन साल 2006 में यह अनुपात घटकर 57 फीसदी हो गया।

बैकग्राऊंडर के इस खंड में जिन रिपोर्टों और आंकड़ों को उद्धृत किया गया है उससे पता चलता है कि ग्रामीण इलाकों में लोगों की आमदनी सालदर-साल कम हो रही है।भारत में खेती आज घाटे का सौदा है।ग्रामीण इलाके का कोई सीमांत कृषक परिवार खेती में जितने घंटे की मेहनत खपाता है अगर हम उन घंटों का हिसाब रखकर उससे होने वाली आमदनी की तुलना करें तो आसार इस फैसले पर पहुंचने के ज्यादा होंगे कि इस परिवार को तो एक लिहाज से न्यूनतम मजदूरी भी हासिल नहीं हो रही है। एनसीईयूस (2007) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 40 फीसदी किसानों का गुजारा खेती से होने वाली आमदनी भर से नहीं तल पाता और उन्हें अपने भरण-पोषण के लिए दिहाड़ी मजदूरी भी करनी पड़ती है, खेती से ऐसे किसान परिवारों को कुल आमदनी का 46 फीसदी हिस्सा ही हासिल हो पाता है।इन सबके बावजूद सीमांत किसान शायद ही दो जून की भरपेट रोटी, तन ढंकने को कपड़ा और सर पर धूप-बारिश झेल सकने लायक छत जुटा पाता है।

जिन किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम की जमीन है वे अपने परिवार की बुनियादी जरुरतों को भी पूरी कर पाने में असमर्थ हैं। एनसीईयूएस की रिपोर्ट के मुताबिक एक किसान परिवार का औसत मासिक खर्च 2770 रुपये है जबकि खेती सहित अन्य सारे स्रोतों से उसे औसतन मासिक 2115 रुपये हासिल होते हैं, जिसमें दिहाड़ी मजदूरी भी शामिल है यानी किसान परिवार का औसत मासिक खर्च उसकी मासिक आमदनी से लगभग 25 फीसदी ज्यादा है। यही कारण है कि ग्रामीण इलाकों में बहुत से परिवार कर्ज के बोझ तले दबे है।

**page**

‘वर्किंग पीपलस् कोअलिसन’ ऐसे संगठनों का नेटवर्क है जो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों से संबंधित मुद्दों पर काम करते हैं. इस संगठन ने दिल्ली के असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर एक रिपोर्ट जारी की है. वर्ष 2015 में दिल्ली सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय को लागू करते हुए न्यूनतम वेतन को लागू करने की घोषणा की थी यह रिपोर्ट इसी घोषणा की सच्चाई का पड़ताल करती है.

[inside] एक्सेसिंग मिनिममवेजेस;एविडेंस फ्रॉम दिल्ली (4 जुलाई,2022 को जारी) [/inside] नामक रिपोर्ट (पूरी रिपोर्ट यहाँ से पढ़िए ) बताती है कि दिल्ली सरकार के उस निर्णय का कैसे धड़ल्ले से उल्लंघन हो रहा है.

क्या है रिपोर्ट के मुख्य बिंदु
1. इस रिपोर्ट में कुल 1076 लोगों से बातचीत की गई. जिसमें 50% से अधिक पुरुष थे जो अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हैं वहीं महिलाएं मुख्यतः घरेलू और निर्माण कार्यों में संलग्न है.
2. सर्वे में शामिल दो तिहाई मजदूर युवा आबादी से है. जो अपने रोजगार के लिए असंगठित क्षेत्र में गोता लगा रहे हैं.
3. करीब 60% मजदूर केवल प्राथमिक शिक्षा प्राप्त किए हुए हैं. शिक्षा का यह स्तर उनके लिए रोजगार के अवसर व गतिशीलता को तय करता है.
4. 64% के करीब मजदूर प्रवासी थे जो रोजगार की खोज में अपने घरों से यहां आए थे. इनमें भी 8% ऐसे मजदूर शामिल हैं जिन्हें ‘सीजनल इंडस्ट्री’ अपनी मांग को पूरा करने के लिए बुलाती है.
5. अधिकतर मजदूर कम मजदूरी के साथ, कम उत्पादकता वाले क्षेत्र में काम कर रहे हैं.
6. केवल 5% मजदूर निर्धारित न्यूनतम वेतन प्राप्त कर रहे हैं. वहीं 95% मजदूर उसी मजदूरी पर काम कर रहे थे जो उनके ठेकेदार ने तय कर रखी है.
7. सर्वे में यह पाया कि 95% मजदूरों के पास आवश्यक कौशल होने के बावजूद उन्हें दिल्ली सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन से दूर खड़ा रखा गया.
8. दो तिहाई मजदूरों को उनके अधिकार पर और, ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.
9. 98% मजदूरों को वेतन प्राप्त होने पर भुगतान की रसीद भी प्राप्त नहीं होती है.
10. 75% से अधिक मजदूरों का कार्यक्षेत्र आवश्यक सुविधाओं से वंचित हैं साथ ही असुरक्षित पर्यावरण में काम करने के लिए मजबूर हैं.
11. मजदूर निम्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं-40% मजदूर घरेलु कामों में.
     16% मजदूर औधियोगिक कामों में.
     33% निर्माण कार्यों में.
     11% सिक्यूरिटी के कामों में.

**page**

एनएसएस के 68 वें दौर की गणना पर आधारित रिपोर्ट [inside]लेवल एंड पैटर्न ऑफ कंज्यूमर एक्सपेंडिचर 2011-12(प्रकाशित 2014 की फरवरी)[/inside] के अनुसार- 
http://mospi.nic.in/Mospi_New/upload/nss_rep_555.pdf

(यह रिपोर्ट पूरे देश के 7469 गांव और 5268 शहरी खंड से हासिल सूचनाओं पर आधारित है। उपभोक्ता व्यय पर सूचना एकत्र करने के लिए दो अलग-अलग सूचियां तैयार की गईं और पहली सूची में 101662 परिवारों से तथा दूसरी सूची में 101651 परिवारों से जानकारी हासिल की गई)

रिपोर्ट के अनुसार 2011-12 में ग्रामीण भारत में प्रतिव्यक्ति औसत मासिक उपभोक्ता व्यय 1430 रुपये और शहरी भारत में 2630 रुपये का है। दोनों के बीच में 84 प्रतिशत का अन्तर है।

— 5 प्रतिशत निर्धनतम ग्रामीण जनता का प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय 521 रुपये था। 5 प्रतिशत निर्धनतम नगरीय जनता का प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय 700 रुपये था।

एमपीसीई(मंथली पर कैपिटा एक्सपेंडिचर)अर्थात प्रतिव्यक्ति मासिक व्यय के लिए बनाए गए स्तरों में ग्रामीण आबादी के ऊपरले यानी समृद्धतम 5 प्रतिशत हिस्से का प्रतिव्यक्ति औसत मासिक व्यय 4481 रुपये था। यह राशि निर्धनतम 5 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के एमपीसीई की तुलना में 8.6 गुणा ज्यादा है।

नगरीय आबादी के ऊपरले यानी समृद्धतम 5 प्रतिशत हिस्से का प्रतिव्यक्ति औसत मासिक व्यय 10282 रुपये था। यह राशि नगरीय आबादी के निर्धनतम 5 प्रतिशत आबादी के एमपीसीई की तुलना में 14.7 गुना ज्यादा है।

प्रमुख राज्यों के बीच केरल ग्रामीण एमपीसीई के मामले में सबसे आगे(2669 रुपये) रहा। इसके बाद पंजाब(2345 रुपये) और हरियाणा(2176 रुपये) थे। अन्य सभी प्रमुख राज्यों का औसत एमपीसीई 1000 रुपये से लेकर 1760 रुपये के बीच पाया गया।

उड़ीसा और झारखंड के ग्रामीण हिस्से में सबसे कम औसत एमपीसीई(1000 रुपये) पाया गया जबकि छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाके में औसत एमपीसीई 1030 रुपये पाया गया। बिहार, मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों औसत एमपीसीई 1120 रुपये से लेकर 1160 रुपये के बीच पाया गया।

नगरीय क्षेत्र में सर्वोच्च एमपीसीई(3817 रुपये) वाला राज्य हरियाणा रहा। इसके बाद, इस मामले में केरल(3408 रुपये) एवं महाराष्ट्र(3189 रुपये) का औसत एमपीसीई नगरीय क्षेत्रों के लिए अन्य राज्यों की तुलना में ऊंचा पाया गया।

बिहार को छोड़कर (नगरीय एमपीसीई 1507 रुपये) किसी भी प्रमुख राज्य का नगरीय एमपीसीई 1860 रुपये से कम नहीं था।

पंजाब के औसत ग्रामीण एमपीसीई से वहां के नगरीय खंडों का औसत एमपीसीई 19 फीसदी अधिक था जबकि केरल में यह 28 फीसदी तथा बिहार में 34 प्रतिशत अधिक था। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल, झारखंड एवं महाराष्ट्र में नगरीय औसत ग्रामीण औसत से करीब दोगुना ज्यादा था।

समान संदर्भ अवधि द्वारा मापा गया वास्तविक एमपीसीई 1993-94 से 2011-12 यानी 18 साल की अवधि में ग्रामीण भारत में 38 प्रतिशत तथा शहरी भारत में 51 प्रतिशत बढ़ा है।

गुजरात, राजस्थान एवं तमिलनाडु में औसत एमपीसीई नगरीय क्षेत्र में अखिल भारतीय औसत से कम था, किन्तु ग्रामीण क्षेत्र में नहीं।

भारत के ग्रामीण परिवारों का 2011 के दौरान कुल-व्यय में खाद्य-पदार्थों के उपभोग पर किए गए व्यय का हिस्सा 53 प्रतिशत था। इसमें अनाज एवं उसके स्थानापन्न पर 10.8 प्रतिशत, 8 प्रतिशत दूध और दूध से बनी चीजों पर और 6 प्रतिशत खर्च सब्जियों पर हुआ। अखाद्य मद वर्ग में खाना बनानेके इंधनऔर रोशनी का भाग 8 प्रतिशत, वस्त्र एवं जूते का 7 प्रतिशत, चिकित्सा खर्चे का 6.7 प्रतिशत, यात्रा एवं अन्य उपभोक्ता सेवाओं का 4 प्रतिशत तथा  उपभोक्ता वस्तुओं पर हुए खर्च का हिस्सा 4.5 प्रतिशत था।

औसत नगरीय भारतीय के लिए पारिवारिक उपभोग के मूल्य का 42.6 प्रतिशत खाद्य पर, 6.7 प्रतिशत अनाज पर एवम् 7 प्रतिशत दूध एवं दूध से बने पदार्थ पर व्यय हुआ था।

—- कुल उपभोक्ता व्यय में अधिकतर खाद्य मद समूहो का हिस्सा नगरीय भारत की तुलना में ग्रामीण भारत में अधिक था, फल एवं प्रसंस्कृत आहार इसके अपवाद रहे। नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों के बीच उपभोक्ता व्यय के मामले में सर्वाधिक अन्तर अनाज के मामले में( नगरीय भाग 6.9 प्रतिशत, ग्रामीण भाग 10.8 प्रतिशत तथा किराया(नगरीय 6.2 प्रतिशत, ग्रामीण 0.5 प्रतिशत), एवं शिक्षा( नगरीय 6.9 प्रतिशत, ग्रामीण 3.5 प्रतिशत) के मामले में पाया गया।

प्रति व्यक्ति औसत अनाज की खपत प्रतिमाह(सभी उम्र के व्यक्तियों के लिए) ग्रामीण भारत में 11.2 किलो एवं नगरीय भारत में 9.2 किलो था।

ग्रामीण भारत में 10 प्रतिशत जनता के लिए प्रति व्यक्ति औसत मासिक अनाज की खपत 10.0 किलो के आसपास थी। एमपीसीई में बढ़त के साथ ही, यह बढ़ते हुए देखी गई, तेजी से यह बढ़त 10-20 वर्ग में 11 किलो तक पहुंची और फिर धीरे-धीरे बढ़कर 80-90 वर्ग में 11.5 किलो तक पहुंची। नगरीय भारत में एमपीसीई में बढ़त के साथ प्रति व्यक्ति अनाज की खपत में परिवर्तन का कोई स्पष्ट तरीका(पैटर्न) नहीं था। केवल शिखर के 5 प्रतिशत जनता को छोड़कर विभिन्न वर्गों के प्रति व्यक्ति मासिक खपत 9.1 किलो से 9.5 किलो के बीच थी।

— 1993-94 से 2011-12 तक 18 सालों में महीने में प्रति व्यक्ति अनुमानित अनाज की खपत(जिसमें खरीदे गए प्रसंस्कृत आहार में अनाज का हिसाब शामिल नहीं है) ग्रामीण भारत में 13.4 किलोग्राम से 11.2 किलोग्राम और नगरीय भारत में 10.6 किलोग्राम से 9.3 किलोग्राम तक गिरी है।

8"/> Locked="false" Priority="60" SemiHidden="false" UnhideWhenUsed="false"Name="Light Shading Accent 4"/>

  **page**

नेशनल कमीशन ऑन एम्पलॉयमेंट इन अन-आर्गनाइज्ड सेक्टर(एनसीईयूएस) के दस्तावेज [inside]रिपोर्ट ऑन कंडीशन ऑव वर्क एंड प्रोमोशन ऑव लाइवलीहुड इन द अन-आर्गनाइज्ड सेक्टर[/inside] के अनुसार- 
 
http://nceus.gov.in/Condition_of_workers_sep_2007.pdf:

· भारत के ग्रामीण इलाके में खेती से होने वाली आमदनी का हिस्सा ४६ फीसदी है जबकि मजदूरी से होने वाली आमदनी का हिस्सा भी काफी बड़ा यानी ३९ फीसद है।ग्रामीण भारत के बारे में एक तथ्य यह है कि कुल किसान परिवारों में ४५ फीसद के पास १ हेक्टेयर से भी कम जमीन है।इसी कारण ग्रामीण इलाकों में किसान परिवारों की कुल आमदनी का एक बड़ा हिस्सा मेहनत-मजदूरी से आता है ना कि खेतिहर उपज से।एक हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार भरण-पोषण के लिए खेती के साथ-साथ मजदूरी पर भी निर्भर हैं।

· राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो खेती से होने वाली मासिकआय ९६९ रुपये है।इस आकलन में भूमि के हर वर्ग यानी सीमांत से लेकर बड़े किसानों तक को शामिल किया गया है। सीमांत किसान की खेती से होने वाली मासिक आमदनी ४३५ रूपये है जबकि बड़े किसान की ८३२१ रुपये।

· सीमांत किसान की औसत आमदनी बड़े किसान की औसत आमदनी से बीस गुना कम है।

· चूंकि छोटे और सीमांत किसानों की संख्या बहुत ज्यादा और आमदनी बहुत कम है इसलिए हर भूमि-वर्ग के किसानों को एक साथ मिलाकर खेती से होने वाली मासिक आमदनी का आकलन राष्ट्रीय स्तर पर करने पर आमदनी का औसत कम आता है।

· खेती के साथ-साथ आमदनी के बाकी स्रोतों को भी मिला दें तो राष्ट्रीय स्तर पर एक किसान परिवार की मासिक आमदनी २११५ रुपये आती है और इस आमदनी को प्रति व्यक्ति के हिसाब से देखें तो राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा महज ३८५ रूपये मासिक का आता है।अलग-अलग भूमि-वर्ग के किसान परिवारों के बीच मासिक आमदनी का अन्तर भी बहुत ज्यादा है।एक हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी जहां १३८० रूपये है वहीं १० हेक्टेयर और उससे ज्यादा की मिल्कियत वाले किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी ९६६७ रुपये है।

· खेती के अतिरिक्त बाकी अन्य स्रोतों से होने वाली आमदनी को एक साथ करें तो सबसे ज्यादा मासिक आमदनी जम्मू-कश्मीर के किसान परिवारों की(लगभग ५५०० रुपये) है।इसके बाद नंबर आता है पंजाब(४९६० रूपये) और केरल का(४००४ रूपये) ।सबसे कम मासिक आमदनी(१०६२रूपये) उड़ीसा के किसान परिवारो की है।कम आमदनी वाली किसान परिवारों में मध्यप्रदेश का स्थान दूसरा(१०६२ रूपये) और राजस्थान का तीसरा(१५०० रूपये) है।

· किसान-परिवारों के मामले में जहां तक औसत खर्च का सवाल है,जमीन के बढ़ते आकार के साथ-साथ इसमें इजाफा होता देखा गया है।बड़े किसान की कोटि में आने वाले परिवारों का औसत मासिक खर्च ६००० रुपये से ज्यादा है।राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक किसान परिवार का औसत मासिक खर्च २७७० रूपये और औसत मासिक आमदनी २११५ रूपये है।इससे संकेत मिलते हैं कि किसान परिवारों की औसत मासिक आमदनी से उनका औसत मासिक खर्च कहीं ज्यादा है- छोटे और सीमांत किसान परिवारों पर यह बात विशेष रूप से लागू होती है।

· आकलन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जिन किसान परिवारों के पास २ हेक्टेयर से कम जमीन है उनकी मासिक आमदनी उनके मासिक खर्चे से कम है।दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार अपने भरण पोषण के लायक आमदनी नहीं जुटा पा रहे हैं।

· कुल मिलाकर देखें तो,खेतिहर मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी बहुत कम है और इस मजदूरी में १९९३-९४ से लेकर २००४-०५ के बीच यानी एक दशक में बढ़ोत्तरी की दर बढ़ने के बजाय घटी है।

**page**

· ग्रामीण इलाके में नियमित मजदूरी या वेतन पाने वाले मजदूर अथवा कर्मचारी को,अगर वह पुरूष है तो औसतन १३८ रुपये ७४ पैसे और महिला है तो ८७ रुपये ७१ पैसे मिलते हैं यानी पुरूष और महिला के बीच मेहनताने में अंतरलगभग ५० रूपये काहै।शहरी इलाके में मजदूरी कहीं ज्यादा है।शहरी इलाके में नियमित मजदूरी पर बहाल पुरूष को २०५ रूपये ८१ पैसे हासिल होते हैं जबकि स्त्री को १५८ रूपये २३ पैसे यानी शहरी इलाके में दिहाड़ी पर काम करने वाली स्त्री को पुरूष की तुलना में यहां भी रोजाना लगभग ५० रूपये कम मिलते हैं।

· सरकार द्वारा चलाये जा रहे लोक-कल्याण के कामों में पुरूष को बतौर मजदूरी औसतन ५६ रूपये हासिल होते हैं जबकि महिला को ५४ रूपये।

Name="Dark List Accent 2"/>

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *