खबरदार

 

खास बात
• गंगोत्री ग्लेशियर सालाना ३० मीटर की गति से सिकुड़ रहा है।*
• अगर समुद्रतल की ऊंचाई एक मीटर बढ़ती है तो भारत में ७० लाख लोग विस्थापित होंगे।*
• पिछले बीस सालों में ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में सर्वाधिक बढ़ोत्तरी जिवाश्म ईंधन के दहन से हुई है।*
• मानवीय क्रियाकलापों के कारण ग्लोबल ग्रीन हाऊस गैस के उत्सर्जन में लगातार बढोत्तरी हो रही है। अगर औद्योगीकरण के पहले के समय से तुलना करें तो मानवीय क्रियाकलापों के कारण साल १९७० से २००४ के बीच ग्लोबल ग्रीन हाऊस के उत्सर्जन में ७० फीसदी की बढोत्तरी हुई है।**
• साल १९७० से २००४ के बीच ग्रीन हाऊस गैस के उत्सर्जन के सर्वप्रमुख कारण हैं-उर्जा-आपूर्ति, परिवहन और उद्योग। आवासीय और व्यावसायिक इमारतें, वनभूमि और खेती से होने वाले ग्रीन हाऊस गैस के उत्सर्जन की दर उपर्युक्त की तुलना में बहुत कम है। **
• पर्यावरण के बदलाव के कारण भारत में चावल और गेहूं की ऊपज में कमी आएगी।***
• पर्यावरण में हो रहे बदलाव के परिणाम स्वरुप प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोतरी होगी और इसकी सबसी गहरी चोट गरीबों पर पड़ेगी।***

* पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार
** क्लाइमेट चेंज(२००७): इंटरगवर्नमेंटल पैनन ऑन क्लाइमेट चेंज द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट
*** कीरित पारेख और ज्योति पारेख(२००२): क्लाइमेट चेंज-इंडियाज् परसेप्शनस्,पोजीशनस्,पॉलिसिज एंड पॉसिबिलिटीज, ओईसीडी।

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[inside]क्या है आईपीसीसी की संश्लेषण रिपोर्ट? जानिए प्रमुख बातें, 20 मार्च, 2023 को जारी [/inside]

कृपया यहाँ, यहाँ, यहाँ और यहाँ क्लिक कीजिए

जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल यानी आईपीसीसी ने एक रिपोर्ट जारी की। जिसे वैश्विक तापमान में हो रही बढ़ोतरी पर अंतिम चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है।

क्या है ये रिपोर्ट? 

छः से सात बरस के अंतराल में आईपीसीसी जलवायु का समग्र अध्ययन कर एक रिपोर्ट जारी करता है। पिछली रिपोर्ट ‘पांचवीं आकलन रिपोर्ट’ के नाम से 2014 में जारी हुई थी। जिसने पेरिस सम्मेलन में लिए गए निर्णयों में महती भूमिका निभाई थी।

छठी आकलन रिपोर्ट बनाने का निर्णय फरवरी 2015 में लिया गया। इसके तहत तीन प्रमुख रिपोर्ट्स जारी की गई हैं। पहली, “क्लाइमेट चेंज 2021: द फिजिकल साइंस बेसिस” अगस्त 2021 को जारी, दूसरी, “क्लाइमेट चेंज 2022: इंपैक्ट, एडॉप्शन एंड वल्नरेबिलिटी” फरवरी 2022 में जारी, तीसरी रिपोर्ट “क्लाइमेट चेंज 2022: मिटिगेशन ऑफ क्लाइमेट चेंज” शीर्षक के साथ अप्रैल 2022 में जारी की गई थी।

इन तीनों रिपोर्ट्स का संश्लेषित रूप  “एआर6 संश्लेषित रिपोर्ट” के नाम से 20 मार्च, 2023 को जारी किया गया।

इन तीन प्रमुख रिपोर्ट्स के अलावा छठी आकलन रिपोर्ट के अंतर्गत कुछ खास मुद्दे को संबोधित करने वाली रिपोर्ट्स जारी की थीं; जिन्हें आप यहां, यहां, यहां और यहां से प्राप्त कर सकते हैं।

रिपोर्ट की मुख्य बातें–

इस रपट में कोई नई बात नहीं कही है, पुराने अनुसंधानों को एक साथ रखा है। फिर सवाल ये उठता है कि इस रपट की क्या ज़रूरत आन पड़ी? तीनों रिपोर्ट्स लंबी हैं। नीति–निर्माताओं के बीच विमर्श का हिस्सा बनाने के लिए इस सारांश को पेश किया गया है।

  • लगातार ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन किया जारहा है, जिससे तापमान भी निरंतर बढ़ रहा है। 2011 से 2020 के बीच का वैश्विक तापमान 1850 से 1900 के औसत तापमान से 1.1 डिग्री सेल्सियस अधिक हो गया है।
  • तापमान में बढ़ोतरी के पीछे का कारण– जीवन शैली, भूमि का उपयोग, जीवाश्म ईंधन का प्रयोग और उपभोग का पैटर्न। यहां क्लिक करें।
  • पेरिस संधि के तहत हरेक राष्ट्र ने अपने लिए लक्ष्यों का निर्धारण किया था ताकि जलवायु परिवर्तन को रोका जा सके। अगर इन लक्ष्यों पर खरा उतरने की कोशिश नहीं की गई, तो 21वीं सदी के अंत तक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के अंदर रखने के लक्ष्य की संभावना 50 फीसद बची हुई है, वो खत्म हो जाएगी।
  • साथ ही रिपोर्ट में इस बात की ओर भी ध्यान खिंचा गया है कि अगर तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो जाए तब दुनिया पर क्या असर पड़ेगा।
  • अगर मौजूदा गति से काम चलता रहा तो वर्ष 2040 से पहले ही 1.5 सेल्सियस की सीमा पार हो जाएगी।
  • शमन (मिटिगेशन) के लिए ज़रूरी वित्त नहीं पहुंच पा रहा है।
  • हिम मंडलों के पिघलने की गति में तेजी आएगी।
  • महासागरों की कार्बन भंडारण करने की शक्ति में कमी आएगी।

सिफारिशें-

  • दुनियाभर के देशों को जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करनी होगी क्योंकि जीवाश्म ईंधन जलवायु संकट का प्रमुख कारण है।
  • कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना होगा. ये कमी जीवाश्म ईंधन विकल्पों को अपनाने, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS) विद्युत संयंत्रोंको नई तकनीकों से जोड़ने के बाद आएगी।
  • नेट-जीरो, जलवायु-परिवर्तन संबंधी भविष्य को संरक्षित करने के लिये अपनाने की ज़रूरत है।

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रिपोर्ट का नाम है [inside]नेशनल कंपाइलेशन ऑन डायनेमिक ग्राउंड वाटर रिसोर्सेज ऑफ इंडिया, 2022| अक्टूूूबर 2022 में जारी, भूमिगत जल की आवक में हुई बढ़ोतरी–रिपोर्ट [/inside] कृपया रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में भूमिगत जल भंडारण में जल संचयन, 437.60 अरब घन मीटर (bcm) हुआ है। वहीं वर्ष 2022 में पाताल से निकाले गए पानी का माप 239.16 अरब घन मीटर है।

वर्ष 2022 में 398.08 अरब घन मीटर पानी को भूमि से निकाल सकते थे। यानी भारत ने निकासी के लिए उपलब्ध पानी का 60 फीसदी हिस्सा ही निकला है जोकि पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 2 फीसदी कम है।

भारत में भूजल का आकलन 7089 इकाइयों से होता है। इनमें से 4780 इकाइयां सुरक्षित, 885 इकाइयां अर्ध नाजुक, 260 नाजुक,1006 अति दोहन से ग्रसित और 158 इकाइयां खारेपन की श्रेणी में आती हैं।
पाताल के पानी का अतिदोहन करने वाली इकाइयां कुल 14 राज्यों में फैली हुई हैं।
भारत में खेती के लिए इस्तेमाल किए जा रहे पानी का 62 फीसदी हिस्सा भूजल से आता है।
85 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरी जल आपूर्ति की पूर्ति पाताल के पानी से होती है।
राष्ट्रीय जल नीति (2012), पाताल के पानी का आकलन करवाने का प्रावधान करती है।

पाताल में पानी रिस कर जाता है फिर धरा पर बैठे लोग उस भंडार में से खींच कर पानी को बाहर निकालते हैं।
साल भर में जितना पानी रिस कर पाताल में जाता है उसके एक खास हिस्से को खींच करबाहरनिकाला जाता है। उसके प्रतिशत हिस्से का ब्यौरा– वर्ष 2004 में कुल रिस कर गए पानी का 58 प्रतिशत बाहर निकाला, 2009 में 61 प्रतिशत, 2011 के 62 प्रतिशत, 2013 में 62 प्रतिशत, 2017 में 63 प्रतिशत, 2020 में 62 प्रतिशत और वर्ष 2022 में 60 प्रतिशत।

अति दोहन से ग्रसित इकाइयों की संख्या कुछ इस तरह से है– वर्ष 2004 में 839, वर्ष 2009 में 802, वर्ष 2011 में 1071, वर्ष 2013 में 1034, वर्ष 2017 में 1186, वर्ष 2020 में 1114 और 2022 में 1006।
ध्यान रहे कुल इकाइयों की संख्या बदलती रहती है।

कृपया रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। और भूजल स्तर पर बने हमारे न्यूज अलर्ट को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

https://www.im4change.org/hindi/news-alerts-57/ground-water-exploitation-is-very-high-in-rajasthan-haryana-and-punjab-gw-level-is-decreasing-day-by-day-.html

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पिछले काफी समय से मानव ने अपने कामों से धरती का तापमन बढ़ा दिया है.इससे पर्यावरण में असन्तुलन आ गया है. इस असन्तुलन ने भी जवाब दिया, मानव का जीवन जोखिम में आ गया. जोखिम के उन कारकों में “सूखा” भी एक प्रमुख कारक है. [inside]संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम कन्‍वेंशन यानी UNCCD ने एक रिपोर्ट जारी की है. नाम है- Drought in Numbers 2022: Restoration for Readiness and Resilience-13 जुलाई[/inside] (पूरी रिपोर्ट यहाँ मिलेगी)

रिपोर्ट में सूखे पर की गई बातों को संक्षिप्त में यहाँ लिखा है. 

  • सूखा नामक इस जोखिम ने सन् 1970 से 2019 के बीच 650,000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया
  • पर्यावरण असंतुलन के कारण उपजे संकट का सबसे अधिक प्रभाव विकासशील देशों पर पड़ा है. प्रभावों में केवल मानव जीवन ही नहीं किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को भी अच्छा-खासा नुकसान पहुंचा देता है.
  • एक अनुमान के मुताबिक विश्वभर में सूखे के कारण लगभग प्रतिवर्ष 55 मिलियन लोगों का जनजीवन प्रभावित होता है. इन प्रभावों को लैंगिक नजरिये से देखें तो समाज में इसका प्रभाव महिलाओं और बालिकाओं पर अधिक देखा गया है. परिणामस्वरूप उनकी शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य और साफ़-सफाई प्रभावित होतें हैं.
  • यूनिसेफ ने एक अनुमान लगाया है जिसके अनुसार वर्ष 2040 तक सखे के कारण लगभग 160 मिलियन बच्चे प्रभावित हो सकते हैं.
  • सूखे का जवाब देने के लिए नाइजर एक मुकम्मल उदहारण के रूप में उभरा है. पिछले 20 वर्षों में पांच मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में पौधे लगायें हैं. पौधे लगाने से जमीं अनुर्वर होने से बच जाती है. साथ ही अपरदन (कटाव) भी कम होता है.
  • अगर एक नजर अतीत से लेकर वर्तमान तक सूखे की यात्रा पर डालें तो 1900 से अब तक 10 मिलियन से अधिक लोग अपनी जान की कुर्बानी दे चुकें हैं.
  • सूखे के काले बादल सबसे अधिक अफ्रीका के सहारा मरुस्थल से सटे इलाकों में देखें गए हैं. पिछले 100 वर्षों में सूखे की दुनिया के 44% सूखे इसी क्षेत्र से जुड़े हुए हैं.
  • हालाँकि पिछली सदी में सुखें के कारण सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोग एशिया महाद्वीप के निवासी थे.
  • सूखे ने पारितंत्र पर भी प्रभाव डाला है- सुखे के कारण प्रभावित होने वाले पेड़ों की संख्या 40 वर्षों में दोगुणी हो जाती है. प्रतिवर्ष 12 हेक्टेयर वन भुनी सूखे और मरुस्थलीकरण के कारण नष्ट हो जाती है.
  • स्टेट ऑफ़ ग्लोबल क्लाइमेट- 2021 को यहाँ से पढ़े– style="color: #0782c1;">State of the Global Climate in 2021 report

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13 जनवरी 2021 को भारत सरकार के वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने भारतीय वन सर्वेक्षण की भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2021 जारी की है। यह रिपोर्ट द्विवार्षिक होती है जिसे भारतीय वन सर्वेक्षण, देहरादून तैयार करता है। देश में वनों की स्थिति के बारे में रिपोर्ट तैयार करने का चलन सन 1987 से शुरू हुआ था। इस लिहाज से 2021 में जारी हुई यह रिपोर्ट अपनी तरह की 17वीं रिपोर्ट है।

भारत उन कुछ चुनिन्दा देशों में है जो अपने वन क्षेत्र की स्थिति पर एक वैज्ञानिक अध्ययन करते आया है। जिसके तहत भारत में वन क्षेत्र का आकार, घनत्व, आरक्षित और संरक्षित वनों की श्रेणी में वनाच्छादित भू-भाग की स्थिति और इनके बाहर वनाच्छादित भू-भाग की स्थिति पर भी एक आंकलन प्रस्तुत करता है।

दो वर्षों की अवधि पर प्रकाशित होने वाली इस रिपोर्ट के जरिये हमें अपने देश के वनों की स्थिति का एक परिदृश्य समझने में मदद मिलती है। समय- समय पर वनों के संदर्भ में होने वाले तमाम घरेलू (राष्ट्रीय) नीतिगत बदलावों और अंतरराष्ट्रीय संधियों, अनुबंधों और प्रस्तावों के मुताबिक जंगलों के वर्गीकरण और उन्हें देखने के नजरियों को भी इस रिपोर्ट में शामिल किया जाता है।

[inside]भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2021 (13 जनवरी, 2022 को प्रकाशित)[/inside] के मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं, (देखने के लिए यहां और यहां क्लिक करें.)

  • देश में वन  के कुल क्षेत्रफल में 2019 के मुक़ाबले मामूली सा इजाफ़ा दर्ज़ किया है। 2021 की रिपोर्ट बताती है कि भारत के कुल वन क्षेत्र का क्षेत्रफल 7,13,789 वर्ग किलोमीटर हो गया है जो 2019 में 7,12 249 वर्ग किलोमीटर था। यानी कुल 1540 वर्ग किलोमीटर और 0.21 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी देखी गई है। इस इजाफे के साथ भारत में कुल वन क्षेत्र अभी भी कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 21. 71 प्रतिशत ही हुआ है। भारत अभी भी अपने ही तय किए लक्ष्य से करीब 11.29 प्रतिशत पीछे है। उल्लेखनीय है भारत में मौजूदा राष्ट्रीय वन नीति 1988 में यह लक्ष्य रखा गया था कि देश के कुल भू-भाग का 33 प्रतिशत भाग वन क्षेत्र होगा।
  • अगर बात फॉरेस्ट कवर या वनाच्छादित भू-भाग की करें तो यह 95,748 वर्ग किलोमीटर ही है। जो भारत के पूरे भूगोल का महज़ 2.19 प्रतिशत ही है। इस वनाच्छादित क्षेत्र में भी 2019 की तुलना में 721 वर्ग किलोमीटर (0.76 प्रतिशत) की वृद्धि हुई है।
  • अगर भारत के कुल वन क्षेत्र और वनाच्छादित क्षेत्र के आंकड़ों को जोड़ दिया जाये तो कुल 2,261 वर्ग किलोमीटर (0.28 प्रतिशत) की बढ़ोत्तरी हुई है।
  • अभिलेखों में दर्ज़ वन क्षेत्र (रिकोर्डेड फॉरेस्ट एरिया) और हरित क्षेत्र (ग्रीन वाश) के कुल सम्मिलित आँकड़ों में 31 वर्ग किलोमीटर का इज़ाफ़ा दर्ज़ किया गया है। जबकि इन दोनों श्रेणियों से बाहर वनाच्छादित क्षेत्रफल में 1509 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि पिछली रिपोर्ट (2019) की तुलना में दर्ज़ की गयी है।
  • पाँच राज्यों में वन क्षेत्रों में सबसे ज़्यादा वृद्धि दर्ज़ की गयी है जिनमें सबसे पहले आंध्र प्रदेश है जो 647 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि के साथ पहले स्थान पर रहा है। उसके बाद क्रमश: तेलंगाना ( 632 वर्ग किलोमीटर), ओडीशा (537 वर्ग किलोमीटर), कर्नाटक (155वर्ग किलोमीटर)और झारखंड (110 वर्गकिलोमीटर) हैं।
  • इस रिपोर्ट में पूर्वोत्तर राज्यों को लेकर चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं जो हिंदुस्तान में जैव विविधतता के लिए जाने जाते हैं और इसी रूप में वर्गीकृत भी किए जाते है। यह रिपोर्ट बताती है कि पूर्वोत्तर क्षेत्रों में कुल 1,69,521 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र है जो इस क्षेत्र के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 64.66 प्रतिशत है। ताज़ा आंकलन के अनुसार इसमें 0.60 प्रतिशत यानी 1,020 वर्ग किलोमीटर की कमी दर्ज़ की गयी है।
  • 140 पहाड़ी जिलों में कुल 2,83,104 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल दर्ज़ किया गया है जो इन जिलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का करीब 40.17 प्रतिशत है। मौजूदा आंकलन के मुताबिक इसमें भी 902 वर्ग किलोमीटर (0.32 प्रतिशत) की कमी दर्ज़ की गयी है।
  • आदिवासी बाहुल्य जिलों को जिन्हें इस रिपोर्ट में ट्राइबल डिस्ट्रिक्ट्स या आदिवासी जिले कहा गया है और जिनकी संख्या 218 है, वहाँ कुल वन क्षेत्र 4,22,296 वर्ग किलोमीटर है जो इन जिलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 37.53 प्रतिशत है। इस रिपोर्ट के मुताबिक यहाँ भी 622 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में गिरावट आयी है। हालांकि ये गिरावट अभिलेखों में दर्ज़ वन क्षेत्र (रिकोर्डेड फॉरेस्ट एरिया) और हरित क्षेत्र (ग्रीन वाश) के दायरे में मौजूद वन क्षेत्र के लिए है। लेकिन अगर इन्हीं 218 जिलों में इन दो श्रेणियों से बाहर पैदा हुए वन क्षेत्र की बात करें तो यहाँ 600 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज़ की गयी है।
  • समुद्र तटीय इलाकों में पाये जाने वाले जंगल जिन्हें मैंग्रूव फॉरेस्ट कहा जाता है उसमें 2019 की तुलना में करीब 17 वर्ग किलोमीटर (0.34 प्रतिशत) का इजाफा हुआ है।
  • इस बार की रिपोर्ट में काष्ठ भंडार को लेकर भी आंकड़े मुहैया कराये गए हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि देश में काष्ठ -भंडार की क्षमता 6,167.50 मिलियन क्यूबिक मीटर है। जिसमें 4388.50 मिलियन क्यूबिक मीटर वन क्षेत्र के अंदर और 1779.35 मिलियन क्यूबिक मीटर वन क्षेत्र की सीमा से बहार मौजूद वन क्षेत्र में मौजूद है।
  • बांस उत्पादन को लेकर इस रिपोर्ट में दिये गए आंकड़े भारत सरकार की महत्वाकांक्षी बांस उत्पादन परियोजना के लिए निराशाजनक हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में बांस उत्पादन का कुल क्षेत्रफल 1,49,443 वर्ग किलोमीटर है जिसमें 10,594 वर्ग किलोमीटर की गिरावट 2019 की तुलना में दर्ज़ की गयी है।
  • कार्बन भंडार जो एक नयी आर्थिक परियोजना के रूप में भी आकार ले रहा है उसके आंकड़े हालांकि थोड़ा उत्साह जनक हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक कुल वन क्षेत्र में कार्बन का भंडार 7,204 मिलियन टन आँका गया है। यहाँ 79.4 मिलियन टन की वृद्धि पिछली रिपोर्ट की तुलना में दर्ज़ की गयी है। अगर वार्षिक आधार पर देखें तो लगभग 39.7 मिलियन टन की वृद्धि हुई है जो 146.6 मिलियन टन कार्बन डाई आक्साइड के समतुल्य है।
  • आग से प्रभावित या आग लाग्ने के मामले में संवेदनशील वनों की शिनाख्त भी इस रिपोर्ट में की गयी है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश के कुल वन क्षेत्रों का 22.77 प्रतिशत जंगल ऐसे हैं जो आग की परिस्थितियों को लेकर अति संवेदनशील हैं। इसके लिए मंत्रालय ने विशेष कदम उठाने और सतर्कता बरतने पर ज़ोर भी दिया है।
  • क्लाइमेट हॉट-स्पॉट्स आंकलन के निष्कर्ष भीइस रिपोर्ट में शामिल किए गए हैं जो भविष्य में आसन्न परिस्थितियों के बारे में बताते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सान 2030, 2050 और 2085 के लिए किए गए दूरगामी आंकलन से यह तस्वीर सामने आती है कि इन वर्षों में लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सामान्य तापमान में वृद्धि होगी। इसके साथ ही अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, पश्चिम बंगाल, गोवा, तमिलनाडू और आंध्र प्रदेश में बहुत कम या न के बराबर तापमान वृद्धि हो सकती है।
  • पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में इसके संदर्भ में बात करें तो इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्वोत्तर राज्यों और ऊपरी मालाबार समुद्री तटों में बेतहाशा बारिश बढ़ेगी जबकि पूर्वोत्तर के ही अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और पूर्व-पश्चिम के लद्दाख, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में बारिश की गति में मामूली या न के बराबर परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

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[inside]पिछले काफी समय से मानव ने अपने कामों से धरती का तापमन बढ़ा दिया है.13 जुलाई[/inside]इससे पर्यावरण में असन्तुलन आ गया है. इस असन्तुलन ने भी जवाब दिया, मानव का जीवन जोखिम में आ गया. जोखिम के उन कारकों में “सूखा” भी एक प्रमुख कारक है. “संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम कन्‍वेंशन” यानी UNCCD ने  एक रिपोर्ट जारी की है. नाम है- Drought in Numbers 2022: Restoration for Readiness and Resilience (पूरी रिपोर्ट यहाँ मिलेगी)

रिपोर्ट में सूखे पर की गई बातों को संक्षिप्त में यहाँ लिखा है. 
सूखा नामक इस जोखिम ने सन् 1970 से 2019 के बीच 650,000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया है.
पर्यावरण असंतुलन के कारण उपजे संकट का सबसे अधिक प्रभाव विकासशील देशों पर पड़ा है. प्रभावों में केवल मानव जीवन ही नहीं किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को भी अच्छा-खासा नुकसान पहुंचा देता है.
एक अनुमान के मुताबिक विश्वभर में सूखे के कारण लगभग प्रतिवर्ष 55 मिलियन लोगों का जनजीवन प्रभावित होता है. इन प्रभावों को लैंगिक नजरिये से देखें तो समाज में इसका प्रभाव महिलाओं और बालिकाओं पर अधिक देखा गया है. परिणामस्वरूप उनकी शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य और साफ़-सफाई प्रभावित होतें हैं.
यूनिसेफ ने एक अनुमान लगाया है जिसके अनुसार वर्ष 2040 तक सखे के कारण लगभग 160 मिलियन बच्चे प्रभावित हो सकते हैं.
सूखे का जवाब देने के लिए नाइजर एक मुकम्मल उदहारण के रूप में उभरा है. पिछले 20 वर्षों में पांच मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में पौधे लगायें हैं. पौधे लगाने से जमीं अनुर्वर होने से बच जाती है. साथ ही अपरदन (कटाव) भी कम होता है.
अगर एक नजर अतीत से लेकर वर्तमान तक सूखे की यात्रा पर डालें तो 1900 से अब तक 10 मिलियन से अधिक लोग अपनी जान की कुर्बानी दे चुकें हैं.
सूखे के काले बादल सबसे अधिक अफ्रीका के सहारा मरुस्थल से सटे इलाकों में देखें गए हैं. पिछले 100 वर्षों में सूखे की दुनिया के 44% सूखे इसी क्षेत्र से जुड़े हुए हैं.
हालाँकि पिछली सदी में सुखें के कारण सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोग एशिया महाद्वीप के निवासी थे.
स्टेट ऑफ़ ग्लोबल क्लाइमेट- 2021 को यहाँ से पढ़े– State of the Global Climate in 2021report

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style="font-size: 11pt;">बिहार में जलवायु संकट के कारण बढ़ रहे हीट वेव और वज्रपात को रोकने और उसका आकलन करने के लिए मीडिया कलेक्टिव फॉर क्लाइमेट इन बिहारने  गैर सरकारी संस्था असरके साथ मिलकर एक  मीडिया रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट में  बिहार में हीट वेव और वज्रपात के असर को गहराई से समझने के लिए सरकारी हस्तक्षेपों और उसकी जमीनी पड़ताल का आकलन किया गया है ताकि इससे एक बेहतर  समाधान निकल सके. इस अध्ययन में यह बात सामने आई है कि हीट वेव और वज्रपात बिहार जैसे गरीब राज्य के लिए एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है साथ ही यह भी बताया गया है ये  दोनों आपदाएं जलवायु संकट के सबसे बड़े करक में से एक है, जिससे आज पूरा विश्व प्रभवित हो रहा है.  

‘असर’ के सहयोग के साथ ‘मीडिया कलेक्टिव फॉर क्लाइमेट इन बिहार’ द्वारा जारी [inside]बिहार में जलवायु संकट के कारण बढ़े हीट वेव और वज्रपात का आकलन और उसे रोकने का आकलन[/inside] नामक रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं, (देखने के लिए यहां क्लिक करें.)

अध्ययन में यह इंगित किया है कि बिहार जलवायु संकट के खतरे की और बढ़ रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण  संसाधनों में कमी और बेहतर प्रशासनिक क्षमता का ना होना है. हर वर्ष बाढ़ के बाद हीट वेव और वज्रपात ही ऐसी आपदा हैं, जिससे बिहार सबसे अधिक प्रभावित हो रहा है.

अध्ययन के अनुसार, राज्य में 2015-2019 के बीच हीट वेव के चलते करीब 534 लोगों की मौत हुई है यानी औसतन हर साल 106.8 लोगों की मौत.

राज्य के 38 में से 33 जिले में हीट वेव  सामान्य से काफी अधिक पाई गई,  जिनमें राज्य के जिले खगड़िया, जमुई, पूर्णिया और बांका शामिल हैं. ये जिले टाइप टू वाली श्रेणी में आतेहैं. बिहार में अभी तक कोई जिला अति उच्च ताप भेद्यता वाली टाइप वन में नहीं आता है. लेकिन ये  तथ्य  भी वास्तक़िता को बताने वाला है कि खगड़िया और पूर्णिया जैसे उत्तर बिहार के जिलों में हीट वेव का संकट कई अधिक बढ़ गया है जबकि वहां के लोग और  प्रशासन भी अमूमन इस खतरे से अनजान  नजर आ रहा है. वज्रपात के मामले में हूबहू यही स्थिति  है.  मध्य प्रदेश और बिहार देश के ऐसे दो ऐसे राज्य है जहां वज्रपात के कारण  सबसे अधिक मौतें होती  हैं.

एनसीआरबी के आंकड़े बताते है कि  2015 से 2019 में  बिहार में ही  केवल वज्रपात की वजह से ही  256 लोगों की जान जा चुकी है. जबकि इसी दौरान  देश में कुल 14074 लोगों की मौत हुई यानी हर साल 2814.8 लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी है. इस हिसाब से देखे तो वज्रपात से मरने वालों की संख्या पूरे देश में हर सौ लोगों में नौ लोग बिहार के थे. वही वज्रपात की कुल घटनाओं के आंकड़े देखे तो उससे यह मालूम चलता है कि बिहार का देश में दसवां स्थान है. जबकि  ओड़िशा और बंगाल में वज्रपात की सबसे अधिक घटनाएं हुई हैं, लेकिन यहाँ की  राज्य सरकारों के बेहतर प्रबंधन ने इस पर काबू पाया है और लोगों को मरने से बचाया है.

बिहार सरकार  द्वारा 2019 में हीट वेव एक्शन प्लान तैयार किया  गया था. वही इससे पूर्व वर्ष  2015 से हर साल राज्य का आपदा प्रबंधन विभाग मार्च महीने में सभी जिलों को हीट वेव से बचाव के निर्देश जारी करता है. इस योजना में राज्य के लगभग 18 विभागों को शामिल कर उन्हें अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी गई है  मगर जमीनी हकीकत यह बयां करती है कि  इनमें से अधिकतर निर्देशों को लागू नहीं किया जाता.

 

जमीनी हकीकत

  • ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में आइसोलेशन बेड की सुविधा नही है.
  • style="font-size: 11pt;">style="color: black;">लोगों को जागरूक करने के लिये जो प्रचार प्रसार किया जाता है वह मात्र औपचारिकता ही रह जाती है.
  • स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों में बचाव के लिये दवाओं और संसाधनों की भारी कमी है.
  • मनरेगा और श्रम संसाधन विभाग की और से  मजदूरों के लिए कार्यस्थल पर पीने का पानी और ओआरएस, आइसपैक वगैरह नहीं रखवाता. उनके काम के वक्त में बदलाव नहीं किया जाता.
  • नगर निकायों को शहर में जगह-जगह पीने के पानी की  व्यवस्था करनी चाहिए  है. लेकिन यह  कार्य मात्र खानापूर्ति की तरह  रहता  है. धूप से बचाव के लिए शेड की कोई व्यवस्था नहीं है.
  • तापमान 40 डिग्री से अधिक होने पर लोगों को रिलीफ देने के लिये कई तरह के उपायों को करना होता है लेकिन वह किया नही जाता है.
  • किसी बस में पीने के पानी और ओआरएस की व्यवस्था नहीं होती है.
  • इस संकट को समझने के लिए  राज्य की स्वास्थ्य सुविधाएं  अपर्याप्त हैं। खास तौर पर अस्पतालों में मैनपावर की भारी कमी है जिसके कारण लोगों को  समय से उपचार नहीं मिल पाता है और इसकी चपेट में अधिक से अधिक लोग आ जाते हैं.
  • वज्रपात के संकट का सामना करने के लिये राज्य सरकार के  अभी तक ऐसा कोई एक्शन प्लान नही है जिससें हीट वेब पर काबू पाया जा सके। हालांकि आपदा प्रबंधन विभाग का कहना है कि वह एक एक्शन प्लान बहुत जल्द तैयार करके लागू करने वाले हैं.
  •  चेतावनी का तंत्र भी व्यवस्थित नहीं है. इंद्रवज्र नामक एक एप बना है, जो बहुत कारगर नहीं है. एसएमएस के माध्यम एक बहुत सामान्य चेतावनी जारी की जाती है, जो इतनी  प्रभावी नहीं  होती है.
  •  फिलहाल सरकार सिर्फ अखबारों में विज्ञापन  जारी करने के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति कर रही है.
  • हीट वेव और वज्रपात के जिस स्तर के खतरे का बिहार सामना कर रहा है, उसे लेकर  ना ही लोगों  और न ही सरकार  गंभीर है, जिससे यह खतरा लगातार बढ़ रहा है.

 

हीट वेव और वज्रपात के संकट से ऐसे निपटा जायें 

  • हीट वेवऔर वज्रपात का संकट बेहद बड़ा है इससे निपटने के लिए लोगों और प्रशासन की बीच अच्छी समझ होनी जरूरी है. ऐसा एक उदाहरण पूर्णिया जिला का है  जो हीट वेव के खतरे की उच्च श्रेणी में है, लेकिन वहाँ प्रशासन इस बात को खारिज करता है इसलिए सबसे अधिक जरूरी इस खतरे के बारे में प्रशासन को प्रशिक्षित और संवेदित किया जाए, और उन्हें  नियमित सेमिनार और कार्यशालाओं से यह बताना होगा कि राज्य किस स्तर के खतरे का सामना कर रहा है.
  • हीट वेव को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ानी होगी ताकि वह  इस खतरे के वास्तविक स्वरूप को समझ लें और  इस संकट से अपना बचाव  कर सके. लोगों को अधिक से अधिक जागरूक करने के लिए  प्रचार प्रसार का काम गंभीरता से करना होगा और ऑनलाइन माध्यमों से कहीं अधिक होर्डिंग, माइकिंग और नुक्कड़ नाटकों जैसे पारंपरिक माध्यमों को अपनाना होगा, जो बिहार जैसे राज्य के लिए एकदम सटीक  हैं, जहां अभी भी एक बड़ी आबादी के पास  स्मार्टफोन उपब्धता नहीं है.
  • हीट वेव एक्शन प्लान की तरह जल्द से जल्द  वज्रपात का एक्शन प्लान भी  बनाना चाहिए ताकि अधिक इसे अधिक लोगों को इससे बचाया जा सके। देश के कई राज्य ऐसे है जहाँ  जिलावार एक्शन प्लान बने हैं. बिहार में भी इसके खतरे  को देखते हुए सबसे अधिक प्रभावित जिलों को उनकी परिस्थितियों के अनुकूल एक एक्शन प्लान बनाना चाहिए.
  • एक्शन प्लान और नीतियों को बनाने के लिय स्थानीय उन विशेषज्ञों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए  जो स्थानीय भूगोल और पर्यावरण को अच्छी तरह से  समझते हों.
  • यह भी  ध्यान रखा जाना चाहिये  जाये कि जो एक्शन प्लान और दिशानिर्देश बनाये गए है उनका  जमीनी स्तर पर ठीक से पालन किया जा रहा या नहीं। कम से कम दिशा निर्देशों का 60 फीसदी पालन तो जरूर हो.
  • इस संकट का सामना करने में सरकारी स्वास्थ्य तंत्र का अहम रोल होता है ऐसे में जरूरी है कि  ग्रामीण और दूरदराज के अस्पतालों को सुविधा, दवा और मैनपावर से युक्त बनाया जाये और उसकी बेहतर व्यवस्था की जाए.
  •  ऊर्जा के साधनों के रूप में सोलर को भी अपनाया जाये ताकि आपदा के  समय मे  अस्पताल  क्रियाशील रहे.
  • शहरों के कंकरीट एरिया को कम करें, पेड़ोंको कटने से रोकें औरपर्यावरण को बेहतर बनाएं.

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एंजेला पिकियारिलो, सारा कोलेनब्रांडर, अमीर बाजज़ और रथिन रॉय, ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (ODI) द्वारा तैयार किए गए [inside] भारत में जलवायु परिवर्तन की लागत: भारत के सामने आने वाले जलवायु संबंधी जोखिमों की समीक्षा, और उनकी आर्थिक और सामाजिक लागत (जून 2021 में जारी) [/inside] नामक पॉलिसी ब्रीफ के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें):

भारत पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को महसूस कर रहा है. गर्म लूहें (हीटवेव) अधिक सामान्य और गंभीर होती जा रही हैं, कई शहरों में 2020 में 48 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान दर्ज किया गया है. 1950 के बाद से एकदम भारी बारिश की घटनाओं में तीन गुना वृद्धि हुई है, लेकिन कुल वर्षा की मात्रा घट रही है: भारत में एक अरब लोग वर्तमान में कम से कम साल में एक महीने के लिए पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं. समुद्र का बढ़ता स्तर भी जोखिम पैदा कर रहा है क्योंकि भारत की एक तिहाई आबादी तट के किनारे रहती है, जहां पिछले दो दशकों में उत्तर हिंद महासागर में प्रति वर्ष औसतन 3.2 मिमी की वृद्धि हुई है.

भारत में जलवायु प्रभावों की आर्थिक लागत पहले से ही बहुत अधिक है. 2020 में, एक एकल घटना – चक्रवात अम्फान – ने 1.3 करोड़ लोगों को प्रभावित किया और इसके लैंडफॉल के बाद 13 बिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ. कृषि उत्पादकता में गिरावट, समुद्र के बढ़ते स्तर और नकारात्मक स्वास्थ्य परिणामों का अनुमान था कि ग्लोबल वार्मिंग के 1 डिग्री सेल्सियस पर भारत को सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत खर्च करना होगा.

कम आय वाले और अन्य हाशिए पर रहने वाले समूह जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं. निरंतर उच्च तापमान उन लोगों पर अधिक प्रभाव डालता है जो हाथ से बाहर काम करने पर निर्भर होते हैं या भीड़-भाड़ वाले, खराब हवादार घरों में रहते हैं. बाढ़, style="font-size: 10.5pt;">तूफान की लहरें और चक्रवात घनी आबादी वाले, कम आय वाले समुदायों पर सबसे अधिक कहर बरपाते हैं, जो जोखिम कम करने वाले बुनियादी ढांचे से प्रभावित नहीं होते हैं. एक अध्ययन से पता चलता है कि कृषि उत्पादकता में गिरावट और अनाज की बढ़ती कीमतों में शून्य-वार्मिंग परिदृश्य की तुलना में 2040 तक भारत की राष्ट्रीय गरीबी दर में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है; यह उस वर्ष लगभग 5 करोड़ अधिक गरीब लोगों के बराबर है.

कम कार्बन विकास से स्वच्छ हवा, अधिक ऊर्जा सुरक्षा और तेजी से रोजगार सृजन जैसे तत्काल लाभ मिल सकते हैं. भारत के जलवायु लक्ष्यों को ‘2°C संगतमाना जाता है, यानी वैश्विक प्रयास का एक उचित हिस्सा. हालांकि, एक स्वच्छ, अधिक संसाधन-कुशल मार्ग का अनुसरण करने से तेज, निष्पक्ष आर्थिक सुधार को प्रोत्साहित किया जा सकता है और लंबी अवधि में भारत की समृद्धि और प्रतिस्पर्धा को सुरक्षित किया जा सकता है.

बढ़ते तापमान के लिए भारत की जिम्मेदारी नहीं है. दुनिया की आबादी का 17.8 प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद, भारत में संचयी उत्सर्जन का केवल 3.2 प्रतिशत हिस्सा है (ग्लोबल चेंज डेटा लैब, 2021). फिर भी भारत जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखे बिना अपनी विकास आकांक्षाओं को प्राप्त नहीं कर सकता (दुबाश, 2019).

बढ़ते औसत तापमान के कारण पूरे देश में लगातार और भीषण गर्मी पड़ रही है. 1985 और 2009 के बीच, पश्चिमी और दक्षिणी भारत ने पिछले 25 वर्षों की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक हीटवेव की घटनाओं का अनुभव किया. 2013 और 2015 में हीटवेव ने देश भर में 1500 और 2000 से अधिक लोगों की जान ले ली (मजदियास्नी एट अल।, 2017).

जैसे-जैसे वर्षा में कमीआई है,वर्षा का अनुपात जो वापस जमीन में जा रहा है और जलभृतों को रिचार्ज कर रहा है, भी गिर गया है क्योंकि अधिक भूमि कठोर सतहों – डामर, सीमेंट और इसी तरह से ढकी हुई है. समानांतर में, भारतीय कृषि तेजी से भूजल पर निर्भर है, भले ही भौतिक आपूर्ति कम हो गई हो (ज़ावेरी एट अल।, 2016). जलवायु और विकास कारकों के बीच परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप, भारत में एक अरब लोग वर्ष के कम से कम एक महीने के लिए गंभीर पानी की कमी का सामना करते हैं; 18 करोड़ पूरे वर्ष पानी की गंभीर कमी का सामना करते हैं (मेकोनेन और होकेस्ट्रा, 2016). ये कमी ऐसे संदर्भ में होती है जहां बहुत से लोगों को पीने, स्वच्छता या स्वच्छता के लिए पर्याप्त पानी की कमी होती है.

ग्लोबल वार्मिंग में तेजी आई है और दुनिया भर में औसत तापमान 2017 में पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1 डिग्री सेल्सियस अधिक था (कॉनर्स एट अल।, 2019). तेजी से, महत्वाकांक्षी और अच्छी तरह से लक्षित शमन कार्रवाई के साथ, सदी के अंत में औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखना संभव हो सकता है (आईपीसीसी, 2018). हालांकि, वर्तमान नीतियों के परिणामस्वरूप पूर्व-औद्योगिक स्तरों (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण, 2020) से कम से कम 3 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो जाएगा – और एक बहुत अधिक गंभीर जलवायु संकट, जिसकी लागत कम आय वाले समूहों और अन्य हाशिए पर रहने वाले लोगों द्वारा सबसे अधिक वहन की जाएगी.

स्पेक्ट्रम के निचले सिरे पर, कान एट अल. (२०१९) भविष्यवाणी करते हैं कि जलवायु परिवर्तन 2100 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद को लगभग 2.6 प्रतिशत तक कम कर सकता है, भले ही वैश्विक तापमान में वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे हो; हालाँकि, यह 4°C परिदृश्य में 13.4 प्रतिशत तक बढ़ जाता है. ये परिणाम संकीर्ण रूप से तापमान और वर्षा परिवर्तन केअनुमानों और विभिन्न क्षेत्रों में श्रम उत्पादकता पर प्रभाव पर आधारित हैं. जलवायु परिवर्तन अतिरिक्त चैनलों के माध्यम से श्रम उत्पादकता को भी प्रभावित कर सकता है, उदाहरण के लिए मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, फाइलेरिया, जापानी एन्सेफलाइटिस और आंत के लीशमैनियासिस (धीमन एट अल।, 2010) जैसे स्थानिक वेक्टर जनित रोगों की बढ़ती घटनाओं से.

 

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पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा तैयार की गई [inside]संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के लिए भारत की तीसरी द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट (फरवरी 2021 में जारी)[/inside] के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (देखने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):

भारत का कुल ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन (LULUCF यानी भूमि उपयोग, भूमि-उपयोग परिवर्तन और वानिकी सहित) 1994 में 1,229 MtCO2e (मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्य) से लगभग दोगुना होकर 2016 में 2,531 MtCO2e हो गया है. 2016 में कुल उत्सर्जन (एलयूएलयूसीएफ के बिना) का तीन-चौथाई ऊर्जा क्षेत्र की वजह से बढ़ा है. कृषि से 14.4 प्रतिशत, औद्योगिक प्रक्रियाओं और उत्पाद उपयोग (आईपीपीयू) से लगभग 8 प्रतिशत और कचरे से 2.6 प्रतिशत बढ़ा है.

• 2016 में, ऊर्जा क्षेत्र (कोयले पर निर्भरता के कारण) के तहत बिजली उत्पादन एकमात्र सबसे बड़ा स्रोत था, जिसका कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगभग 40 प्रतिशत योगदान था. 2016 में, देश द्वारा कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लगभग 9 प्रतिशत के लिए सड़क परिवहन का योगदान था. 2016 में आवासीय भवनों ने कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 4 प्रतिशत उत्सर्जित किया.

style="font-size: 12pt;">• 2016 में ऊर्जा क्षेत्र का कुल उत्सर्जन 21,29,428 Gg CO2e (कार्बन डाइऑक्साइड समकक्ष का गीगाग्राम) था, 2014 से 11.50 प्रतिशत की वृद्धि हुई. उर्जा क्षेत्र ने 2016 में कुल राष्ट्रीय CO2 उत्सर्जन का 93 प्रतिशत उत्सर्जित किया. यह मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन, दहन, ऊर्जा उद्योग और निर्माण, विनिर्माण उद्योग, परिवहन और अन्य क्षेत्रों की वजह से है.

परिवहन क्षेत्र काफी हद तक तेल पर निर्भर है और देश के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (LULUCF के बिना) में 9.67 प्रतिशत हिस्सेदार है.

औद्योगिक प्रक्रियाओं और उत्पाद उपयोग (आईपीपीयू) श्रेणी ने वर्ष 2016 में 2,26,407 Gg CO2e उत्सर्जित किया, जोकि कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 8 प्रतिशत था. IPPU के भीतर, सीमेंट उत्पादन सबसे बड़ा उत्सर्जन स्रोत है, जो कुल IPPU क्षेत्र के उत्सर्जन का लगभग 47 प्रतिशत है.

वर्ष 2016 में कृषि क्षेत्र ने 4,07,821 Gg CO2e उत्सर्जित किया, जो उस वर्ष के लिए भारत के उत्सर्जन के लगभग 14 प्रतिशत था, जिसमें 2014 से 2.25 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है.

• 2016 के दौरान LULUCF सेक्टर ने 3,07,820 Gg CO2e उत्सर्जित किया. इस सेक्टर के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि दर्ज की गई. क्रॉपलैंड वर्ष 2016 के लिए भारतके लिए CO2 उत्सर्जन / हटाने के अनुमानों पर हावी है. वन भूमि, क्रॉपलैंड और सेटलमेंट श्रेणियां शुद्ध सिंक थीं जबकि घास का मैदान CO2 का शुद्ध स्रोत था. भारत के CO2 उत्सर्जन का लगभग 15 प्रतिशत LULUCF क्षेत्र द्वारा ऑफसेट किया गया था.

अपशिष्ट क्षेत्र ने 2016 में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 75,232 Gg CO2e उत्सर्जित किया. अपशिष्ट क्षेत्र में अपशिष्ट जल प्रबंधन से उत्सर्जन का प्रभुत्व था, जो कि 79 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रीय उत्सर्जन और शेष 21 प्रतिशत ठोस अपशिष्ट निपटान से होता है.

भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) की वित्तीय जरूरतों पर, अनुमानों ने पहले ही संकेत दिया है कि भारत को प्रमुख क्षेत्रों में अनुकूलन कार्यों को लागू करने के लिए 2015 और 2030 के बीच कम से कम 206 बिलियन अमरीकी डालर (2014-15 की कीमतों पर) की आवश्यकता होगी. मध्यम निम्न-कार्बन विकास के लिए शमन आवश्यकताओं को 2011 की कीमतों पर 2030 तक 834 बिलियन अमरीकी डालर की सीमा में होने का अनुमान लगाया गया है. भारत के लिए ग्रीन क्लाइमेट फंड वित्त अपर्याप्त है और भारत की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए काफी कम होने की संभावना है.

भारत का वार्षिक औसत तापमान 1901-2019 की अवधि में प्रति 100 वर्षों में 0.61 डिग्री सेल्सियस (सी) की सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण दर से बढ़ रहा है. प्रति 100 वर्षों में 1 डिग्री सेल्सियस के अधिकतम तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और प्रति 100 वर्षों में 0.22 डिग्री सेल्सियस के न्यूनतम तापमान में भी अपेक्षाकृत कम वृद्धि हुई है.

1901 के बाद से वर्ष 2019 रिकॉर्ड के तौर पर सातवां सबसे गर्म वर्ष था, जिसमें वार्षिक औसत सतही हवा का तापमान1981-2010 की अवधि के औसत से +0.36 डिग्रीसेल्सियस अधिक था.

1989 और 2018 के बीच शुष्क दिनों, बरसात के दिनों (2.5 मिमी या अधिक लेकिन 6.5 सेमी से कम वर्षा), और भारी वर्षा (6.5 सेमी या अधिक की वर्षा) की आवृत्ति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं.

भारतीय क्षेत्र में 1961 से 2019 तक पिछले 59 वर्षों के दौरान मानसून के मौसम के दौरान तीव्र चक्रवाती विक्षोभ की आवृत्ति की एक महत्वपूर्ण घटती प्रवृत्ति (99 प्रतिशत के स्तर पर) देखी गई है.

1891 से 2019 के दौरान देखी गई चक्रवाती गतिविधियों के आधार पर, एक वर्ष में उत्तर हिंद महासागर क्षेत्र में औसतन 5 चक्रवात विकसित हुए, जिसमें औसतन 4 चक्रवाती गतिविधियां बंगाल की खाड़ी के ऊपर विकसित हुए और 1 चक्रवात गतिविधि अरब सागर के ऊपर विकसित हुए.

2019 के दौरान, उत्तर हिंद महासागर के ऊपर आठ चक्रवाती तूफान बने. इन आठ चक्रवाती तूफानों में से, एक तूफान बंगाल की खाड़ी के ऊपर सर्दियों और प्री-मानसून के मौसम के दौरान बना था.

उत्तर-पश्चिम भारत और भारत के पूर्वी तट पर गर्मी की लहरों की आवृत्ति और अवधि में वृद्धि हुई है. पिछले 50 वर्षों में मध्य और उत्तर-पश्चिम भारत में लूह चलने की अवधि लगभग पांच दिनों तक बढ़ गई है.

पश्चिमी हिमालय में सर्दियों की वर्षा और तापमान की निगरानी से पता चलता है कि कुल वर्षा में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है लेकिन 1991 से 2015 तक बर्फबारी में कमी आई है.

हिमालय के अधिकांश हिमनद कम हो रहे हैं और कम होने की दर शायद पिछले कुछ दशकों में तेज हुई है, लेकिन देखी गई प्रवृत्तियां क्षेत्रीय रूप से एक समान नहीं हैं. कम होने की औसत दर 14.2 ± 12.9 एम-1 (प्रति इकाई क्षेत्र प्रति वर्ष पानी के बराबर) है, लेकिन अनुमानों में अनिश्चितता के उच्च स्तर के साथ.

वर्तमान में, भारतीय तट के साथ समुद्र का स्तर बढ़ रहा है. समुद्र के स्तर में वृद्धि का दीर्घकालिक औसत लगभग 1.7 मिमी/वर्षहै. हालाँकि, ये भारतीय तट के साथ अलग-अलग दरों पर बदल रहे हैं.

विश्व स्तर पर जंगल की आग से होने वाले भारी उत्सर्जन के विपरीत, भारत में जंगल की आग से होने वाले उत्सर्जन में जंगल की आग से होने वाले सभी वैश्विक उत्सर्जन का मात्र 1.0-1.5 प्रतिशत योगदान है, भले ही 2015 में खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा वैश्विक वन संसाधन आकलन (एफआरए) के अनुसार भारत का कुल वैश्विक वन क्षेत्र का 2 प्रतिशत हिस्सा था.

भारत की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 2011-12 में 19,669 MJ (मेगाजूल) से बढ़कर 2018-19 (P) में 24,453 MJ हो गई. 2018-19 (पी) में, प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति 906.09 मिलियन टन तेल समकक्ष (एमटीओई) तक बढ़ गई.

वर्तमान अनुमानों के अनुसार, भारत में व्यावसायिक रूप से दोहन योग्य स्रोतों के लिए लगभग 1,097,465 मेगावाट (मेगावाट) की अक्षय ऊर्जा क्षमता है. पवन – 3,02,251 मेगावाट (100 मीटर मस्तूल ऊंचाई पर), लघु जलविद्युत – 21,134 मेगावाट; जैव ऊर्जा – 22,536 मेगावाट, सौर ऊर्जा – 7,48,990 मेगावाट और औद्योगिक अपशिष्ट – 2,554 मेगावाट.

वर्ष 2018-19 (पी) में, भारत की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 24,453 एमजे थी जो विश्व औसत का सिर्फ एक तिहाई है. भारत की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 2011-12 से 2018-19 तक 24.32 प्रतिशत बढ़ी.

 

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[inside]भारतीय रिज़र्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट 2019-20 (अगस्त, 2020 में जारी)[/inside] में चरम मौसम की घटनाओं और पर्यावरण के बारे में कुछ टिप्पनियां की गई हैं (इस रिपोर्ट का उपयोग करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें). वे इस प्रकार हैं:

जलवायु परिवर्तन के मॉडल के अनुरूप, भारत में वर्षा के अत्यधिक दिनों में बढ़ोतरी के साथ-साथ शुष्क दिनों की संख्या में भी वृद्धि हुई है – अधिक तीव्र सूखा; 2000 के बाद से 59 मिमी औसत बारिश में डाउवर्ड शिफ्ट; चक्रवातों की उच्च आवृत्ति – भारत में साल 2019 में 8 चक्रवात आए जोकि 1976के बाद किसी साल में चक्रवातों की सबसे अधिकसंख्या है; उच्च / सामान्य और कमी / अल्प मानसूनी बारिश से प्रभावित रहने वाले उपखंडों की संख्या में अधिक भिन्नता; और बेमौसम बारिश और भारी बाढ़ के कारण क्षतिग्रस्त हुई फसल के क्षेत्र में वृद्धि हुई है. कृपया संबंधित चार्ट देखने के लिए यहां क्लिक करें.

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से भारत में साल 1901 और 2000 के बीच हुई 0.5 ° C की औसत तापमान वृद्धि की तुलना में साल 1997 और 2019 के बीच 1.8 ° C की वार्षिक औसत तापमान वृद्धि अधिक तेजी से है. तापमान में इतनी तेजी से हुई बढ़ोतरी से फसल की पैदावार में गिरावट की संभावना है, और यह खेती और उससे संबंधित आय को नुकसान पहुंचा रही है. कृपया संबंधित चार्ट देखने के लिए यहां क्लिक करें.

वर्ष 2008 और 2018 के बीच जल स्तर में गिरावट दर्ज करने वाले भारत में लगभग 52 प्रतिशत कुओं का जलस्तर खतरनाक दर से कम हुआ है. इससे संकेत मिलता है कि हमें खुली बाढ़ सिंचाई को छोड़कर सूक्ष्म सिंचाई विधियों जैसे ड्रिप या होज़ रील जैसी विधियों को अपना लेना चाहिए. इन विधियों से इस्तेमाल किए गए पानी का 60 प्रतिशत तक बचाया जा सकता है और कीड़े-कीटों के प्रकोप को रोकने में भी मददगार साबित हो सकती हैं. वर्तमान में, सूक्ष्म सिंचाई का कवरेज/चलन उन राज्यों में बहुत कम है, जिनमें भूजल स्तर में अधिक गिरावट हुई है. इसके साथ-साथ, फसल चक्र, क्रेडिट चक्र और खरीद पैटर्न को मानसून शिफ्ट में अपनाने की आवश्यकता है. कृपया संबंधित चार्ट देखने के लिए यहां क्लिक करें.

तालिका-2 गिरता भूजल स्तर (2008-18) और सूक्ष्म सिंचाई कवरेज क्षेत्र (2015-18)

 

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र कृष्णन, जे. संजय, चेल्लप्पन ज्ञानसेलन, मिलिंद मुजुमदार, अश्विनी कुलकर्णी और सुप्रियो चक्रवर्ती, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES), भारत सरकार द्वारा संपादित [inside]असेसमेंट ऑफ क्लाइमेट चेंज ओवर द इंडियन रीजन(जून 2020 में जारी)[/inside] नामक रिपोर्ट का सारांश (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें) नीचे दिया गया है:

वैश्विक जलवायु में परिवर्तन

पूर्व-औद्योगिक समय से अबतक वैश्विक औसत तापमान में लगभग 1 °C की वृद्धि हुई है. ग्लोबलवार्मिंग के इस परिमाण और दर को केवल प्राकृतिक विविधताओं द्वारा समझाया नहीं जा सकता, इसलिए मानवीय गतिविधियों के कारण हुए परिवर्तनों पर बात करनी आवश्यक है. ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी), एरोसोल और औद्योगिक उपयोग के दौरान भूमि उपयोग और ग्रीन कवर (एलयूएलसी) में हुए मानवीय परिवर्तनों ने वायुमंडलीय संरचना को काफी बदल दिया है, और इन्हीं बदलावों के परिणामस्वरूप ग्रह ऊर्जा संतुलन, और वर्तमान में जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं. 1950 के बाद से ही वार्मिंग विश्व स्तर पर मौसम और जलवायु चरम सीमाओं में उल्लेखनीय वृद्धि का मुख्य कारण बनकर उभरी है जैसे कि (उदाहरण के लिए, गर्मी की लहरें, सूखा, भारी वर्षा, और गंभीर चक्रवात), वर्षा और हवा के पैटर्न में बदलाव (वैश्विक मानसून प्रणालियों में बदलाव सहित), वार्मिंग और वैश्विक महासागरों का अम्लीकरण, समुद्री बर्फ और ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र के बढ़ते स्तर और समुद्री और स्थलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों में परिवर्तन.

ग्लोबल क्लाइमेट में अनुमानित बदलाव

वैश्विक जलवायु मॉडल इक्कीसवीं सदी और उससे आगे के दौरान मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन की निरंतरता का अनुमान लगाते हैं. यदि वर्तमान जीएचजी उत्सर्जन दरें ऐसे ही निरंतर जारी रहती हैं, तो वैश्विक औसत तापमान में संभवतः इक्कीसवीं सदी के अंत तक लगभग 5 डिग्री सेल्सियस और वृद्धि होने की संभावना है. भले ही 2015 के पेरिस समझौते के तहत किए गए सभी प्रतिबद्धताओं (“राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान” कहा जाता है) को पूरा कर भी लिया जाए, तो भी यह अनुमान है कि सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाएगी. हालांकि, पूरे ग्रह में तापमान वृद्धि एक समान नहीं होगी; दुनिया के कुछ हिस्सों में वैश्विक औसत से अधिक गर्मी का अनुभव होगा. तापमान में इस तरह के बड़े बदलाव जलवायु प्रणाली में पहले से चल रहे अन्य बदलावों को बहुत तेजी से बढ़ाएंगे, जैसे कि बारिश के बदलते पैटर्न और बढ़ते तापमान.

भारत में जलवायु परिवर्तन: अवलोकन और अनुमानित परिवर्तन

भारत में तापमान में वृद्धि

1901-2018 के दौरान भारत का औसत तापमान लगभग 0.7style="color: #333333;"> ° C बढ़ गयाहै. तापमान में यह वृद्धि काफी हद तक जीएचजी-प्रेरित वार्मिंग के कारण होती है, और आंशिक रूप से एंथ्रोपोजेनिक एरोसोल और एलयूएलसी में परिवर्तन के कारण होती है. इक्कीसवीं सदी के अंत तक, RCP8.5 परिदृश्य और अतीत (1976-2005 औसत) के सापेक्ष भारत के औसत तापमान में लगभग 4.4 ° C वृद्धि होने का अनुमान है.

पिछले 30-वर्ष की अवधि (1986-2015) में, सबसे गर्म दिन और वर्ष की सबसे ठंडी रात के तापमान में क्रमशः 0.63 ° C और 0.4 ° C की वृद्धि हुई है.

इक्कीसवीं सदी के अंत तक, पिछले कुछ सालों (1976-2005) की तुलना में यह तापमान वृद्धि 4.7 डिग्री और 5.5 डिग्री तक तक बढ़ने का अनुमान है.

इक्कीसवीं सदी के अंत तक, RCP8.5 परिदृश्य के तहत संदर्भ अवधि 1976-2005 के सापेक्ष गर्म दिन और गर्म रातों की घटना की आवृत्ति क्रमशः 55% और 70% तक बढ़ने का अनुमान है.

भारत की गर्मियों (अप्रैल-जून) में गर्म हवाओं की दर RCP8.5 परिदृश्य के तहत, पिछले कुछ सालों (1976-2005) की तुलना में इक्कीसवीं सदी के अंत तक 3 से 4 गुना अधिक होने का अनुमान है. गर्म हवाओं के चलने की औसत अवधि भी लगभग दोगुनी होने का अनुमान है.

सतह के तापमान और आर्द्रता में संयुक्त वृद्धि के कारण, भारत भर में ऊष्मा दाब के प्रवर्धन की उम्मीद है, विशेष रूप से भारत-गंगा और सिंधु नदी घाटियों पर.

हिंद महासागर का गर्म होना

उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर के समुद्र की सतह के तापमान (SST) में 19512015 के दौरान औसतन 1 ° C की वृद्धि हुई है, जो कि इसी अवधि में 0.7 ° C के वैश्विक औसत समुद्र की सतह के तापमान (SST) वार्मिंग से अधिक है. उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर के ऊपरी700 मीटर (OHC700) में महासागर के गर्म होने के पिछले छह दशकों (19552015) में पिछले दो दशकों (19982015) में बढ़ती प्रवृत्ति में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है.

इक्कीसवीं सदी के दौरान, उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर में समुद्र की सतह के तापमान SST  और महासागरीय तापमान में वृद्धि जारी रहने के अनुमान हैं.

वर्षा में परिवर्तन

भारत में 1951 से 2015 के बीच जून से सितंबर के बीच होने वाले मॉनसून बरसात में 6 प्रतिशत की कमी हुई है जिसका असर गंगा के मैदानी इलाकों और पश्चिमी घाट पर दिखा है. कई डेटासेट और जलवायु मॉडल सिमुलेशन के आधार पर एक उभरती हुई आम सहमति है, कि उत्तरी गोलार्ध पर एन्थ्रोपोजेनिक एरोसोल के विकिरण प्रभाव से बढ़ रही जीएचजी वार्मिंग ने अपेक्षित वर्षा को प्रभावित किया है और गर्मियों में मानसून की वर्षा में गिरावट में योगदान दिया है.

हाल ही में 1951-1980 के मुकाबले 1981-2011 के बीच सूखे की घटनाओं में 27 प्रतिशत की वृद्धि दिखी है. वायुमंडलीय नमी की मात्रा के कारण स्थानीयकृत भारी वर्षा की आवृत्ति दुनिया भर में बढ़ी है। मध्य भारत के भारी वर्षा की घटनाओं में 1950 के बाद से अब तक 75 फीसदी बढ़ोतरी हुई है.

सूखा

पिछले 6-7 दशकों के दौरान मौसमी ग्रीष्म मानसून की वर्षा में समग्र कमी के कारण भारत में सूखे की संभावना बढ़ गई है। 19512016 के दौरान सूखे की आवृत्ति और स्थानिक सीमा दोनों में काफी वृद्धि हुई है। विशेष रूप से, मध्य भारत, दक्षिण-पश्चिमी तट, दक्षिणी प्रायद्वीप और उत्तर-पूर्वी भारत के क्षेत्रों में इस अवधि के दौरान औसतन प्रति दशक 2 से अधिक सूखे की घटनाएं हो रही हैं. सूखे से प्रभावित क्षेत्रों में प्रति दशक 1.3% की दर से बढ़ोतरी हो रही है.

जलवायु मॉडल अनुमानों में सूखे की घटनाओं में बढ़ोतरी की अधिक संभावनाएं हैं (प्रति दशक 2 घटनाएं), RCP8.5 परिदृश्य के तहत इक्कीसवीं सदी के अंत तक भारत में सूखे की चपेट में आने वाले इलाकों में बढ़ोतरी होगी, जिसके परिणामस्वरूप गर्म वातावरण में मानसूनी वर्षा में परिवर्तनशीलता और जल वाष्पीकरण होनेमें बढ़ोतरी होना संभव है.

style="font-size: 9.5pt;">समुद्र के स्तर में वृद्धि

ग्लोबल वार्मिंग के कारण महाद्वीपीय बर्फ के पिघलने और समुद्र के पानी के थर्मल विस्तार के कारण समुद्र का स्तर विश्व स्तर पर बढ़ गया है. उत्तर हिंद महासागर (NIO) में समुद्र-स्तर में वृद्धि 1874-2004 के दौरान प्रति वर्ष 1.061.75 मिमी की दर से हुई और पिछले ढाई दशकों (1993-2017) में 3.3 मिमी प्रति वर्ष बढ़ गई है, जो वैश्विक माध्य समुद्र तल वृद्धि की वर्तमान दर के बराबर है.

इक्कीसवीं सदी के अंत में, NIO में स्थैतिक समुद्र के स्तर को RCP4.5 परिदृश्य के तहत 1986-2005 के औसत से लगभग 300 मिमी बढ़ने का अनुमान है, वैश्विक औसत वृद्धि के लिए इसी प्रक्षेपण के साथ लगभग 180 मिमी.

ऊष्णकटिबंधी चक्रवात

बीसवीं शताब्दी (19512018) के मध्य से NIO बेसिन के ऊपर उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की वार्षिक आवृत्ति में उल्लेखनीय कमी आई है. इसके विपरीत, पिछले दो दशकों (2000-2018) के दौरान मानसून के बाद के मौसम में बहुत गंभीर चक्रवाती तूफानों (VSCS) की आवृत्ति में उल्लेखनीय रूप से (+1 घटना प्रति दशक) वृद्धि हुई है. हालांकि, इन रुझानों पर मानवजनित वार्मिंग का एक स्पष्ट संकेत अभी तक उभरा नहीं है.

जलवायु मॉडल के अनुसार, इक्कीसवीं सदी के दौरान NIO बेसिन में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की तीव्रता में वृद्धि का अनुमान है.

हिमालय में परिवर्तन

हिंदू कुश हिमालय (HKH) पर 19512014 के दौरान लगभग 1.3 ° C तापमान की बढ़ोतरी दर्ज की गई है. हिंदू कुश हिमालय के कई क्षेत्रों में कम होती बर्फबारी और हाल के दशकों में ग्लेशियरों की प्रवृत्ति में गिरावट आई है। इसके विपरीत, ज्यादा ऊंचाई वाले काराकोरम हिमालय पर ज्यादा सर्दियों में बर्फबारी हुई है जिससे इस क्षेत्र को ग्लेशियरों के पिघलने से बचा लिया है.

इक्कीसवीं सदी के अंत तक, हिंदू कुश हिमालय पर वार्षिक माध्य सतह का तापमान style="color: #333333;">RCP8.5 परिदृश्य के तहत लगभग 5.2 ° C बढ़ने का अनुमान है. RCP8.5 परिदृश्य के तहत CMIP5 अनुमानों में वार्षिक वर्षा में वृद्धि का संकेत मिलता है, लेकिन इक्कीसवीं सदी के अंत तक हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में भारी मात्रा में बर्फबारी में कमी आने के अनुमान हैं.

निष्कर्ष

बीसवीं सदी के मध्य के बाद से, भारत में औसत तापमान में बढ़ोतरी; मॉनसून वर्षा में कमी; अत्यधिक तापमान और वर्षा की घटनाओं, सूखे, और समुद्र के स्तर में वृद्धि; और मानसून प्रणाली में अन्य परिवर्तनों के साथ-साथ गंभीर चक्रवातों की तीव्रता में वृद्धि हुई है. इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि मानवीय गतिविधियों ने क्षेत्रीय जलवायु में इन परिवर्तनों को प्रभावित किया है.

इक्कीसवीं सदी के दौरान मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन जारी रहने की संभावना है. भविष्य के जलवायु अनुमानों की सटीकता में सुधार करने के लिए, विशेष रूप से क्षेत्रीय पूर्वानुमानों के संदर्भ में, पृथ्वी प्रणाली प्रक्रियाओं के ज्ञान में सुधार के लिए रणनीतिक दृष्टिकोण विकसित करने की जरूरत है ताकि अर्थ सिस्टम की गतिविधियों को बेहतर समझा जा सके और निरीक्षण और क्लाइमेट मॉडल को बेहतर करें.

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[inside]आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18, खंड -1 (जनवरी, 2018 में जारी)[/inside]के अनुसार, (अधिक जानकारी के लिए कृपया यहां क्लिक करें🙂

• भारत में कृषि विकास की अस्थिरता समय के साथ काफी कम हो गई है: 1960 से 2004 के बीच 6.3 प्रतिशत और 2004 से अब तक 2.9 प्रतिशत के के मानक विचलन से कृषि विकास की अस्थिरता कम हुई है. विशेष रूप से, अनाज का उत्पादन और अधिक हो गया है.

• 1970 के दशक के बाद बढ़ते तापमान का व्यापक पैटर्न दोनों मौसमों के लिए आम है. सबसे हाल के दशक और 1970 के दशक के बीच तापमान में औसत वृद्धि क्रमशः खरीफ और रबी मौसम में लगभग 0.45 डिग्री और 0.63 डिग्री है. ये रुझान राजीवन (2013) की रिपोर्ट के अनुसार हैं. 1970 और पिछले दशक के बीच, खरीफ वर्षा में औसतन 26 मिलीमीटर और रबी में 33 मिलीमीटर की गिरावट आई है. इस अवधि में औसतन प्रति वर्ष औसत बारिश में लगभग 86 मिलीमीटर की गिरावट आई है.

• शुष्क दिनों के अनुपात (प्रति दिन 0.1 मिमी से कमवर्षा), साथ ही साथ नमी वाले दिनों (बारिश प्रति दिन 80 मिमीसे अधिक) में 1970 के बाद से समय के साथ लगातार वृद्धि हुई है. इस प्रकार, चरम मौसम परिणामों की बढ़ती आवृत्ति के चलते जलवायु परिवर्तन की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है.

• पिछले दशक (2005-2015) और 1950-1980 की अवधि के बीच, उत्तर-पूर्व, केरल, तमिलनाडु, केरल, राजस्थान और गुजरात में तापमान में वृद्धि विशेष रूप से महसूस की गई है. भारत के कुछ हिस्सों, उदाहरण के लिए, पंजाब, ओडिशा और उत्तर प्रदेश सबसे कम प्रभावित हुए हैं. इसके विपरीत, पिछले दशक (2005-2015) और 1950-1980 के बीच वर्षा में अत्यधिक कमी उत्तर प्रदेश, उत्तर-पूर्व और केरल, छत्तीसगढ़ और झारखंड में देखी गई है.

• अत्यधिक तापमान के झटकों से जब एक जिला प्रभावित (सामान्य से काफी अधिक गर्म) होता है (जिला-विशिष्ट तापमान वितरण के शीर्ष 20 प्रतिशत में), तो खरीफ के मौसम में कृषि पैदावार में 4 प्रतिशत की गिरावट और रबी की पैदावार में 4.7 प्रतिशत की गिरावट आती है. इसी तरह, बारिश के मामले में, जब सामान्य से कम बारिश होती है (जिला-विशिष्ट वर्षा वितरण के निचले 20 प्रतिशत), तो नतीजतन खरीफ की पैदावार में 12.8 प्रतिशत की गिरावट, और रबी की पैदावार में 6.7 प्रतिशत की गिरावट होती है जोकि मामूली गिरावट नहीं है.

Impact of weather shocks on agricultural yields

• असिंचित क्षेत्र – उन जिलों के रूप में परिभाषित किया गया है जहाँ 50 प्रतिशत से कम फसली क्षेत्र सिंचित है – मौसम की जटिलताओं का खामियाजा भुगतना पड़ता है. उदाहरण के लिए, असिंचित क्षेत्रों में अत्यधिक तापमान होने के कारण खरीफ फसल की पैदावार में 7 प्रतिशत और रबी फसल की पैदावार में 7.6 प्रतिशत की कमी आती है. इसी प्रकार, अत्यधिक वर्षा होने के कारण खरीफ और रबी फसल की पैदावार में क्रमशः 14.7 प्रतिशत और 8.6 प्रतिशत की कमी आती है. जोकि सिंचित जिलों में होने वाले प्रभावों से बहुत बड़ा है.

• वर्षा का स्तर नियंत्रित रहने के बाद भी, शुष्क दिनों की संख्या (मानसून के दौरान 0.1 मिलीमीटर से कम दिनों के रूप में परिभाषित) उत्पादकता पर महत्वपूर्ण नकारात्मक प्रभाव डालती है: वर्षा की मात्रा स्थिर होने पर भी, मानसून के दौरान प्रत्येक अतिरिक्त शुष्क दिन औसतन सिंचित क्षेत्रों में 0.2 प्रतिशत और असिंचित क्षेत्रों में 0.3 प्रतिशत पैदावार कम करता है.

• अत्यधिक तापमान के प्रभाव के चलते क्रमशः खरीफ और रबी के दौरान किसान की आय में 4.3 प्रतिशत और 4.1 प्रतिशत की कमी आती है, जबकि अस्थिर वर्षा के प्रभाव के कारण उनकी आय में 13.7 प्रतिशत और 5.5 प्रतिशत की कमी आती है.

Impact of weather shocks on farm revenue

• एक वर्ष में जहां तापमान 1 डिग्री सेल्सियस अधिक है, उन असिंचित जिलों में किसानों की आय में खरीफ मौसम के दौरान 6.2 प्रतिशत और रबी के दौरान 6 प्रतिशत गिरावट आएगी. इसी तरह, एक साल में जब वर्षा का स्तर औसत से 100 मिलीमीटर कम होता है, तो खरीफ के दौरान किसान की आय में 15 प्रतिशत और रबी के मौसम में 7 प्रतिशत की गिरावट होगी.

• स्वामीनाथन एट. अल. (2010) से पता चलता है कि तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से गेहूंके उत्पादन में 4 से 5 प्रतिशत की कमी आती है, जोकि अन्य प्रभावों के समान ही है.

• आईएमएफ द्वारा एक अध्ययन, (2017) में पाया गया है कि उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं के लिए तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से कृषि विकास में 1.7 प्रतिशत की कमी होगी, और बारिश में 100 मिलीमीटर की कमी से विकास में 0.35 प्रतिशत की कमी आएगी.

• जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) द्वारा विकसित किए गए जलवायु परिवर्तन मॉडल, भविष्यवाणी करते हैं कि 21 वीं सदी के अंत तक भारत में तापमान 3-4 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की संभावना है (पाठक, अग्रवाल और सिंह, 2012). हमारे प्रतिगमन अनुमानों के साथ संयुक्त इन भविष्यवाणियों का मतलब है कि किसानों द्वारा किसी भी अनुकूलन के अभाव में और नीति में परिवर्तन (जैसे कि सिंचाई) न होने के कारण, आने वाले वर्षों में कृषि आय औसतन लगभग 12 प्रतिशत कम होगी. 18 प्रतिशत वार्षिक राजस्व की संभावित हानि के साथ, असिंचित क्षेत्र सबसे गंभीर रूप से प्रभावित होंगे.

• आईपीसीसी-अनुमानित तापमान को लागू करने और भारत के हालिया रुझानों को बारिश में शामिल करने, और कोई नीतिगत प्रतिक्रिया नहीं मानने के चलते, औसतन 15 प्रतिशत से 18 प्रतिशत की कृषि आय के नुकसान का अनुमान संभव है. असिंचित क्षेत्रों के लिए 20-25 प्रतिशत तक बढ़ सकता है, जोकि खेत की आमदनी के मौजूदा स्तरों पर मंझोले किसान परिवार के लिए प्रति वर्ष 3,600 रुपये तक हो सकता है.

• भारत चीन या संयुक्त राज्य अमेरिका (शाह, 2008) के मुकाबले दोगुने से अधिक भूजल का इस्तेमाल करता है. इसी वजह से वास्तव में भूजल की वैश्विक कमी उत्तर भारत में सबसे अधिक चिंताजनक है.

• भूजल स्टेशनों के विश्लेषण के अनुसार पिछले 30 वर्षों में जल तालिका में 13 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है.

• ड्रिप सिंचाई, स्प्रिंकलर, और जल प्रबंधन की तकनीकें – “हर बूंद से अधिक फसल” अभियान भविष्य में भारतीय कृषि की सफलता की कुंजी हो सकता है (शाह समिति रिपोर्ट, 2016; गुलाटी, 2005) और इसलिए इसे संसाधन आवंटन में प्राथमिकता देकर अधिक से अधिक इस्तेमाल जाना चाहिए.

• वर्तमान फसल बीमा कार्यक्रम (प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना), के लिए मौसम आधारित मॉडल और प्रौद्योगिकी (उदाहरण के लिए ड्रोन) का निर्माण कर इसका इस्तेमाल फसल के नुकसान का निर्धारण करने और हफ्तों के भीतर किसानों की क्षतिपूर्ति करने के लिए उपयोग करने की आवश्यकता है (केन्या कुछ दिनों में ऐसा करता है).

• अपर्याप्त सिंचाई, निरंतर वर्षा निर्भरता, अप्रभावी खरीद, और अनुसंधान और प्रौद्योगिकी में अपर्याप्त निवेश (दाल, सोयाबीन, और कपास जैसे अनाज), उच्च बाजार बाधाएं और कमजोर फसल उपरांत अवसंरचना (फल और सब्जियां), और चुनौतीपूर्ण गैर संयुक्त नीति (पशुधन) भारतीय कृषि के भविष्य पर चौकड़ी मारे बैठी है.

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नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (एनएएएस) द्वारा जलाने वाले फसल अवशेषों पर [inside]सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम-फिटेड कंबाइन और टर्बो हैप्पी सीडर का उपयोग कर चावल-गेहूं के अवशेषों को जलाने से रोकने के लिए नए व्यवहारिक समाधान (अक्टूबर 2017)[/inside] नामक नीति संक्षेप के अनुसार (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):

• अनुमान से पताचलता है कि पंजाब में किसानों द्वारा 80 प्रतिशत तक धान की परालीजलायी जाती है. अन्य उत्तर पश्चिमी राज्यों में भी, पराली को बड़े पैमाने पर जलाया जाता है. ऐसा अनुमान है कि भारत के उत्तर-पश्चिम राज्यों में लगभग 2.3 करोड़ टन धान की पराली/अवशेष सालाना जलाई जाती है. इतनी बड़ी मात्रा में पराली का संग्रह और भंडारण न तो व्यावहारिक रूप से संभव है और न ही किफायती.

• नवंबर 2016 की शुरुआत में नासा द्वारा जारी सैटेलाइट तस्वीर (चावल के अवशेष जलने की पीक अवधि) दक्षिण एशिया में पराली जलाए जाने वाले स्थानों को दर्शाती है और दिखाती है कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में पराली जलाने की तीव्रता बहुत अधिक है.

• फसल अवशेष जलाने से उत्सर्जित प्रमुख प्रदूषक तत्वों – CO2, CO, CH4, N2O, NOx, SO2, ब्लैक कार्बन, नॉन मिथाइल हाइड्रोकार्बन (NMHC), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) और पार्टिकुलेट मैटर (PM2.5 और PM10), का ग्लोबल वार्मिंग में बहुत बड़ा योगदान है.

• यह अनुमान लगाया गया है कि जलाए जाने पर एक टन पराली 13 किलोग्राम पार्टिकुलेट मैटर, 60 किलोग्राम सीओ, 1460 किलोग्राम सीओ 2, 3.5 किलोग्राम एनओएक्स, 0.2 किलोग्राम एसओ 2 उत्सर्जित करती है. अवशेषों को जलाने के दौरान उत्सर्जित ब्लैक कार्बन निम्न वायुमंडल को गर्म करती है और यह CO2 के बाद ग्लोबल वार्मिंग में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण योगदानकर्ता है.

• वायु प्रदूषण से होने वाले नुकसान के अलावा, धान के अवशेषों को जलाने से मिट्टी के कार्बनिक पदार्थों और पौधों के पोषक तत्वों की कमी होती है और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. चावल के अवशेषों में पाई जाने वाली एन और एस के लगभग 90 प्रतिशत और 15-20 प्रतिशत पी और के जलने के दौरान खत्म हो जाती है.  उत्तर-पश्चिम भारत में 2.3 करोड़ टन चावल के अवशेषों को जलाने से प्रति वर्ष लगभग 9.2 करोड़ टन कार्बन (CO2-लगभग 3.4 करोड़ टन के बराबर) की हानि होती है और लगभग 1.4 × 105 t (N के बराबर) का सालाना नुकसान होता है (200 करोड़). इसके अलावा, फसल अवशेषों को जलाने से मिट्टी के फायदेमंद सूक्ष्म वनस्पतियों और जीवों को भी नष्ट कर दिया जाता है, जिससे मिट्टी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

• धान के अवशेषों को बड़े पैमाने पर जलाए जाने के कारण पीएम 2.5 और पीएम 10 की सांद्रता में वृद्धि एक प्रमुख स्वास्थ्य खतरा है. उदाहरण के लिए, बच्चों को वायु प्रदूषण (स्मॉग) का अधिक खतरा होता है, क्योंकि धान के अवशेष जलने से उनके फेफड़ों पर लाइलाज प्रभाव पड़ता है.

• हवा में पीएम 2.5 और पीएम 10 के उच्च स्तर के उत्सर्जन से उत्तर-पश्चिम भारत की मानवीय आबादी में कार्डियोपल्मोनरी विकार, फेफड़ों के रोग या अस्थमा जैसी पुरानी बीमारियां होती हैं. सर्वेक्षण और आर्थिक मूल्यांकन में पंजाब में प्रत्येक वर्ष धान के अवशेष जलने की अवधि (सितंबर-नवंबर) के दौरान चिकित्सा और स्वास्थ्य संबंधी खर्च और कार्यदिवस में स्पष्ट वृद्धि देखी गई.

• ये स्वास्थ्य संबंधी खर्च बच्चों, वृद्धों और खेत श्रमिकों के लिए अधिक होते हैं, जो सीधे तौर पर धान के अवशेषों को जलाने से संबंधित है. पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में धान के अवशेषों सेमानव स्वास्थ्य की लागत का अनुमान 7.61 करोड़ रुपये सालाना है. अगर गतिविधियों पर खर्च, बीमारी के कारण उत्पादकता की कमी, असुविधा के मौद्रिक मूल्य, आदि को भी शामिल कर लें तो लागत बहुत अधिक होगी.

• धान के अवशेषों के उपयोग के लिए वर्तमान में पशु चारा, पशुधन बिस्तर, इन-सीटू निगमन, खाद बनाना, बिजली पैदा करना, मशरूम की खेती, छत बनाना, बायोगैस (अवायवीय पाचन), भट्ठी ईंधन, जैव ईंधन, कागज और लुगदी बोर्ड निर्माण शामिल हैं. वर्तमान में इन विकल्पों पर उत्तर-पश्चिम भारत में उत्पादित कुल धान अवशेषों के 15 प्रतिशत से कम का उपयोग होता है. विभिन्न उपलब्ध विकल्पों में से, विद्युत उत्पादन, जैव-तेल का उत्पादन और धान के अवशेषों का खेत में ही उपयोग वर्तमान में कुछ प्रमुख चलन हैं.

• बिजली का उत्पादन एक आकर्षक विकल्प है, लेकिन वर्तमान में, केवल सात-बायोमास ऊर्जा संयंत्र पंजाब में स्थापित किए गए हैं व छह और बनने जा रहे हैं. हालाँकि, ये बायोमास ऊर्जा संयंत्र मिलकर राज्य में लगभग 10 प्रतिशत धान के अवशेषों का इस्तेमाल कर सकते हैं. एक 12 मेगावाट धान के अवशेष बिजली संयंत्र के लिए एक वर्ष में 1.20 लाख टन अवशेषों की आवश्यकता होती है, जिसे एक बड़े डंपिंग ग्राउंड की आवश्यकता होती है. इसके अलावा, ये बायोमास ऊर्जा संयंत्र बड़ी मात्रा में राख का उत्पादन करते हैं और इसका निपटान करना एक गंभीर चुनौती है. इस समय तो, इस राख को ईंट भट्टों द्वारा बनाए गए लैंडफिल या गड्डों में डंप किया जाता है.

• जैव-तेल (पायरोलिसिस) और गैसीकरण का उत्पादन करने के लिए प्रौद्योगिकी अभी भी आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाने के लिए अनुसंधान और विकास के अधीन हैं. पंजाब में अधिकांश भट्टियां 25-30 प्रतिशत धान के अवशेषों का 70-75 प्रतिशत अन्य बायोमास के साथ मिश्रित करती हैं और चावल के भूसे का वर्तमान उपयोग केवल 5 लाख टन सालाना है. इस तकनीक का सीमित उपयोग मुख्य रूप से धान के भूसे में उच्च सिलिका सामग्री के कारण होता है, जो बॉयलर में क्लिंकर बनाने में मददगार होता है.

• उत्तर पश्चिम भारत में, सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (एसएमएस)- लगी हुई फसल कटाई की मशीनों का उपयोग चावल-गेहूं की फसल प्रणाली (आरडब्ल्यूसीएस) के तहत 70-90 प्रतिशत क्षेत्र में चावल की कटाई के लिए किया जाता है, जिससे भारी मात्रा में अवशेष और पराली खेत रह जाते हैं. इन कार्यों को पूरा करने के लिए लगभग 15 दिनों की उपलब्धता के कारण 8-10 टन/ हेक्टयर भूसे का कुशल और आर्थिक प्रबंधन और समय पर गेहूं की फसल का बीजारोपण किसानों के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य है.

• प्रत्येक सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (एसएमएस) अटैचमेंट की लागत लगभग 1.2 लाख रुपये, और टर्बो हैप्पी सीडर की लागत लगभग 1.3 लाख रुपये है. कस्टम हायरिंग सेवा प्रदाताओं द्वारा किराए में मामूली वृद्धि कर इन लागतों को आसानी से पूरा किया जा सकता है.

• गेहूं की बुवाई के लिए एसएमएस-फिटेड कंबाइन और टर्बो हैप्पी सीडर के समवर्ती उपयोग के अलग-अलग उत्पादन, आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक फायदे हैं, जिनमेंसे कुछ इस प्रकार हैं: 

(क) गेहूं बिजाई की पारंपरिक विधि की तुलनामें गेहूं की औसत उपज में 2-4 प्रतिशत की वृद्धि;

(ख) श्रम, ईंधन, रसायन, आदि की लागत में बचत के कारण लागत कम होना; एक ही ऑपरेशन में गेहूं की बुवाई के कारण प्रति हेक्टेयर लगभग 20 लीटर ईंधन बचता है. कुल बचत – 20 × 4.3 Mha = 8.6 करोड़ लीटर डीजल ईंधन प्रति फसल चक्र; 

(ग) 3-4 वर्ष से अधिक के लिए टर्बो हैप्पी सीडर का उपयोग करके अवशेषों के निरंतर पुनर्चक्रण द्वारा पोषक तत्वों के उपयोग की क्षमता में वृद्धि, 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर कम नाइट्रोजन उपयोग के साथ एक ही उपज का उत्पादन करती है.

(घ) बुवाई से पहले सिंचाई की जरूरत न होने के कारण प्रति हेक्टेयर 10 लाख लीटर पानी की बचत करके, कम पानी में अधिक फसल पैदा करता है. इसके अलावा, अवशेषों के मल्च से गेहूं के मौसम में लगभग 45 मिमी (4.5 लाख लीटर) के बराबर वाष्पीकरण नुकसान को कम करता है;

(ड) खरपतवार, फसल की कटाई, करनल बंट इन्फेक्शन और दीमक के हमले को कम करके जैविक और अजैविक बिमारियों के जोखिम को कम करता है. जब 2014-15 में फसल की कटाई के समय हुई भारी बारिश के दौरान पारंपरिक तरीक से गेहूं की पैदावार करने वाले किसानों की तुलना में हैप्पी सीडर से खेती करने वाले किसानों को लगभग 16 प्रतिशत अधिक पैदावार हुई,;

(च) धान के अवशेष, समय के साथ मिट्टी के कार्बनिक पदार्थों में सुधार करते है, जिससे की मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार होता है, जो मिट्टी के स्वास्थ्य, उत्पादकता की क्षमता और मिट्टी की जैव विविधता आदि को बढ़ाता है.

• यह अनुमान है कि भारत में आरडब्ल्यूसीएस के तहत कुल एकड़ का 50 प्रतिशत (50 लाख हेक्टेयर) कवर करने के लिए लगभग 60000 टर्बो हैप्पी सीडर्स और 30000 सुपर एसएमएस फिट कंबाइन की आवश्यकता होगी; वर्तमान में, केवल 3000 हैप्पी सीडर्स और 1000 सुपर एसएमएस फिट कंबाइन उपलब्ध हैं.

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नीचे दिए गए आरेख में दिखाया गया है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों(उद्योग, कृषि, वानिकी इत्यादि) की साल २००४ में ग्रीन हाऊस गैस के उत्सर्जन में कितनी हिस्सेदारी रही।

time bomb 1

स्रोत: क्लाइमेट चेंज (२००७): इंटरगवर्नमेंटल पैनन ऑन क्लाइमेट चेंज द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट

ग्रीन हाऊस गैस का उत्सर्जन-कौन कितना जिम्मेदार
time bomb 2

स्रोत: इंटरनेशनल एनर्जी आऊटलुक २००५, यूएस डिपार्टमेंट ऑव एनर्जी, एनर्जी इन्फारमेशन एडमिनिस्ट्रेशन ऑव यूनाइटेड स्टेटस् ऑव अमेरिका, २००५।

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सांख्यिकी एंव कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत [inside]सार्क-इंडिया कंट्री रिपोर्ट 2015: स्टैस्टिस्टिकल अप्रेजल[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार–

 

http://www.im4change.org/docs/94376SAARC_India_Country_Report_2015.pdf

 

•  साल 2006-07 से 2011-12 के बीच भारत में उर्बरक का उपयोग 23 प्रतिशत बढ़ा है. साल 2000-2001 में प्रति हैक्टेयर उर्वरक का उपयोग 89.63 किलोग्राम था जो साल 2012-13 में बढ़कर 128.34 किलोग्राम प्रतिहैक्टेयर हो गया.

 

•  भारत में जल-प्रदूषण एक गंभीर समस्या है. भारत में 75-80 प्रतिशत सतहवर्ती भूजल-संसाधन तथा भूमिगत जल-संसाधन का बड़ा हिस्सा जैविक, कार्बनिक, अकार्बनिक तथा रासायनिक संदूषकों से दूषित है.

 

•  शहरी विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट(2010) में कहा गयाहै कि भारत में 1 लाख मीट्रिक टन कचरे का उत्सर्जन होता है.

 

• साल 2004-05 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने महानगरों समेत 59 शहरों के सर्वेक्षण के आधार पर पाया कि इन शहरों में प्रतिदिन 39,031 टन म्युनिस्पल सॉलिड वेस्ट उत्सर्जित होता है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2010-11 के अपने सर्वेक्षण में पाया कि इन्हीं 59 शहरों में प्रतिदिन म्युनिस्पल सॉलिड वेस्ट का उत्सर्जन बढ़कर 50,592 टन हो गया है.

 

•  प्रदेशों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा प्राप्त सूचनाओं के अनुसार साल 2011-12 में प्रतिदिन देश में 1.27 लाख टन कचरा उत्सर्जित हो रहा था. इसमें सत्तर प्रतिशत कचरा ही एकत्र किया जा रहा था जबकि 12 प्रतिशत अपशिष्ट को शोधित किया जा रहा था.

 

•  देश में म्युनिस्पल इलाके में प्रतिदिन 1.34 लाख मीट्रिक टन सॉलिड वेस्ट उत्सर्जित होता है इसमें एकत्र हो पाता है मात्र 91,152 टन प्रतिदिन और शोधित होता है प्रतिदिन 25,884 टन.

 

• देश में कुल वनाच्छादन का दायरा 6.98 लाख वर्ग किलोमीटर का है. अति सघन वनक्षेत्र 83,502 वर्ग किलोमीटर (2.54 प्रतिशत) है जबकि सघन वनक्षेत्र 3.19 लाख वर्ग किलोमीटर(9.70 प्रतिशत) में फैला है और साधारण वनक्षेत्र 2.96 लाख वर्ग किलोमीटर(8.99प्रतिशत) में.

 

•  वर्ष 1988 की वननीति में कहा गया है कि देश के पर्वतीय इलाके के दो तिहाई हिस्से में वन-क्षेत्र और वृक्षाच्छादन का विकास किया जायेगा. भारत में पर्वतीय जिलों में वनाच्छादन 2.81 लाख वर्गकिलोमीटर में है जो इन जिलों का 39.75 हिस्सा है.

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[inside]स्टेट ऑव एन्वायरन्मेंट रिपोर्ट इंडिया, २००९[/inside] के अनुसार,http://hindi.indiawaterportal.org/sites/hindi.indiawaterportal.org/files/StateofEnvironmentReport2009.pdf:

• भारत में लगभग १४६.८२ मिलियन हेक्टेयर जमीन जल या वायु-अपरदन अथवा क्षारीयता, अम्लीयता आदि के कारण क्षरण का शिकार है। इसका एक बड़ा कारण जमीन के रखरखाव के अनुचित तरीकों का अमल में लाया जाना है।

• पिछले पचास सालों में भारत की आबादी तीन गुनी बढ़ी है जबकि इस अवधि में कुल कृषिभूमि में मात्र २०.२ फीसदी का इजाफा हुआ है(साल १९५१ में कुल कृषिभूमि ११८.७५ मिलियन हेक्टेयर थी जो साल २००५-०६ में बढ़कर १४१.८९ मिलियन हेक्टेयर हो गई)। कृषिभूमि में यह विस्तार अधिकतर वनभूमि या चारागाहों के नाश की कीमत पर हुआ है। कृषिभूमि का एक तरफ विस्तार हुआ है लेकिन दूसरी तरफ प्रति व्यक्ति कृषिभूमि के परिणाम में कमी आई है।

•  देश के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी हिस्से में झूम की खेती प्रचलित है। यह खेती का बड़ा अवैज्ञानिक तरीका है। नवीनतम आकलन के मुताबिक १८७६५.८६ वर्ग किलोमीटर यानी कुल भौगोलिक क्षेत्र के ०.५९ फीसदी जमीन पर झूम की खेती प्रचलित है। झूम की खेती का प्रभाव पर्यावरण के लिहाज से बड़ा विनाशकारी है। पहले किसी जमीन पर खेती की इस विधि से एक बार फसल काटने के बाद दोबारा १५-२० साल बाद ही फसल काटने की नौबत आती थी लेकिन अब यह अवधि घटकर २-३ साल रह गई है। खेती की विधि से बड़े पैमाने पर वनों का नाश हुआ है और भूमि की उर्वरा शक्ति कम हुई है। जैव विविधता पर भी भयानक असर पड़ा है।आंकड़ों के मुताबिक झूम की खेती वाली सर्वाधिक जमीन उड़ीसा में है।

•  साल १९९१-९२में उर्वरकों का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर ६९.८ किलोग्राम था जो साल २००६-०७ में बढ़कर ११३.३किलोग्राम हो गया। इन सालों में उर्वरकों के इस्तेमाल में ३.३ फीसदी की दर से बढ़ोत्तरी हुई। यूरिया का इस्तेमाल अत्यधिक मात्रा में हो रहा है। उर्वरकों में नाइट्रोजन-फास्फेट-पोटाशियम का अनुपात ४-२-१ होना चाहिए जबकि फिलहाल यूरिया का इस्तेमाल ६-२ और ४-१ के अनुपात में हो रहा है।योजना आयोग की स्थायी समिति का कहना है कि नाइट्रोजन आधारित उर्वरक पोटोस या फास्फेट आधारित उर्वरक की तुलना में ज्यादा अनुदानित हैं इसलिए इसका ज्यादा फायदा उन इलाकों और फसलों को होता है जहां नाइट्रोजन आधारित उर्वरक की जरुरत ज्यादा है। यूरिया के ज्यादा इस्तेमाल का बुरा असर भूमि की उर्वरा शक्ति पर पड़ रहा है।

• देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के २.७९ फीसदी हिस्से यानी ९१६६३ वर्ग किलोमीटर पर पेड़ हैं। साल २००३ से २००५ के बीच कुल वनाच्छादित भूमि में ७२८ वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। जिन राज्यों में वनाच्छादन में कमी आई उनके नाम हैं नगालैंड(१३२ वर्ग किलोमीटर), मणिपुर(१७३ वर्ग किलोमीटर), मध्यप्रदेश( १३२ वर्ग किलोमीटर) और छ्त्तीसगढ़( १२९ वर्ग किलोमीटर)। सुनामी के कारण अंडमान निकोबार में १७८ वर्ग किलोमीटर जमीन से वनाच्छादन का नाश हुआ।

• साल २००५ के आकलन के मुताबिक देश में वनाच्छादित भूमि का परिमाण ६७७०८८ वर्ग किलोमीटर है जो कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का २०.६० फीसदी है।

• चावल और गेहूं के डंठल या फिर ऐसे ही कृषिगत अवशिष्ट को जलाने से भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी आई है साथ ही वायु-प्रदूषण बढ़ा है। पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में खेत को फसलों की रोपाई-बुआई के लिए अगात तैयार करने की कोशिश में पहले उगाई गई फसल के दाने काटने के बाद खुले खेत में जलाना एक आम बात है। अकेले पंजाब में सालाना २३ मिलियन टन पुआल और १७ मिलियन टन गेहूं का डंढल इक्ठ्ठा होता है। इस डंठल में प्रयाप्त मात्रा में नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश होता है लेकिन इसे जमीन में गलाने के बजाय खुले खेत में जला दिया जाता है। इससे जमीन की उपरली तीन इंज की परत में इतनी गरमी पैदा होती है कि उसमें मौजूद नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश का संतुलन बदल जाता है। कार्बन अपने मोनो आक्ससाइड रुप में हाव मिल जाता है और नाइट्रोजन, नाइट्रेट के रुप में बदल जाता है। इससे पंजाब की कृषिभूमि में नाइट्रोजन, पोटाश और फास्फेट की कुल ०.८२४ मिलियन टन मात्रा की हानि होती है जो इस राज्य में होने वाली कुल उर्वरक खपत का ५० फीसदी है।

• गंगा, ब्रह्मपुत्र और कोसी जैसी नदियां अपने साथ बहुत सारी अपरदित मिट्टी ढोकर लाती है। यह अपरदित मिट्टी अलग अलग रुप में नदी की पेटी में जमा होता है। पर्वतीय हिस्सों में वर्षा और नदियों के कारण होने वाले भू-अपरदन से भूस्खलन होता है और बाढ़, वनों के विनाश, चारागाहों के अतिशय दोहन, खेती के अवैज्ञानिक तौर तरीके, खनन तथा विकास परियोजनाओं को वनभूमि के आसपास लगाने से भूमि का हरित पट्टी वाला हिस्सा लगातार नष्ट हो रहा है। लगभग ४ मिलियन हेक्टेयर हरितभूमि इन कारणों से नष्ट हुई है।

• भारत में भूमि अपरदन की दर प्रति हेक्टेयर ५ से २० टन है। कहीं कहीं यह मात्रा प्रति हेक्टेयर १०० टन तक पहुंचजाती है। भारत में सालाना लगभग ९३.६८ मिलियन हेक्टेयर जमीन पानी के कटाव की जद में आती है और ९.४८ हेक्टेयर जमीन वायु अपरदन की चपेट में पड़ती है। अपरदन के कारण एक तरफ तो जमीन की ऊपरी उपजाऊ परत का नुकसान होता है दूसरी तरफ पानी के स्रोतों मसलन कुआं, बावड़ी आदि भी मिट्टी से भरते जाते हैं।

• भारत में २२८.३ मिलियन हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र शुष्क, अर्ध-शुष्क कोटि में आते हैं। राजस्थान के पश्चिमी इलाके और कच्छ में लगातार सूखा पड़ता है।

• भारत में वाहनों की कुल तादाद ८ करोड़ ५० लाख है( विश्व के कुल वाहनों की संख्या का १ फीसदी) वाहनों की संख्या में बढ़ोत्तरी और पेट्रो आधारित परिवहन के लिए बढ़ते दबाव के कारण वायु प्रदूषण का खतरा पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ा है।वाहनों से होने वाले प्रदूषण की खास बात यह है कि इससे बचा नहीं जा सकता क्योंकि वाहन धरती से एकदम नजदीक की वायु को प्रदूषित करते हैं।

• ऊर्जा-उत्पादन क्षेत्र में कोयले की सर्वाधिक खपत होती है। देश में उत्पादित कुल बिजली का ६२.२ फीसदी हिस्सा कोयला आधारित विद्युत-संयंत्रों पैदा करते हैं। इस लिहाज से भारत बिजली उत्पादन के मामले में कोयले पर बहुत ज्यादा निर्भर है और ठीक इसी कारण कार्बन जनित उत्सर्जन के मामले में भी भारत की अच्छी खासी हिस्सेदारी है।

• साल २००६-०७ में भारत में बिजली उत्पादन के कारण ४९५.५४ मिलियन टन कार्बन डायआक्साइड गैस का उत्सर्जन हुआ। बहरहाल कार्बन डायआक्साइड के उत्सर्जन के मामले में विश्व में भारत की हिस्सेदारी सिर्फ ५ फीसदी है। इस तरह कुल आबादी के आदार पर तुलना करके देखें तो वायुमंडल में उत्सर्जित कुल कार्बन डायआक्साइड में भारत का हिस्सा एतिहासिक रुप से कम है।

• भारत में उद्योगों के बाद सबसे ज्यादा बिजली की खपत घरों में होती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-३ के आकलन के अनुसार भारत के ७१ फीसदी परिवार भोजन पकाने के लिए ठोस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले ९१ फीसदी परिवार भोजन पकाने के लिए ठोस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-३ के अनुसार देश के ६० फीसदी से ज्यादा परिवार रोजाना के इस्तेमाल के लिए ईंधन के रुप में उपले, कंडे और लकड़ी जैसे परंपरागत स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं। इससे बड़ी मात्रा में वातावरण में कार्बन डायआक्साइड या फिर कार्बन मोनो आक्साइड (दहन अगर पूर्ण रुप से ना हो) उत्सर्जित होता है और वातावरण में हाइड्रो कार्बन का निर्माण होता है।

•  यक्ष्मा यानी टीबी का एक प्रमुख कारक खाना पकाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला ठोस ईंधन है। जो परिवार खाना पकाने के लिए लिक्विड पेट्रोलियम गैस, प्राकृतिक गैस या फिर बायोगैस का इस्तेमाल करते हैं उनमें प्रति एक लाख व्यक्तियों में यक्ष्मा(टीबी) के मरीजों की तादाद २१७ थी जबकि जो परिवार खाना पकाने के लिए पुआल, भूसी, लकड़ी या घास-पत्ते आदि का इस्तेमाल कर रहे थे उनमें प्रति एक लाख व्यक्ति में यक्ष्मा के रोगियों की तादाद ९२४ पायी गई।

•  खेती की भारत की अर्थव्यवस्था में केंद्रीय भूमिकाबनी हुई है और ठीक इसी कारण सालाना सबसे ज्यादा पानी का आबंटन खेती को होताहै। वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल इस्तेमालशुदा पानी का ९२ फीसदी खेतिहर क्षेत्र को हासिल होता है(मुख्यतया सिंचाई के रुप में)।

• साल १९९५ में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश की १८ बड़ी नदियों के सर्वाधिक प्रदूषित हिस्से की पहचान की। आश्चर्य नहीं कि इनमें से अधिकतर हिस्से वही थे जिनके किनारे शहर बसे हुए हैं।

• फ्लूराइड, आर्सेनिक, आयरन आदि भूगर्भीय प्रदूषकों से देश के १९ राज्यों के कुल २०० जिलों में भूजल संदूषित हुआ है। अध्ययनों से जाहिर होता है कि फ्लूराइड के लंबे समय तक इस्तेमाल से दांतों में क्षरण हो सकता है और आर्सेनिक के कारण त्वचा का कैंसर सहित अन्य बीमारियां हो सकती हैं।

• भारत की एक बड़ी समस्या जल प्रदूषण है। भारत में भू-सतह पर मौजूद ७० फीसदी जल-स्रोत जैविक, रासायनिक अथवा अकार्बनिक पदार्थों के कारण प्रदूषित हैं। भूमिगत जल का भी एख बड़ा हिस्सा इन्हीं कारणों से प्रदूषित हो रहा है।

•  अध्ययनों से जाहिर होता है कि गंगा नदी में इंडोसल्फान, मिथाइल मालाथियान, मालाथियान, डाइमिथोटेट जैसे कई खतरनाक रसायन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृक मानकों से कहीं ज्यादा मात्रा में मौजूद हैं।

•  उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल से नदियों और झीलों में विषाक्त पदार्थ जमा हो रहे हैं। हैदराबाद की हुसैनसागर और नैनीताल की झील इसका प्रमुख उदाहरण है। .

• केद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों ने कुल १५३२ उद्योगों को सर्वाधिक प्रदूषक की श्रेणी में रखा है। इनमें से कोई भी उद्योग उत्सर्जन संबंधी मानकों का पालन नहीं करता।

• देश के कुल २२ बड़े शहरों में घरेलू इस्तेमाल के कारण रोजाना ७२६७ मिलियन लीटर पानी संदूषित होता है। इसमें मात्र ८० फीसदी पानी को ही दोबारा इस्तेमाल में लाने के लिए संयंत्रों में इक्ठ्ठा किया जाता है।

• भारत में सालाना २००० मिलियन टन ठोस कचड़ा पैदा होता है।

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[inside]इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज द्वारा प्रस्तुत क्लाइमेट चेंज २००७- सिंथेसिस रिपोर्ट[/inside] के अनुसार (http://www.ipcc.ch/pdf/assessmentreport/ar4/syr/ar4_syr.pdf):

  • पिछले १२ सालों में से ११ साल (१९९५-२००६) साल सन् १८५० के बाद के वर्षों में सर्वाधिक तापमान वाले वर्ष रहे। आर्कटिक प्रदेश का तापमान पिछले सौ सालों में दोगुना से ज्यादा बढ़ चुका है।

    साल १९६१ से अबतक की अवधि के आंकड़ों से जाहिर होता है कि विश्वस्तर पर समुद्र का तापमान ३००० मीटर की गहराई तक बढ़ चुका है।

    तापमान के बढ़ने के साथ समुद्रतल ऊंचा उठ रहा है। साल १९६१ से २००३ के बीच समुद्रतल में सालाना ३.१ मिमी. की दर से बढ़ोतरी हुई है।

    उपग्रह से प्राप्त आंकड़े बताते हैं आर्कटिक प्रदेश में मौजूद बर्फ का विस्तार प्रतिदशक २.७ फीसदी कम हो रहा है।

    मौसम में विश्वव्यापी स्तर पर बड़ी तेजी से बदलाव हो रहा है। बीसवीं सदी के आखिर के पचास सालों में विश्व के विशाल भूभाग में अतिशय गर्मी या ठंढक से भरे रात-दिन अब ज्यादा संख्या और बारंबारता में घटित हो रहे हैं।

    मानवीय क्रियाकलापों से ग्लोबल ग्रीनहाऊस गैस का उत्सर्जन औद्योगीकरण के वक्त से पहले की तुलना में अब कहीं ज्यादा परिमाण में हो रहा है। साल १९७० से २००४ के बीच में इसमें ७० फीसदी का इजाफा हुआ है।

    कार्बन डायआक्साइड मानवजनित एक ग्रीनहाऊस गैस हैऔर साल १९७० से २००४ के बीच इसके उत्सर्जन में ८० फीसदी का इजाफा हुआ है।

  • ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में साल १९७० के बाद के समय में सर्वाधिक योगदान उर्जा-क्षेत्र, परिवहन और उद्योगों का है।  प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन और उर्जा की उपलब्धता के आधार पर देखें तो संयुक्त राष्ट्र संघ के फ्रेमवर्क कंवेंशनन ऑन क्लाइमेट चेंज में जिन देशों को एनेक्स-१ का देश(विकसित और औद्योकृत) कहा गया है उनमें विश्व की कुल २० फीसदी आबादी निवास करती है जबकि विश्व के सकल उत्पाद में इन देशों का हिस्सा ५७ फीसदी है जबकि ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में इन देशों का योगदान विश्वस्तर पर ४६ फीसदी का है।
  • मौसम में परिवर्तन से टुन्ड्रा प्रदेश, पर्वतीय इलाकों, समुद्रतट के पास के क्षेत्रों और भूमध्यसागरीय इलाकों के पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर असर पड़ेंगे।

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के ज्योति पारेख और कीरित पारेख द्वारा प्रस्तुत [inside]क्लाइमेंट चेंज-इंडियाज परसेप्शन, पोजीशनस्,   पॉलिसिज् एंड पॉसिब्लिटिज्[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार-
http://www.oecd.org/dataoecd/22/16/1934784.pdf 

• जलवायु में बदलाव के कारण तटीय इलाके डूबेंगे और इस वजह से इन इलाकों से बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन होगा। इससे ऐसे शरणार्थियों का तादाद बढ़ेगी जिनके पलायन का कारण सिर्फ जलवायु परिवर्तन है।

• भारत में गेहूं और चावल के उत्पादन में जलवायु परिवर्तन के कारण कमी आएगी।

• जलवायु परिवर्तन से पैदा स्थितियों मसलन चक्रवात आदि से सर्वाधिक आघात गरीब तबके को लगेगा। इस सिलसिले में सिर्फ आंध्रप्रदेश में १९९६ के चक्रवात को याद कर लेना भर काफी होगा।

• भारत में उर्जा क्षेत्र सबसे ज्यादा (४२ फीसदी) कार्बन डायआक्साइड का उत्सर्जन करता है। उर्जा क्षेत्र के बाद इस मामले में स्थान आता है लौह-इस्पात उद्योग और परिवहन का।

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