तंग नज़रिये के प्रतीकों का पोषण– एस निहाल सिंह

फिल्म पद्मावती को लेकर छिड़ा विवाद एक बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है। केंद्र में 2014 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से अभिव्यक्ति की आजादी तथा अपने अंदाज़ में ज़िंदगी जीने के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। दूसरा, सार्वजनिक बातचीत में सतहीपन आ गया है, जबकि कांग्रेस के शासनकाल में ऐसा नहीं होता था।


इसके कारण कहीं दूर तलाश करने की जरूरत नहीं। आरएसएस के नेतृत्व में संघ परिवार बहुसंख्यकवादी शासन वाला नया भारत बनाने की अपनी कोशिशों के तहत प्रमुख ऐतिहासिक तथा शोध संस्थानों में अपने विचारकों को नियुक्त करवाने के बाद इतिहास को फिर से लिख रहा है। राष्ट्रवाद तथा आदर्श भारत के बारे में इसका नजरिया संकीर्ण है और इसका समर्थन आधार ऐसे व्यक्तियों में निहित है, जहां सच के बारे में सोच केवल एकपक्षीय ही रहती है।


परिवार के सदस्य तथा उनके समर्थक अपनी बात को मनवाने के लिए अपने विरोधियों से निपटने के लिए अपमानजनक भाषा तथा धमकियों पर उतारू हो जाते हैं। इसलिए वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध की हिमाकत करने वालों को गालियां देते हैं तथा नुकसान
पहुंचाने की धमकियां देते हैं। दूसरी ओर भी फिल्म का प्रमुख किरदार होता है। अधिकारी भी मोटे तौर पर इस सबको अनदेखा करना ही पसंद करते हैं।


गाय अधिकांश भारतीयों के लिए एक पूजनीय जीव है, इसीलिए यह सम्माननीय है। लेकिन गौरक्षा के नाम पर कुछ तथाकथित गौरक्षकों द्वारा गायों को गाड़ियों में ले जाने वाले बेगुनाह लोगों को तंग करने तथा कई बार उनकी हत्या तक कर दिये जाने जैसी आपराधिक घटनाओं ने प्रधानमंत्री तक को नाखुश कर दिया है। लेकिन उन्हें 24 घंटे के भीतर अपने शब्द वापस लेते हुए आरएसएस के हुक्म के आगे नतमस्तक होना पड़ा। फिर हम उन उपदेशों से भी भलीभांति परिचित हैं कि महिलाओं को कैसे कपड़े पहनने चाहिए तथा हिंदू लड़कियों को प्रलोभन देकर इस्लाम में परिवर्तित करने पर आमादा ‘लव जिहादियों’ के प्रति सतर्क रहना चाहिए। मीडिया की स्वतंत्रता तथा विश्वभर में सभ्य व्यवहार के आदर्श माने जाने वाले जीने के तरीके परिवार की विचारधारा में मौजूद नहीं हैं। अगर आपको लगता है कि परमानंद तथा चमत्कारों वाली प्राचीन भारत धरा में जड़वत आरएसएस द्वारा बतायी गई बात ही एकमात्र सत्य है, तो फिर हिंदुत्व के दर्शन में निहित हिंदुओं की श्रेष्ठता को लेकर कोई बहस नहीं की जा सकती।


यही कारण है कि भाजपा के शासन वाले राज्यों के मुख्यमंत्री तरह-तरह के कारणों का हवाला देते हुए फिल्म पद्मावती को दिखाये जाने के खिलाफ एकमत हैं। उन्हें सेंसर बनने से भी कोई गुरेज नहीं। असल में मौकापरस्ती का बोलबाला है, क्योंकि एक विशेष समुदाय का मानना है कि उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई गई है। दूसरी ओर कांग्रेस भी पंजाब तथा कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों के विरोध में डट जाने के कारण उलझन में पड़ गई है।


राजनेताओं के शब्दकोष में निरंतरता मूर्खों का सद‍्गुण है। भारतीय राजनेता विभाजक रेखा को पार कर सत्तारूढ़ बहुमत के साथ जाते रहे हैं। लेकिन अकेले राजनेताओं पर ही यह दोष क्यों? मुनाफे तथा सुगमता पर नज़रें टिकाये बैठे व्यवसायियों तथा पेशेवरों कोभी सत्तारूढ़ व्यवस्था में गुण नज़र आते हैं। मीडिया प्रतिष्ठानों की बदलती राय एक अलग कहानी है। सत्तारूढ़ भाजपा की समस्या बड़ी है। यह भारत के विचार को बदलना चाहती है। धर्मनिरपेक्षता एक बुराई है और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस बात को अच्छी तरह स्पष्ट भी कर दिया है। उनके तथा व्यापक संघ परिवार के लिए अपराध है बहुसंख्यक हिंदू को अल्पसंख्यकों के जैसी स्थिति में पहुंचा देना। संघ परिवार की आंखों में हकीकत यह है कि हिंदू एक श्रेष्ठ जाति है, नाजियों तथा फासीवादियों द्वारा इतिहास में छोटी तथा लंबी अवधि के लिए अपनाई गई तथा उनके समकालीन नकलनवीसों द्वारा स्वीकार की गई भ्रांति। मोदी को इस बात से शह मिलती है कि निचले सदन में बहुमत के चलते वह मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-II , जिन्हें कि अपने फैसले टालने पड़ते थे या फिर अपने गठबंधन सहयोगियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते बगलें झांकनी पड़ती थीं, के मुकाबले वह एक निर्णायक नेता हो सकते हैं। आपातकाल के बाद 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में विभिन्न मतों वाली जनता सरकारों ने ऐसी हुल्लड़बाजी तथा खलबली मचा दी थी कि उसने लोगों को एक दिन का सुल्तान नामक मुहावरे की याद ताज़ा हो आयी।


मोदी को गलतियां कर सकने की आजादी है। दलगत राजनीति में विश्वास न रखने वाले अधिकांश अर्थशास्त्रियों की नजरों में नोटबंदी एक बहुत बड़ी गलती थी लेकिन सरकार की ओर से एक तरह की जीत के तौर पर पेश किया जा रहा है। दूसरी ओर अगर भारत के शहरों, कस्बों तथा गांवों में गंदगी के बीच रहते लोगों को देखें तो स्वच्छ भारत तथा शौचालयों के निर्माण को लेकर चलाये जा रहे जोरदार अभियानों का स्वागत किया जाना चाहिए। आखिर मुद्दा इस बात पर आकर सिमट जाता है कि मोदी को संघ परिवार में कितनी आजादी हासिल है।


2019 के आम चुनाव करीब आ जाने के चलते संघ परिवार अपनी चलाने के पूरे संकेत दे रहा है। योगी के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन जाने के कारण आरएसएस को परिवार के नेतृत्व में अपने विचारों को प्रकट करने के लिए एक वैकल्पिक प्रवक्ता मिल गया है, हालांकि उन्हें अपने राज्य को व्यवस्थित करने के लिए अभी बहुत कुछ सीखना है।


परिवार में लक्ष्यों तथा समय सीमा को लेकर भले ही जितने मर्जी मतभेद हों, लेकिन सच की परिभाषा तथा हिंदू भारत की आवश्यकता को लेकर सभी एकमत हैं। प्रधानमंत्री द्वारा कुछ लक्ष्यों को स्थगित करने के कुछ व्यावहारिक कारण हो सकते हैं लेकिन प्राचीन भारत के मिथकों में उनकी गहरी आस्था है और उन्होंने प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद इस बात को कहने का साहस भी किया था।
कुछ मायनों में आज देश को आगे ले जाने के लिए हमारे पास आधुनिक तकनीक पर जोर दिये जाने के साथ-साथ मिथक गढ़ने का अद्भुत कौतुक भी है। अगर इसमें बोलने की आजादी पर रोक का मिश्रण भी कर दिया जाता है तो हमारे सामने एक नयी दिशा की ओर बढ़ता संकुचित राष्ट्र होना तय है।


मोदी के आलोचक सिर्फ जवाहरलाल नेहरू और आजादी की पीढ़ी के ही प्रशंसक नहीं हैं। राजनीतिकइतिहासकारोंके मुताबिक भाजपा ने धृष्टतापूर्ण चेष्टा करते हुए कांग्रेस नेता सरदार वल्लभभाई पटेल को तो अपने नायक के रूप में अपना लिया है तथा एक हिंदू चरमपंथी द्वारा गोलियों से मार दिये गये महात्मा गांधी को भी गले लगा लिया है लेकिन नेहरू को नीचा दिखाया है। असल में समस्या यह है कि 2014 में पहली बार अपने दम पर केंद्र की सत्ता में आने के कारण संघ परिवार के पास कोई नामी नायक नहीं था। कांग्रेस के नेतृत्व वाले स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति इसका अपना रवैया भी पूरी तरह उभयभावी रहा। इस तरह इसके लिए कांग्रेस नेताओं को चुराकर देश को एकदम अलग दिशा में ले जाना जरूरी हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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