बंपर उत्पादन और तमाम सरकारी उपायों के बावजूद महंगाई दर में बढ़ोतरी से साबित होता है कि वितरण के मोर्चे पर अभी बहुत कुछ करना है। पिछले साढ़े तीन वर्षों में मोदी सरकार ने ग्रामीण सड़कों, सिंचाई, फसल बीमा और बिजली आपूर्ति के क्षेत्र में अहम सुधार किया है लेकिन भंडारण-विपणन ढांचे में सुधार अभी भी दूर की कौड़ी बना हुआ है। यही कारण है कि कुछ महीने पहले तक किसान जिस टमाटर को सड़कों पर बिखेर रहे थे, वही अब महंगाई बढ़ाने में अहम कारण बन चुका है। कमोबेश यही हालत प्याज की है। जिस प्याज को कुछ महीने पहले भारत से अफगानिस्तान निर्यात किया गया था अब उसी प्याज का आयात किया जा रहा है ताकि महंगाई पर काबू पाया जा सके। दालों के बाजार मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे आ जाने के कारण दलहन उत्पादक किसान बेहाल हैं। इसे दूर करने के लिए सरकार ने 11 साल बाद दालों के निर्यात पर लगा प्रतिबंध हटा दिया है; लेकिन कुछ महीने बाद दालों की घरेलू कीमतों के बढ़ने पर सरकार इसी दाल को आयात करे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
यह स्थिति इसलिए पैदा होती है क्योंकि महंगाई, कृषि विकास और कृषि उपज के निर्यात संबंधी हमारी नीतियां अभी भी ‘प्यास लगे तो कुआं खोदने’ वाली हैं। इससे न तो घरेलू और न ही विश्व बाजार में हमारी पहचान एक विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता की बन पाती है, जिसका खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ता है। महंगाई के संबंध में सबसे विडंबनापूर्ण स्थिति यह है कि हमें आलू-प्याज-टमाटर में ही महंगाई नजर आती है। मोबाइल, पीजा-बर्गर, ब्रांडेड कपड़े खरीदते समय हम महंगाई को भूल जाते हैं। किसानों की गरीबी-बदहाली की एक बड़ी वजह हमारा यह सुविधावादी रवैया भी है।
देखा जाए तो महंगाई के काबू में न आने की सबसे बड़ी वजह है सरकारी खरीद-भंडारण-विपणन का संकुचित दायरा। वैसे तो भारत सरकार 24 फसलों के लिए समर्थन मूल्य घोषित करती है लेकिन सरकारी खरीद का दायरा गेहूं, धान, गन्ना, कपास से आगे नहीं बढ़ पाता है। इतना ही नहीं इन फसलों की सरकारी खरीद भी केवल अग्रणी उत्पादक राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश तक सिमटी रहती है। देश के बाकी हिस्सों में किसान अपनी उपज बेचने के लिए स्थानीय साहूकारों-महाजनों पर निर्भर रहते हैं। यही कारण है कि जब किसान बंपर उत्पादन करते हैं तब कीमतें गिर जाती हैं और बाद में कई गुना तक बढ़ जाती हैं। दूसरे, सरकार की भंडारण नीति अनाजों तक सिमटी रहने के कारण सब्जी, दाल, खाद्य तेल आदि की महंगाई के सामने बेबस हो जाती है।
उपज की लाभकारी कीमत, फसल की बर्बादी रोकने और किसानों की आमदनी बढ़ाने में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का अहम स्थान है। उदाहरण के लिए जिन-जिन इलाकों में पतंजलि के फूड पार्क की स्थापना हुई है, वहां-वहां आसपास के किसानों को उनकी उपज की बेहतर कीमत मिलने लगी और उनकी उपज बर्बाद भी नहीं हो रही है। दुर्भाग्यवश देश में फल-फूल-सब्जी आदि को संरक्षित करने के लिए जरूरी प्रोसेसिंग, पैकेजिंग और कोल्ड स्टोरेज जैसे बुनियादी ढांचे की कमी के चलते कुल पैदावार काएक-तिहाई हिस्सा हर साल सड़ जाता है। इससे किसानों का मुनाफा मारा जाता है और उनके पास निवेश करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं बचते।
प्रसंस्करण सुविधा में कमी के साथ-साथ परिवहन की ऊंची लागत के कारण भी भारतीय उत्पाद वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाते हैं। भारत में अन्य देशों की तुलना में माल ढुलाई लागत 20 से 30 फीसदी ज्यादा है। इससे भारतीय उत्पाद खुदरा बाजार में 10-15 फीसदी महंगे हो जाते हैं और उनकी बाजार हिस्सेदारी प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए देश के सेब उत्पादक क्षेत्र उत्तरी भारत में हैं और सेब का मुख्य कारोबार दिल्ली में होता है। इससे उत्तर भारत में घरेलू सेब आयातित सेब से सस्ता पड़ता है। लेकिन अत्यधिक दूरी और ढुलाई लागत के कारण दक्षिण व पश्चिमी भारत के बाजारों में घरेलू सेब आयातित सेब से महंगा पड़ने लगता है। कमोबेश यही स्थिति आलू की है। स्पष्ट है हमें कम लागत वाले परिवहन-विपणन ढांचे का निर्माण करना होगा। यह तभी होगा जब हम सड़क, रेल, बंदरगाह, हवाई अड्डों की स्थिति सुधारें और प्रसंस्करण, भंडारण व कोल्ड चेन में भारी निवेश करें।
महंगाई तभी काबू में आएगी जब सरकारें उपभोक्ताओं के साथ-साथ खेती-किसानी का भी ध्यान रखें। छोटी होती जोत, खेती की बढ़ती लागत, बदलता मौसम चक्र, कुदरती आपदाओं में इजाफा, एग्रीबिजनेस कंपनियों का बढ़ता हस्तक्षेप आदि को देखें तो खेती-किसानी का भविष्य उज्ज्वल नजर नहीं आएगा। ऐसे में महंगाई पर काबू पाने और 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी करने का लक्ष्य तभी हासिल होगा जब हम कृषि और ग्रामीण विकास की बहुआयामी नीति बनाएं। हमें इन तथ्यों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि उद्योग और सेवा क्षेत्र की 40-50 फीसदी मांग किसानों की आमदनी पर निर्भर करती है।