बदलते मौसम का भारतीय भूगोल— अखिलेश गुप्ता

जलवायु परिवर्तन अब एक आम चर्चा का विषय बन गया है। इस मसले पर बने संयुक्त राष्ट्र के अन्तर-सरकारी पैनल पांचवीं मूल्यांकन रिपोर्ट में पूरे विस्तार से यह बताया गया है कि किस तरह यह मानवीय क्रियाकलापों का ही नतीजा है। भारत में भी पिछले 100 वर्षों में पृथ्वी की सतह का तापमान लगभग 0.80 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। किसी क्षेत्र में यह तापमान ज्यादा बढ़ा है, तो किसी में कम। अखिल भारतीय स्तर पर मानसून वर्षा में किसी तरह की कमी-बेशी भले दी दर्ज न हुई हो, पर कुछ क्षेत्रों में इसमें कमी (जैसे पश्चिमी मध्य प्रदेश, पूर्वोत्तर राज्यों, गुजरात व केरल के कुछ भाग) और कुछ क्षेत्रों में वृद्धि (जैसे पश्चिम तट, उत्तरी आंध्र प्रदेश व उत्तर-पश्चिम भारत) देखी गई है। देश के मध्य व पूर्वी भागों में तेज वर्षा की घटनाएं बढ़ी हैं। मगर मानसून, सूखे व बाढ़ में कोई भी महत्वपूर्ण वृद्धि या कमी के लक्षण नहीं मिले हैं। देश के मध्य और पूर्वी भागों में तेज वर्षा के बार-बार होने की घटनाएं बढ़ी है। बंगाल की खाड़ी पर बनने वाले चक्रवाती तूफानों की कुल आवृत्ति विगत 100 वर्षों के दौरान लगभग एक समान रही है। इस सदी के दौरान भारतीय तटों पर औसत समुद्र स्तर लगभग 1़30 मिलीमीटर प्रति वर्ष बढ़ रहा है।

भारतीय उष्ण देशीय मौसम विज्ञान संस्थान का अनुमान है कि सदी के अंत तक सालाना औसत तापमान वृद्धि दो अलग-अलग परिदृश्यों के तहत तीन से पांच डिग्री सेल्सियस और 2.5 से चार डिग्री सेल्सियस के बीच होने की आशंका है। भारत में तापमान वृद्धि देश के समस्त क्षेत्र में एक समान रहने का अनुमान है, जबकि उत्तर पश्चिम क्षेत्र में थोड़ी अधिक गरमी का अनुमान है। भारतीय मानसून भूमि, महासागर और वातावरण के बीच जटिल अंतर-क्रिया का परिणाम है। ऐसे भी अनुमान हैं कि पश्चिमी तट, पश्चिमी मध्य भारत और पूर्वोत्तर क्षेत्र में गहन वर्षा की घटनाएं बढ़ सकती हैं।

 

जलवायु परिवर्तन ताजे पानी, कृषि योग्य भूमि और तटीय व समुद्री संसाधन जैसे भारत के प्राकृतिक संसाधनों के वितरण और गुणवत्ता को परिवर्तित कर सकता है। कृषि, जल और वानिकी जैसे अपने प्राकृतिक संसाधन आधार और जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों से निकट रूप से जुड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश भारत को जलवायु में अनुमानित परिवर्तनों के कारण गंभीर संकटों का सामना करना पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र पैनल की रिपोर्ट में भारत पर पड़ने वाले असर का भी जिक्र है।

 

 

इसका सबसे बड़ा असर हमारे जल संसाधनों पर पड़ सकता है। ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु नदी प्रणालियां हिमस्खलन में कमी के कारण विशेष रूप से प्रभावित हो सकती हैं। नर्मदा और ताप्ती को छोड़कर सभी नदी घाटियों के लिए कुल बहाव में कमी आ सकती है। बहाव में दो-तिहाई से अधिक की कमी साबरमती और लूनी नदी घाटियों के लिए भी अनुमानित है। समुद्र तल में वृद्धि के कारण तटीय क्षेत्रों के निकट ताजा जल स्रोत लवण यानी खारेपन से प्रभावित हो सकते हैं।

 

 

भारत में खाद्यान्न उत्पादन जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और अन्य संस्थाओं नेवायुमंडल में कार्बन का स्तर बढ़ने से गेहूं और धान की उपज में कमी का भी अनुमान लगाया है। इसकी वजह से फल, सब्जियों, चाय, कॉफी, सुगंधित व औषधीय पौधों की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है। रोगाणुओं व कीटों की संख्या तापमान और आद्र्रता पर निर्भर होती है। जाहिर है, जलवायु परिवर्तन का असर इनके प्रकोप पर भी स्पष्ट दिखाई देगा। इसकी वजह से दुग्ध और मछली उत्पादन में भी कमी आ सकती है।

 

 

जलवायु में परिवर्तन महत्वपूर्ण रोगवाहक प्रजातियों (मसलन, मलेरिया के मच्छर) के वितरण को बदल सकता है, जिसके कारण इन रोगों का विस्तार नए क्षेत्रों में हो सकता है। यदि तापमान में 3.80 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और इसकी वजह से आद्र्रता में 7 प्रतिशत की वृद्धि होती है, तो भारत में नौ राज्यों में वे सभी 12 महीनों के लिए मारक बने रहेंगे। जम्मू-कश्मीर और राजस्थान में उनके प्रकोप वाले समय में 3-5 महीनों तक वृद्धि हो सकती है। हालांकि ओडिशा और कुछ दक्षिणी राज्यों में तापमान में और वृद्धि होने से इसमें 2-3 महीने तक कम होने की संभावना है।

 

 

भारी जनसंख्या वाले क्षेत्र जैसे तटीय क्षेत्र शुष्क और अद्र्धशुष्क क्षेत्रों में बुआई वाले क्षेत्रों में जलवायु संबंधी जटिलताओं और वृहत जल प्रपातों से प्रभावित होते हैं, जिनमें से लगभग दो-तिहाई हिस्से पर सूखे का खतरा है। राजस्थान, आंध्र प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र तथा कर्नाटक, ओडिशा, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्रों में अक्सर बाढ़ आती है। लगभग 40 मिलियन हेक्टेयर भूमि के साथ-साथ उत्तर और पूर्वोत्तर कटिबंध में अधिकांश नदी की घाटियों में बाढ़ का खतरा है, जिससे प्रत्येक वर्ष औसतन लगभग तीन करोड़ लोग प्रभावित होते हैं। नैटकॉम ने तटीय जिलों की संवेदनशीलता पर समुद्र स्तर में वृद्धि से वास्तविक खतरे, जनसंख्या प्रभाव पर आधारित सामाजिक खतरे और आर्थिक प्रभावों का मूल्यांकन किया है। इसके अतिरिक्त, उष्णकटिबंधीय चक्रवात की गहनता में 15 प्रतिशत की वृद्धि देश में भारी जनसंख्या वाले तटीय क्षेत्रों पर एक खतरा पैदा करती है।

 

 

जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए सरकार ने एक सलाहकार परिषद का गठन किया है। परिषद ने सरकार, उद्योग और सिविल सोसाइटी सहित मुख्य पक्षधारियों से सलाह मशविरे के बाद कई दिशा-निर्देश दिए हैं। सरकार ने तकरीबन दस साल पहले जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना शुरू की थी। इसके अलावा, बहुआयामी, दीर्घकालीन और एकीकृत नीतियों के हिसाब से आठ राष्ट्रीय मिशन शुरू किए गए हैं। हालांकि इनमें से अनेक कार्यक्रम पहले से ही चल रहे कार्यों के हिस्से हैं। उन्हें बस नई स्थितियों और लक्ष्यों के हिसाब से ढालना है। उम्मीद यही है कि ये सब कार्यक्रम हमें जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे नुकसान से बचाने में मददगार साबित होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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