‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट 2016" के अनुसार मध्यप्रदेश की स्थिति बच्चों के कुपोषण-भूख के मामलों में चिंताजनक है। श्योपुर में कुपोषण से 2016 में 55 बच्चों की मौत हुई थी। इस साल भी तीन बच्चों की मौत हो चुकी है। माना जाता है कि प्रदेश में सिर्फ 23 प्रतिशत बच्चे ही आंगनवाड़ियों में दर्ज हैं और इन्हीं के जरिए बच्चों के लिए पोषाहार की व्यवस्था की जाती है। पांच वर्ष तक के आयुवर्ग में बाल-मृत्युदर प्रति 1000 बच्चों पर 65 है।
यह ग्रामीण इलाकों में बढ़कर 69 तक हो जाती है। प्रदेश में 6 माह से लेकर 5 साल तक के 68 प्रतिशत बच्चे एनिमिया के शिकार हैं। ये हमें इसलिए भी याद रखना चाहिए! मध्यप्रदेश में पोषाहार कैसे बनता-बंटता था, लापरवाही क्यों और कहां होती थी, कौन जिम्मेदार थे, क्या कार्रवाई हुई, दोषी अब तक कैसे बचे हुए हैं, इससे आगे बढ़ते हुए अब चिंता इस बात की ज्यादा हो कि स्वयं सहायता समूह के जरिए किया जा रहा नया प्रयोग फिर किसी सरकारी-ठेकेदारी अव्यवस्था का शिकार न हो जाए! सुप्रीम कोर्ट ने 2004 में स्वयं सहायता समूहों को वितरण की जिम्मेदारी सौंपने को कहा था लेकिन मध्यप्रदेश के साथ उप्र, महाराष्ट्र जैसे राज्य ज्यादातर समय इसे ठेके पर ही चलाते रहे!
इसी का परिणाम है कि शिकायतों-समस्याओं के साथ पोषाहार समाचारों में भी बना रहा! नई व्यवस्था में इसका दोहराव नहीं हो, किसी भी नए प्रयोग-पहल फिर लापरवाही नहीं लील ले, यह जिम्मेदारी सामूहिक होना ही चाहिए।
ये प्रयोग मददगार हो सकते हैं!
केरल मॉडल : सरकार ने नीति तैयार की, जमीन पर लाने की जिम्मेदारी स्वयं सहायता समूहों को सौंप दी। नाम दिया कुडूम्ब श्री। स्वयं सहायता समूह को सरकार ने बैंकों के जरिए सब्सिडी-लोन दिलाया। पोषाहार बनाने, गुणवत्ता जांचने की ट्रेनिंग भी दी। ग्राम पंचायत व स्वयं सहायता समूह मिलकर इसे चलाते हैं। गुणवत्ता जांच के लिए खुद की कमेटी है। जवाबदारी, जिम्मेदारी और निगरानी तीनों ही स्थानीय स्तर पर होने से भ्रष्टाचार के अवसर कम हैं!
उड़ीसा मॉडल : मध्यप्रदेश की तरह
उड़ीसा में भी अगस्त 2010 में पोषाहार वितरण से जुड़ा दाल घोटाला हुआ। सीख लेकर सरकार ने 2011 में इसकी जिम्मेदारी स्वयं सहायता समूहों को सौंपी। स्कूल व आंगनवाड़ी दोनों में कार्यकर्ता, वार्ड मेंबर, हेडमास्टर, स्कूल मैनेजमेंट आदि का संयुक्त खाता खोल दिया गया। कमीशनखोरी पर तत्काल 10-15 फीसदी तक रोक लग गई! पारदर्शिता लाने के लिए भोजन का मैन्यू आंगनवाड़ी केंद्रों पर टांगा गया। असर यह हुआ कि 2009-10 के सर्वे में 50 फीसदी बच्चों को पोषाहार मिल रहा था, यह 2011 के बाद 93 फीसदी हो गया!
हम इनसे भी सीख सकते हैं!
राजस्थान के जोधपुर में स्वैच्छिक संगठन अदम्य चेतना द्वारा चलाए जा रहे सेंट्रलाइज्ड मिड-डे मील किचन से 172 सरकारी स्कूलों और 32 मदरसों में खाना जाता है। बच्चों में आयरन, विटामिन ‘ए" और ‘डी" की बहुत कमी देखी गई और उससे बच्चों को बचाने के लिए यह पहल की जा रही है। उसके बाद भोजन में पोषक तत्वों की मात्रा का खास ध्यान भी रखा जाता है। 2012 से राज्य में अक्षय पात्र, अदम्य चेतना और नांदी फाउंडेशनस्कूली बच्चों का भोजन तैयार करते हैं। खासियत सिर्फ भोजन देना नहीं, बल्कि पोषक भोजन (फोर्टिफाइड मिड-डे मील) देना है! कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु का अक्षय पात्र फाउंडेशन। यहां सुबह 3 बजे करीब 1 लाख बच्चों का खाना बनना शुरू होता है! सुबह 8 बजे ट्रक स्कूल के लिए निकल जाते हैं।
सिर्फ बेंगलुरु ही नहीं, यह फाउंडेशन देश के 12 राज्यों में फैले 25 उच्च-गुणवत्तापूर्ण किचन में 16 लाख बच्चों के लिए खाना तैयार करती है और निशुल्क बच्चों तक पहुंचाती है। फाउंडेशन वर्ष 2000 में कर्नाटक के ग्रामीण क्षेत्र के गरीब बच्चों की मदद के लिए बनाया गया था। इसे शुरू करने वाले मधु पंडित दास कहते हैं- हम नहीं चाहते थे कोई भी बच्चा भूखा रहे और खासकर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाला बच्चा। भोजन को हाइजीनिक रखने के लिए अक्षय पात्र ने इंफोसिस से टेक्नोलॉजी की मदद ली। यहां हर बैच का भोजन लेबोरेटरी में टेस्ट किया जाता है ताकि गुणवत्ता सुनिश्चित की जा सके। इस संस्था का मैनेजमेंट इतना बेहतरीन है कि उसे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाया जाता है। एसी नीलसन ने अपने अध्ययन में पाया कि अक्षय पात्र की वजह से स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ गई!