गुजरे साल 8 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1,000 रुपए और 500 रुपए के नोट बंद करने का ऐलान कर दिया था. इस फैसले से देश की 86 फीसदी करेंसी अचानक से सिस्टम से बाहर हो गई. इस कदम का मकसद अर्थव्यस्था में मौजूद कालेधन का पता लगाना और इसे खत्म करना था. इसके जरिए देश में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का भी लक्ष्य रखा गया था.
हालांकि, इस उपाय पर बड़े लेवल पर विवाद है और इसके जरिए हासिल हुए मकसदों को लेकर सवाल अभी भी उठाए जा रहे हैं. लेकिन, इस फैसले से ऐसे कई बुरे परिणाम सामने जरूर आए हैं जिनके बारे में सरकार ने सोचा नहीं होगा. इनमें सभी सेक्टरों पर नोटबंदी का पड़ा असर है, खासतौर पर इस कदम से कृषि समेत असंगठित सेक्टर पर तगड़ी मार पड़ी है.
नीतिगत उपेक्षा से बेहाल हुआ कृषि सेक्टर
गुजरे एक साल में नोटबंदी के कृषि पर पड़े असर के बारे में काफी कुछ लिखा गया और इस पर जमकर बहस हुई है. हालांकि, इस सेक्टर पर नोटबंदी के असर का आकलन करने से पहले यह समझना जरूरी है कि पिछले दो दशकों से एक बड़े हिस्से में कृषि सेक्टर तनाव के दौर से गुजर रहा है. ऐसा 2000 के दशक के मध्य से शुरू हुआ है.
हालांकि, कृषि सेक्टर में तनाव की वजह सीधे तौर पर 1990 के दशक से नीतिगत उपायों में इस सेक्टर की उपेक्षा मानी जा सकती है. खेती को लेकर नीतियों के स्तर पर लापरवाही के चलते इस सेक्टर में पब्लिक इनवेस्टमेंट कमी आई. इंपोर्ट ड्यूटी कम की गईं, कारोबारी अवरोधों को दूर किया गया और इस तरह से घरेलू किसानों को ग्लोबल मार्केट्स के उतार-चढ़ाव वाले माहौल में धकेल दिया गया. साथ ही ऐसा करते वक्त उनको किसी तरह का सपोर्ट नहीं मुहैया कराया गया. इस तरह की नीतियों के दुष्परिणाम कई रूप में दिखाई देते हैं.
पढ़े फर्स्टपोस्ट पर प्रकाशित सोना मित्रा का लेख यहां क्लिक करके