हाल ही में जारी अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आइएफपीआरआइ) के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत पिछले साल की तुलना में तीन पायदान नीचे लुढ़क कर सौवें स्थान पर पहुंच गया। रिपोर्ट में इसके लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मध्यान्ह भोजन योजना में भ्रष्टाचार को जिम्मेदार ठहराया गया है लेकिन यह नहीं बताया गया है कि सस्ते आयात के कारण खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है। गौरतलब है कि वैश्विक तापवृद्धि, जलवायु परिवर्तन, कुदरती आपदाओं में इजाफा और बढ़ती लागत के चलते खेती पहले से ही घाटे का सौदा है लेकिन अब मुक्त व्यापार नीतियों के तहत सस्ते कृषि उत्पादों का बढ़ता आयात किसानों को गहरे संकट में डाल रहा है। इससे न केवल बढ़ती आबादी के अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी की रफ्तार धीमी पड़ गई है बल्कि सरकारी कोशिशों के बावजूद किसानों को उनकी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिल पा रही है। इसका सीधा असर प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता और किसानों की आमदनी पर पड़ रहा है।
जिस उदारीकरण की नीतियों को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए वरदान माना गया, वही अब किसानों को कंगाली के बाड़े में धकेल रही है। यह समस्या इसलिए भी गंभीर होती जा रही है क्योंकि भूमंडलीकरण के दौर में सरकार ने कृषि व्यापार का उदारीकरण तो कर दिया लेकिन भारतीय किसानों को वे सुविधाएं नहीं मिलीं कि वे विश्व बाजार में अपनी उपज बेच सकें। दूसरी ओर, विकसित देशों की सरकारें और कृषिजन्य कारोबार कंपनियां हर प्रकार के तिकड़म अपनाकर भारत के विशाल बाजार में अपनी पैठ बढ़ाती जा रही हैं। बंपर फसल के बावजूद किसानों को उपज की वाजिब कीमत न मिलने की एक बड़ी वजह सस्ता आयात भी है। भारत में खाद्य तेल और दालों का आयात तो लंबे अरसे से हो रहा है लेकिन अब गेहूं, मक्का और गैर बासमती चावल का भी आयात होने लगा है। पिछले तीन वर्षों में इन अनाजों का आयात 110 गुना बढ़ गया जो कि चिंता का कारण बनता जा रहा है।
उदाहरण के लिए, 2014-15 में जहां 134 करोड़ रुपए का गेहूं, मक्का और गैर बासमती चावल का आयात किया गया था वहीं तीन साल बाद 2016-17 में यह आंकड़ा बढ़कर 9009 करोड़ रुपए हो गया। इस दौरान फलों और सब्जियों का आयात भी तेजी से बढ़ा। अब तो बागवानी उपजों का भी आयात होने लगा है। उदाहरण के लिए श्रीलंका से हुए मुक्त व्यापार समझौते की आड़ में वहां की सस्ती स्थानीय और वियतनाम से आयातित काली मिर्च भारत में धड़ल्ले से आ रही है, जिससे भारतीय कालीमिर्च के किसानों को लागत निकालना कठिन हो गया है। समस्या यह है कि एक ओर कृषि उपजों का आयात बढ़ रहा तो दूसरी ओर देश से होने वाले कृषिगत निर्यात में कमी आने लगी है। उदाहरण के लिए 2014-15 में 1.31 लाख करोड़ रुपए का निर्यात हुआ तो 2015-16 में 1.08 लाख करोड़ रुपए रह गया।
कृषि उपज के बढ़ते आयात की एक बड़ी वजह यह है कि हमारे यहां सरकारें जितनी चिंता महंगाई की करती हैं उसका दसवां हिस्सा भी किसानों की आमदनी की नहीं करतीं। यही कारण है कि बाजारमें कीमतों में तनिक सी बढ़ोतरी होते ही सरकार के माथे पर बल पड़ने लगता है और वह तुरंत आयात शुल्क में कटौती कर देती है। इस सस्ते आयात का सीधा खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ता है। इसे गेहूं के उदाहरण से समझा जा सकता है। 2015-16 में गेहूं उत्पादन के बंपर अग्रिम अनुमान को देखते हुए सरकार ने गेहूं खरीद का लक्ष्य तीन करोड़ टन रखा; लेकिन वास्तविक खरीद 230 लाख टन ही हो पाई। ऐसे में बाजार में गेहूं की कीमतें चढ़नी शुरू हो गर्इं। इससे चिंतित सरकार ने गेहूं पर आयात शुल्क 25 फीसद से घटाकर 10 फीसद कर दिया। इसके बाद भी कीमतों में बढ़ोतरी नहीं थमी तो दिसंबर 2016 में सरकार ने गेहूं पर लगने वाले आयात शुल्क को पूरी तरह हटा लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि आयातक एजेंसियां और दक्षिण भारतीय आटा मिलें गेहूं का आयात करने लगीं और मार्च 2017 तक 35 लाख टन गेहूं आयात के अनुबंध हो गए। घरेलू किसानों के बढ़ते दबाव और 2017 में गेहूं की बढ़िया फसल को देखते हुए सरकार ने मार्च 2017 में गेहूं पर 10 फीसद आयात शुल्क लगाया। इसके बावजूद गेहूं का आयात जारी है।
गेहूं की कहानी दालों के साथ दुहराई गई। दालों की महंगाई से परेशान सरकार ने घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए दलहनी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में भरपूर बढ़ोरी की। इसका परिणाम यह हुआ कि 2016-17 में दालों का उत्पादन 260 लाख टन हो गया लेकिन इस दौरान 57 लाख टन आयात के कारण घरेलू बाजार में दालों की प्रचुरता हो गई, जिससे किसानों को एमएसपी से भी कम कीमत पर दाल बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसे अरहर के उदाहरण से समझा जा सकता है। सरकार ने
अरहर का समर्थन मूल्य 5050 रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित किया है लेकिन आयातित अरहर की भरमार और सरकारी खरीद के कमजोर नेटवर्क के चलते अधिकांश किसानों को 4200 रुपए प्रति क्विंटल से ज्यादा की कीमत नहीं मिल पाई।
कुछ राज्य सरकारों ने कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है लेकिन सस्ता आयात उनकी मेहनत पर पानी फेर रहा है। यहां मध्य प्रदेश का उदाहरण प्रासंगिक है। राज्य में पिछले पंद्रह वर्षों में कृषि सकल घरेलू उत्पाद में 9.4 फीसद सालाना की रफ्तार से बढ़ोतरी हुई। यह वृद्धि दर गुजरात की (9.5 फीसद) के बाद देश में दूसरी सबसे ज्यादा वृद्धि दर है। इस दौरान राष्ट्रीय स्तर पर इस वृद्धि दर का औसत 3.3 फीसद रहा। इस विकास दर में सरकारी खरीद की इ-उपार्जन नीति, ब्याज मुक्त कृषि ऋण, सड़क संपर्क और सिंचाई सुविधा के विस्तार आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। मध्य प्रदेश में खेती को फायदे का सौदा बनाने की कोशिशों को एसोचैम की रिपोर्ट में भी सराहा गया है। रिपोर्ट में 2004-05 से 2013-14 के बीच देश के सभी राज्यों के प्रदर्शन का आकलन करते हुए मध्य प्रदेश को कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों में पिछले एक दशक में सबसे अधिक विकास दर हासिल करने वाला राज्य बताया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक 2013-14 के दौरान प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 29फीसदरहा। देश के कृषि उत्पादन में नौ फीसद योगदान के साथ मध्य प्रदेश अब उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर है।
इन उपलब्धियों के बावजूद प्रदेश के किसान खुशहाल नहीं हैं तो उसका कारण सस्ता आयात ही है।
कमोबेश यही हालत केंद्र सरकार की भी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी सरकार 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए दूरगामी उपाय कर रही है। पिछले तीन वर्षों के दौरान कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए शुरू की गई योजनाएं इसका प्रमाण हैं, जैसे राष्ट्रीय कृषि बाजार, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड, यूरिया पर नीम का लेपन, जैविक खेती और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना। लेकिन विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुरूप जिस ढंग से कृषि उपजों का आयात बढ़ रहा है उससे न केवल खेती-किसानी बदहाली की ओर जा रही है बल्कि देश की खाद्य संप्रभुता भी खतरे में पड़ जाने की आशंका व्यक्त की जाने लगी है। आखिर भारत, पनामा, कुवैत जैसा छोटा-मोटा देश तो है नहीं, जो आयातित खाद्यान्न के बल अपनी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर ले। स्पष्ट है कि अगर हम सस्ते कृषि उपज के बढ़ते आयात पर अंकुश लगाने में कामयाब नहीं हुए तो सस्ता आयात हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा।