भारतीय लोकतंत्र को एक सक्षम लोकतंत्र माना जाता है, लेकिन यह अंतर्विरोधों से भी भरा हुआ है। इसकी एक विडंबना यह है कि भारतीय जनता का एक वर्ग जहां अति मुखर है, वहीं उसका एक बड़ा वर्ग ‘मूक व चुप समुदाय’ के रूप में समाज में रहता है। भारतीय समाज का एक भाग जहां सोशल मीडिया, मीडिया के अन्य रूपों, सभा-सोसायटी में बोल रहा होता है, वहीं एक बड़ा भाग दूरस्थ कोने में चुपचाप सब देख-सुन रहा होता है। वह शासन, सत्ता, बाजार, सामाजिक यथार्थ, सबके किए को सकारात्मक या नकारात्मक रूप से झेलते हुए अपना जीवन बिता रहा होता है। वह न तो सिविल सोसाइटी में सक्रिय होता है, न एनजीओ में, न ही जंतर-मंतर पर कभी प्रदर्शन करते हुए पाया जाता है। वह प्रसिद्ध कवि रघुवीर सहाय की कविता के ‘रामदास’ की तरह अपनी सामाजिक नियति को जानते हुए भी उसमें रहने को अभिशप्त होता है। अब धीरे-धीरे सस्ते मोबाइल, छोटे टेलीविजन स्क्रीन उनमें से कुछ लोगों तक पहुंच रहे हैं, फिर भी यह ‘मूक समुदाय’ उनका सीमित इस्तेमाल ही करता है। वह बोलता है, तो कभी धीरे से, कभी आंखों की भाषा में, तो कभी आंसुओं-फुसफुसाहटों के जरिये। यह भारतीय समाज का वह हिस्सा है, जो सीमांत पर है। जो अभी किसी भी तरह से प्रसिद्ध चिंतक हेबरमॉस द्वारा परिकल्पित ‘पब्लिक स्फीयर’ का हिस्सा नहीं हो पाया है। अगर वह कहीं बोलता भी है, तो उसकी आवाज का अभी तक कोई ‘जनतांत्रिक मूल्य’ नहीं बन पाया है। उसके असंतोष जनतंत्र को हिलाने की क्षमता नहीं रखते। उससे सत्ता की नींद में खलल नहीं पड़ती। दूसरी स्थिति यह है कि ऐसे सामाजिक समूहों का अभी अनेक जनतांत्रिक मुद्दों पर कोई सामूहिक स्वर उभर नहीं पाया है। वे अपने सामाजिक दुखों की एकता अभी ढूंढ़ नहीं पाए हैं। वे अपनी व्यक्तिगत समस्याओं व दुखों को सामाजिक समस्या व सामूहिक समस्या में बदल देने की शक्ति अभी विकसित नहीं कर पाए हैं। इनमें से कई छोटे-छोटे दलित, वनवासी व वंचित समूह तो ऐसे हैं, जिनमें अभी बेहतर जीवन जीने के स्वप्न देखने की क्षमता भी विकसित नहीं हो पाई है।
ऐसे समूह जब किसी राजनीतिक दल, एनजीओ या सिविल सोसायटी के सहारे बोलते भी हैं, तो उनकी आवाज कई बार पूर्णत: सही अर्थों में जनतांत्रिक संस्थाओं, सरकार और सत्ता तक पहुंच नहीं पाती। उसका कई बार ‘मिस-रीपे्रजेंटेशन’ होता है। ऐसे में, भारतीय जनतंत्र का वर्तमान स्वरूप बहुत कुछ प्रभावी सामाजिक समूहों की आवाज से गूंज रहा है। फिर वह चाहे मीडिया के माध्यम से हो, सोशल मीडिया के माध्यम से या अन्य जन-माध्यमों से मुखरित हो रहा हो। कहते हैं कि ऐसे समूह बोलते तो हैं, पर बैलेट के माध्यम से बोलते हैं। पांच साल में एक बार बोलते हैं और जब वे बोलते हैं, तो सत्ता बदल जाती है। लेकिन भारतीय जनतंत्र के लगभग 70 वर्ष के इतिहास में हम यह देख रहे हैं कि मतपत्रों के माध्यम से, चुनावों के माध्यम से भी उनकी सही आवाज सत्ता के शीर्ष तक नहीं पहुंचती। उनकी आकांक्षाएं, चाहतें,और जरूरतें हम तय करते हैं। ‘हम’ यानी प्रभावशाली सामाजिक समूह, सत्तासंस्थानों में बैठे हुए लोग। हम यह तय करते हैं कि उन्हें क्या चाहिए? वे कैसे जीना चाहते हैं? उन्हें आधुनिक विकास चाहिए, हमारी तरह का ‘कॉस्मोपॉलिटन’ शहरी विकास चाहिए या उनकी कोई और जरूरत भी है? हमारे और ऐसे समूहों के बीच बहुस्तरीय दूरी या ‘मल्टीपल डिस्कनेक्ट’ है। इसलिए उनकी आकांक्षाएं इस जनतंत्र में ठीक से समझी नहीं जातीं। भारतीय जनतंत्र की इसी विडंबना को बनारस के पास के एक गांव में मुसहर सामाजिक समूह के एक 60 वर्षीय वृद्ध ने हमारे क्षेत्रीय अध्ययन के दौरान हमसे बयान किया। वह कहते हैं- ‘भइया, ये जो बाहर से साहब-सुबा लोग आते हैं, वे या तो हमें ठीक से सुनते नहीं, और सुनते हैं, तो समझते नहीं। समझते हैं, तो उसका उल्टा ही करते हैं।’ आप समझ सकते हैं कि हमारे और सीमांत पर बसे इन मूक समुदायों के बीच कितने स्तरों पर ‘डिस्कनेक्ट’ बन चुका है। ऐसे में, उनके लिए बनाई गई हमारी नीतियां व योजनाएं कितनी सही होंगी, इस पर हमें विचार करना ही होगा।
मुसहर जाति के एक युवा ने इसी तरह के डिस्कनेक्ट पर बात करते हुए कहा कि हम लोग सांस्कृतिक रूप से, पेशागत चरित्र के रूप से पहले जनजातीय समूह थे। हम वनों और जंगलों में रहकर पेड़ के पत्तों से पत्तल बनाते थे। जंगली जानवरों का शिकार करते थे। जब जंगल कटे, हम सामान्य क्षेत्रों में रहने लगे, तो हमें अनुसूचित जनजाति की श्रेणी से निकालकर अनुसूचित जाति में डाल दिया गया। अब सांस्कृतिक और मानसिक रूप से हम दलित या अनुसूचित जाति समूहों में सम्मिलित नहीं हो पाते। अब हमारे लिए सारी योजनाएं अनुसूचित जाति वर्ग के तहत हैं, जहां पहले से ही अनेक विकसित दलित जातियां विकास में अपनी समुचित हिस्सेदारी के लिए संघर्ष कर रही हैं। ऐसे में, हम पीछे छूट जाते हैं। इसी तरह से सीमांत के सामाजिक समूहों की जरूरतों के निर्धारण में हमें अनेक अंतर्विरोध दिखाई पड़ते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि ऐसे सामाजिक समूहों की जरूरतों और आकांक्षाओं के निर्धारण में हम उनकी सीधी भूमिका सुनिश्चित नहीं कर पाते और विकास व नीतियों को ऊपर से ले जाकर उन पर थोप देते हैं। ऐसे में, एक तो विकसित सामाजिक समूहों, सत्ताशाली वर्गों का कर्तव्य बनता है कि वे ‘विकास की योजनाएं’ बनाने में उनकी भी सुनें। उनको सुनना तभी संभव है, जब हम उन्हें ऐसी सामाजिक शक्ति से लैस करें, जिसमें वे अपनी आवाज में बोल सकें। भारतीय जनतंत्र की अगली चुनौती यह है कि हम उन्हें ठीक से सुन सकें। ठीक से सुन सकें, तो ठीक से समझ सकें। ठीक से समझ सकें, तो जैसा वे चाह रहे हैं, वैसा हम कर सकें। हमें यह मानना होगा कि हमारी भाषा, हमारे बोलने के तरीके, विकास की हमारी अवधारणा और उनकी भाषा, उनके बोलने के ढंग, जीवन जीने की उनकी जरूरतों में एक बड़ा अंतर है। इस अंतर को हमें पाटना ही होगा। तभी जाकर भारतीय समाज के इन ‘मूक समुदायों’ की जनतांत्रिक आवाज भारतीय जनतंत्र में मुखरित हो सकेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)