बांध से ऊंचे सवाल– भगवती डोभाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में सरदार सरोवर बांध को देश को समर्पित किया। इस बांध की ऊंचाई को 138.68 मीटर तक बढ़ाया गया है, और इस तरह यह विश्व के सबसे बड़े बांधों में शामिल हो गया है। लेकिन विश्व में बड़े बांधों को लेकर बांध विषेशज्ञों की राय अच्छी नहीं है। जब टिहरी बांध बन रहा था, तब भी देश में बड़े बांधों को लेकर बहस चली थी। इस बांध की ऊंचाई 260.5 मीटर है। तमाम विरोध के बावजूद बांध बन कर तैयार हुआ। अभी यह उत्तरी भारत में (जिसमें दिल्ली भी शामिल है) पेयजल का एक बड़ा स्रोत है। सभी खुश हैं, पर कितने समय तक खुश रहेंगे, यह समय ही बताएगा। वैसे विशेषज्ञों का मानना है कि टिहरी बांध का जीवन अपनी घोषित उम्र का आधा रहेगा।


इसके कई कारण हैं। यह बांध भागीरथी नदी पर बना है। इसके उद््गम से ही लगातार काफी मात्रा में बालू बह कर आ रहा है। अन्य नदियों में बालू का बहाव इतना नहीं है। दो बार मुझे भी गोमुख तक जाने का अवसर मिला, मैंने दोनों बार देखा कि स्रोत से ही भारी मात्रा में रेत के कण पानी में बह रहे थे। यानी गंगोत्री ग्लेशियर तेजी से पिघल रहा है। पहली बार जब गया था, तब से दूसरी बार में उद््गम पांच सौ मीटर से भी अधिक पीछे खिसक गया था। यानी जिस ग्लेशियर से पानी इतनी तेजी से पिघल कर बह रहा है, वह एक दिन समाप्त होगा ही। प्रकृति कितने दिन मनुष्य द्वारा बांध के रोके पानी का उपयोग करने देगी? हो सकता है स्रोत समाप्त हो जाए। इसकी आशंका तो है ही। अनुमान है कि बांध में पानी का संचयन पचास वर्षों में आधा होने की तरफ है। यह बात इस बांध की भौगोलिक अवस्था को देख कर की जा रही है। इसी प्रसंग में देश में निर्मित बांधों पर गौर करें तो पांच हजार दो सौ सैंतालीस बड़े बांधों में तीन सौ अरब घन मीटर पानी को जमा करने की क्षमता है। 440 बांधों पर निर्माण-कार्य चल रहा है। 196 बांध सौ वर्ष के हो गए हैं। इनमें से 72 बांध दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में हैं। इनकी सुरक्षा और देखभाल सबसे पहले करनी होगी। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो इन बांधों के फटने से काफी जन-धन की तबाही होगी। जो भी आबादी इनके आसपास बसी है वह प्रभावित होने से बच नहीं पाएगी।


केंद्र ने अक्तूबर 1987 में बांधों की सुरक्षा के लिए एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया था। इस समिति का काम बांधों की सुरक्षा का निरीक्षण करना और उनमें सुधार करने के सुझाव देना था। समिति का उच्च अधिकारी केंद्रीय जल आयोग का अध्यक्ष है। यह समिति अब तक सैंतीस बार अपनी सिफारिशें दे चुकी है। बांधों के रखरखाव में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है।बांधों के विशेषज्ञ कैप्टन एस राजा राव, जो कर्नाटक के जल संसाधन विभाग के सचिव हैं, बांधों की सुरक्षा के संबंध में उनका मानना है कि जो बांध बाढ़ वाली जगह पर बने हैं उनकी स्थिति चिंतनीय है। वे कहते हैं कर्नाटक के अलामट्टीबांध को ही देख लीजिए। इसके आकार को विश्व बैंक की सलाह पर बढ़ाया गया था, लेकिन इसमें बहुत सारी खामियां हैं। हालांकि सरकारें बांधों कीदेखरेख पर खर्च कर रही हैं ताकि वे सुरक्षित रहें। इससे संबंधित परियोजनाको बांध पुनर्वास और सुधार कार्यक्रम का नाम दिया गया है।


यूपीए सरकार ने पुनर्वास और सुधार कार्यक्रम को 2012 में शुरू किया था जो अभी पांच राज्यों में काम कर रहा है। ये राज्य कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, मध्यप्रदेश और ओड़िशा हैं। और दो एजेंसियां- झारखंड में दामोदर घाटी निगम और उत्तराखंड जल विद्युत निगम लि. हैं। इस कार्यक्रम का बजट 2 हजार 1 सौ करोड़ रुपए का था, इसे अब बढ़ा कर 3,400 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इसमें अस्सी फीसद धनराशि विश्व बैंक मुहैया कराएगा। कार्यक्रम का लक्ष्य सभी बांधों की देखभाल करना है। कार्यक्रम के निदेशक प्रमोद नारायण के अनुसार वे अभी देश के सिर्फ 225 बांधों पर कार्य कर पा रहे हैं। इनमें वे 196 बांध शामिल नहीं हैं जो सौ वर्ष या उससे अधिक पुराने हैं। पिछले महीने इन्होंने पहली बार आपातकालीन योजना बनाई है।एस राजा राव मान रहे हैं कि सबसे बड़ी समस्या बड़े बांधों के खराब होने की है। इनमें रेत का भराव तीव्र गति से हो रहा है और उसे निकालना टेढ़ी खीर है। कर्नाटक में तुंगभद्रा बांध को ही लीजिए, यह चौंसठ वर्ष पुराना बांध है, इसमें सैंतीस प्रतिशत से अधिक रेत भर गई है। कर्नाटक विधानसभा में इस पर हुई चर्चा में बताया गया कि 0.11 प्रतिशत से अधिक रेत को बांध से नहीं निकाला जा सकता।


इसके अलावा, जिस स्थान पर बांध बने हैं उसके आसपास की जलवायु में भी परिवर्तन देखने में आ रहा है। जैसे, टिहरी बांध बनने के बाद अक्सर वर्षा के मौसम में बादल फटने की घटनाएं अधिक हो रही हैं, जिससेकहीं-कहीं तो गांव के गांव भारी बारिश से पानी और मलबे के साथ दब रहे हैं। वैज्ञानिकों को इस मौसम परिवर्तन और इसके उपचार पर भी गंभीरता से काम करना चाहिए। हिमालय क्षेत्र में इस तरह की पानी की बौछारों से बर्फ तो तेजी से पिघल ही रही है, साथ ही पहाड़ों की मिट्टी बह कर मैदानी भागों में आ रही है और पहाड़ बिना वनस्पतियों के नंगे होते जा रहे हैं। दूसरी ओर, पर्यटन का दबाव भी पर्वतीय भूमि पर बढ़ रहा है। इसका भी सीधा प्रभाव पर्यावरण संरक्षण के विपरीत है। पर्यटन से आर्थिक उपार्जन तो है, परइस तरह की ज्यादा गतिविधियों से पारिस्थितिकी को खतरा भी उत्पन्न होता है। जैसे, पहाड़ को काट कर सड़कें तो बनीं ही, और लगातार बन भी रही हैं; इससे मिट्टी का कटाव बड़ी मात्रा में हो रहा है। जैसे ही बारिश होती है, वह पहाड़ों में रुक नहीं पाती है; और पहाड़, जो जल के स्रोत हैं, इस जल और मिट््टी को रोकने में असमर्थ हो रहे हैं। जंगल कम हो रहे हैं। इन सब कारणों से नदी-नालों के रास्ते जो मिट््टी बह जाती है, विशेषकर वर्षांत में, उसकी भरपाई नहीं हो पा रही है। और इसी कारण, जो भी बांध बन रहे हैं उनमें गाद केरूपमें यह जमा हो रही है। फलस्वरूप ये बड़े बांध अपनी अनुमानित या घोषित आयु तक न तो पेयजल की आपूर्ति और न ही सिंचाई कर पाएंगे।


बांध हमारी जरूरत हैं, पर प्रकृति से इस जरूरत की पूर्ति सावधानीपूर्वक करने की कला हमारे वैज्ञानिकों के पास होनी चाहिए। इसलिए जरूरत आज ऐसे उपायों की है जिनमें पर्वत और नदियां अपनी मनोहारी छटा कायम रख सकें और पर्यावरण संरक्षित रहे। सबसे बड़ा अभियान समाप्त हो रही वनस्पतियों और वनों को वैज्ञानिक तौर से उपजाने का हो सकता है। पर्यटन भी ऐसा हो जिसमें प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न हो। तभी विकास और पर्यावरण के संतुलन का रास्ता निकलेगा

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