मुंबई में बुधवार को भारी बारिश ने फिर कहर ढहाया, जबकि अमेरिका अन्य देशों में चक्रवातीय तूफानों ने विकसित देशों में भी आपदा प्रबंधन के साथ स्वास्थ्य रक्षा के उपायों की कलई खोल दी है। यह सच है कि जलवायु परिवर्तन अब अपना असर दिखाने लगा है। ऐसे में इसके प्रभावों का पूर्वानुमान लगाकर अचानक आने वाली आपदाओं ही नहीं, डेंगू जैसे कई रोगों के फिर लौटने से निपटने की रणनीति बनाना जरूरी है।
मानव स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के कई परिणाम दिख रहे हैं। पहली बात तो जलवायु परिवर्तन ने चक्रवातीय तूफान, बाढ़ और भारी वर्षा जैसी मौसम की अतिवादी परिस्थितियों की आवृत्ति बढ़ गई है। इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य के लगभग सारे ही जोखिम बढ़ गए हैं। फिर चाहे खाद्य से संबंधित बीमारियां हो या कुपोषण और हीटस्ट्रोक। इनके कारण मच्छर जैसे रोग फैलाने वाले कारकों का विस्तार और तादाद बढ़ रही है, जिसका नतीजा यह है कि स्क्रब टायफस से लेकर डेंगू तक कई रोगों के लौट आने का खतरा पैदा हो गया है। भारत में भी ये बार-बार फैलते रहते हैं। इन सबसे कई तरह के प्रभाव पड़ते हैं, जो एक या दूसरे तरीके से सार्वजनिक स्वास्थ्य को खतरा पैदा करते हैं। इन सारी स्थितियों से दक्षिण पूर्वी एशिया जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही आर्थिक हानि के कारण क्षेत्रवार लाखों लोगों की विकास की आकांक्षाओं पर पहले ही प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इसके साथ स्वास्थ्य और जनकल्याण को सुनिश्चत करने की उनकी क्षमता पर भी असर पड़ रहा है। जैसाकि टिकाऊ विकास के लक्ष्यों में जोर दिया गया है स्वास्थ्य गरीबी और इससे जुड़ी परिस्थितियों से तय होता है।
यह सच है कि जलवायु परिवर्तन को रोकना और फिर उलटना किसी एक देश की क्षमता से बड़ी चुनौती है पर इसके स्वास्थ्यगत प्रभावों को कम करना सभी के लिए संभव है अौर आवश्यक भी है। मौसम के प्रभावों का सामना कर रहे सारे ही क्षेत्रों में ऐसी स्वास्थ्य प्रणालियां होनी चाहिए, जो जलवायु परिवर्तन के कारण अचानक आने वाली आपदाओं और दबाव को पहले ही भांप सके, उसके अनुकूल प्रतिक्रिया दे सके, उनसे निपट सके, उबर सके और उसके अनुकूल खुद को ढाल सकें। इस दिशा में सबसे निर्णायक है जागरूकता का उच्चस्तर हासिल करना और कार्रवाई करने का दृढ़ संकल्प। क्षेत्र के हर देश के स्वास्थ्य अधिकारियों को जलवायु से जुड़े स्वास्थ्यगत जोखिम का पूरा अहसास होना चाहिए और उसी के मुताबिक राष्ट्रीय योजना को आकार दिया जाना चाहिए। इसी के साथ महत्वपूर्ण मंत्रालयों के बीच इस तरह का तालमेल सहयोग होना चाहिए कि ताकि विविध नीतिगत क्षेत्रों में जलवायु से जुड़ी स्वास्थ्य चिंताओं पर उचित ध्यान दिया जा सके।
स्वास्थ्य सेवाओं की डिलिवरी का भी मूल्यांकन और स्तर में सुधार किया जाना चाहिए। एक तरीका तो यह है कि जलवायु से जुड़े स्वास्थ्य कार्यक्रमों को मौसम संबंधी सूचनाओं के साथ जोड़ने का है। इससे क्षेत्र में रोगों के बदलते चरित्र के कारण पड़ने वाले बोझ का पहले ही आकलन किया जा सकता है। इसमें आपदा की जोखिम कम करने के उपाय भी शामिल किए जा सकते हैं। मौसम की अति के कारण उत्पन्नखतरों को ठीक से संभालने के लिए आपात तैयारियों में सुधार जरूरी है। इसके लिए यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की तकनीकी और पेशेवर क्षमता का स्तर भी इतना हो कि वे सेहत संबंधी चुनौतियों से निपट सके।
दूसरी बात, मौसम की मार का सामना करने लायक आधारभूत ढांचा और टेक्नोलॉजी में काफी संभावनाएं हैं। उदाहरण के तौर पर सारी स्वास्थ्य सुविधाओं में पानी-बिजली की आपूर्ति और साफ-सफाई जैसी आवश्यक सेवाओं के लिए आपातकालीन योजनाएं तैयार होनी चाहिए ताकि अचानक होने वाली भारी वर्षा या बाढ़ की स्थिति जैसी मौसम की अति वाली आपदाओं में इन सेवाओं को बरकरार रखा जा सके। इसी तरह उठती तूफानी लहरों अथवा चक्रवात जैसे खतरों का अनुमान लगाकर नई सुविधाओं की योजना बनाकर, उचित स्थान का चयन कर उनका निर्माण किया जाना चाहिए। जहां तक आपात स्थिति की तैयारी का सवाल है तो मौसम की पूर्व चेतावनी देने वाली टेक्नोलॉजी इसका आवश्यक अंग होना चाहिए। इसी से जुड़ा उपाय मोबाइल कम्युनिकेशन है, जो प्रभावित लोगों तक पहुंच सके। इसे हासिल कर इसका सर्वोत्तम उपयोग किया जाना चाहिए।
अब यह सब करना है तो निवेश के साथ जलवायु तथा स्वास्थगत फाइनेंसिंग का आकलन कर उन्हें सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसका एक अर्थ यह भी है कि मौसम की मार झेलने के सिद्धांतों को रोजमर्रा की स्वास्थ्य प्रणाली में कारगर रूप से लागू करना। फिर चाहे यह स्वास्थ्य कर्मियों से जुड़े मसले हो अथवा आवश्यक बुनियादी ढांचे की बात हो।
अच्छी बात है कि सारे दक्षिण पूर्वी एशिया के देश ऐसी व्यवस्था कायम करने की दिशा में काम कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों के साथ स्वास्थ्य रक्षा की दिशा में कई इनोवेटिव कदम उठाए गए हैं। यह जारी रखने के साथ इसका स्तर भी ऊंचा उठाना चाहिए। इस प्रक्रिया में विश्व स्वास्थ्य संगठन मददगार भूमिका निभा रहा है और यह सुनिश्चित करने में लगा है कि मानव की सबसे बड़ी चुनौती से निपटने में सदस्य देश पूरी क्षमता विकसित कर सकें।
हमारे सामने स्वास्थ्य रक्षा के उपाय करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। जलवायु परिवर्तन से पहले ही जीवन में बदलाव रहा है और बढ़ते तापमान के साथ यह और भी बदलेगा। यह सही है कि हमारी सेहत के लिए कई तरीके के जोखिम हैं लेकिन, सभी के लिए इनसे निपटने के साधन भी उपलब्ध है। मौसम की मार झेलने लायक स्वास्थ्य प्रणालियां बनाकर दक्षिण पूर्वी एशिया के साथ टिकाऊ विकास के लक्ष्य आसानी से हासिल कर सकते हैं। इसके साथ वे लोकस्वास्थ्य के कई फायदे भी सुनिश्चित कर सकते हैं। बदलाव के अनुसार ढलना कठिन हो सकता है लेकिन, ऐसा करने की जरूरत एकदम स्पष्ट है। हमारी सारी स्वास्थ्य प्रणालियों को मौसम की मार को झेलने की क्षमता के सिद्धांत को पूरी तरह अपनाना होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)