देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पिछले मार्च में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से सत्ता में आई भाजपा सरकार छह महीने की होते-होते कई तरह की मुसीबतों से घिर गई है। गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज में मासूमों की मौतों को लेकर हुई सरकार की किरकिरी पूरे देश में चर्चा का विषय बनी थी। अब उत्तर प्रदेश सरकार की बहुप्रचारित किसान ऋणमोचन योजना भी एक बड़े मजाक में बदलकर नेकनामी के बजाय बदनामी परोस रही है। हालांकि अभी ऋण माफी का पहला ही चरण पूरा हुआ है। उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से एलान हुआ था कि इस योजना के तहत लघु एवं सीमांत किसानों के एक लाख रुपए तक के कर्ज माफ कर दिए जाएंगे। लेकिन अब वह अपने मंत्रियों को जिले-जिले भेज कर समारोहपूर्वक ऋणमोचन प्रमाणपत्र बांट रही है तो उससे ‘लाभान्वित’ किसानों में अनेक ऐसे हैं, जिनमें किसी के प्रमाणपत्र में एक रुपए की माफी दर्ज है तो किसी के प्रमाणपत्र में डेढ़ रुपए की। इटावा में अहेरीपुर के एक किसान को एक रुपए अस्सी पैसे की माफी मिली है, जबकि उसने अट्ठाईस हजार रुपए कर्ज लिए थे। मुकुटपुर के दो लाख रुपए से ज्यादा के कर्जदार किसान के डेढ़ रुपए माफ हुए हैं। इसी तरह बिजनौर की बलिया देवी के हिस्से में तो सिर्फ नौ पैसे की माफी आई है।
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हमीरपुर में आयोजित समारोह में श्रम एवं रोजगार मंत्री ने मुन्नीलाल नामक किसान को ऋणमोचन प्रमाण-पत्र सौंपा तो उसमें 215.03 रुपए की माफी दर्ज थी, जबकि उसकी बैंक पासबुक में पचास हजार रुपयों का ऋण दर्ज है। उसने शिकायत की तो मंत्री ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि यह टाइपिंग की गलती है। लेकिन यह साफ होते देर नहीं लगी कि मामला ठाइपिंग की गलती का नहीं है। मिजार्पुर में तो किसानों ने सरकार के इस ‘धोखे’ के खिलाफ प्रदेश के वित्तमंत्री के सामने ही जम कर हंगामा किया और कर्जमाफी के विरोध में नारेबाजी की। अब राज्य सरकार की ओर से इसकी कई और तरह की सफाइयां दी जा रही हैं लेकिन वे किसी के गले नहीं उतर रहीं। अलबत्ता, प्रबुद्ध और जागरूक किसान इसके लिए प्रदेश सरकार को कम, उस प्रशासनिक ढर्रे को ज्यादा कोस रहे हैं जो आमतौर पर उनके हितों के खिलाफ ही सक्रिय रहता है और जो सरकार बदलने पर भी नहीं बदलता। पिछली समाजवादी पार्टी सरकार के दौरान सूखा पड़ा तो किसानों को सूखा-राहत के चेक भी ऐसे ही दस-दस, बीस-बीस और सौ या डेढ़ सौ रुपयों के मिले थे। तब कहा गया था कि लेखपालों द्वारा फसलों की क्षति के संवेदनहीन मूल्यांकन के कारण ऐसा हुआ था और अब नौ-दस पैसे और रुपए-डेढ़ रुपए की कर्जमाफी के पीछे बैंकों के अधिकारियों का खेल बताया जा रहा है। लेकिन खेल जिसका भी हो, जिम्मेदारी तो आखिरकार सरकार की ही है।
दरअसल होता यह है कि किसान जब अपने क्रेडिट कार्ड से ऋण लेने जाते हैं तो बैंक में नया खाता खोलने में उन्हें काफी लिखा-पढ़ी करनी पड़ती है। इसलिए ऋण चुकता कर देने केबावजूद चंद रुपए या कुछ पैसे बकाया रख कर वे अपना पुराना खाता चालू रहने देते हैं, ताकि अगली बार उसी खाते से फिर ऋण ले सकें। सरकार ने किसानों के एक लाख तक के कर्जे माफ करने का एलान किया तो चालाक बैंक अधिकारियों ने बकाएदार किसानों की सूची में ऐसे किसानों के नाम भी शामिल कर दिए। माफी वाले किसानों की संख्या बढ़ाने के लिए उन्होंने यह चालाकी की। फिर तो यह ‘करिश्मा’ होना ही था। हालांकि, कुछ बैंक अधिकारियों का कहना है कि कर्जमाफी योजना में तरह-तरह की शर्तें हैं, जिसकी वजह से कई तरह की गलतफहमियां पैदा हो गई हैं।
खुद राज्य सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार पहले चरण में जिन 11 लाख 93 हजार किसानों का कर्ज माफ किया गया है, उनमें एक रुपए से लेकर हजार रुपए तक की माफी वाले किसानों की संख्या 34,262 है। इनमें भी 4,814 किसानों को एक से सौ रुपए तक की कर्ज माफी मिली है। एक हजार से दस हजार रुपए तक का कर्ज माफ होने वाले किसान की तादाद 41, 690 है, जबकि 11 लाख 27 हजार किसानों का दस हजार रुपए से ज्यादा का ऋण माफ हुआ है।
स्वाभाविक ही अब इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप आरंभ हो गए हैं। भारतीय जनता पार्टी अपने एलान से ही चक्कर में फंस गई है। इरादा तो उसका अच्छा था, लेकिन व्याहारिकरूप में जो तस्वीर सामने आ रही है, उससे उत्तर प्रदेश सरकार के हिस्से में नेकी कम बदी ज्यादा दर्ज हो रही है। सरकार इस बात को लेकर चिंतित है कि कहीं उसने गलत फैसला तो नहीं ले लिया। गौरतलब है कि भाजपा की ओर से चुनाव के दौरान यह वादा किया गया था कि अगर वह सत्ता में आती है तो वह नई सरकार की मंत्रिमंडल की पहली बैठक में किसानों के कर्जे माफ करने की घोषणा कर दी जाएगी। इस वादे पर उसे वोट भी जम कर मिले थे। राज्य में सरकार बनी तो उसके सामने कर्जमाफी का वादा गले की हड्डी बन गई। इसके कारण मंत्रिमंडल की बैठक भी देर से हुई। फिर केंद्र सरकार ने कर्जमाफी के लिए धन देने से इनकार कर दिया तो प्रदेश के संसाधनों से कर्जमाफी का निर्णय हुआ। इसके लिए बजट में 36 हजार करोड़ रुपयों की व्यवस्था भी की गई और दावा किया गया कि इससे 86 हजार किसान लाभान्वित होंगे।
इसके बाद का किस्सा यह है कि एक ओर उत्तर प्रदेश सरकार इस कर्जमाफी को वादाखिलाफी से भी ज्यादा विडंबनीय ढंग से जमीन पर उतारने में लगी है और दूसरी ओर इसके आकर्षण में बंधे कई भाजपाशासित राज्यों के किसान भी कर्जमाफी के लिए आंदोलित हो गए हैं। यानी दोहरी फांस है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात आदि में तो वे हिंसा और तोड़फोड़ पर भी उतर आए। राजस्थान में पिछले दिनों सीकर जिले में किसानों ने काफी बड़ी रैली निकाल कर सरकार के लिए चुनौती पेश कर दी। राजस्थान सरकार को किसानों के कई मांगों के सामने झुकना पड़ा है। देश में जिस तरह किसानों कीहालतखराब हो रही है, वास्तव में उसके लिए केंद्र सरकार को कोई राष्ट्रीय नीति बनानी चाहिए थी। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। आखिरकार किसानों के दबाव में कई राज्यों को उत्तर प्रदेश की राह पर जाना पड़ रहा है। अलबत्ता, तमिलनाडु के किसानों ने देश की राजधानी में जंतर-मंतर पर इसके लिए कई तरह के आंदोलन किए, फिर भी सफल नहीं हुए।
अब कर्जमाफी के इस मजाक से उत्तर प्रदेश सरकार की व्यापक किरकिरी के बीच एक अच्छी बात यह है कि इस पहलू पर नए सिरे से बहस आरंभ हो गई है। कुछ विचारकों का मानना है कि किसानों की जिंदगी सचमुच सुधारनी हो तो कर्ज की यह व्यवस्था ही खत्म कर देनी चाहिए और कृषि का ऐसा मॉडल विकसित करना चाहिए जिसमें कर्ज की जरूरत ही न पड़े। किसानों को कर्जमाफी की नहीं, कर्जमुक्ति की जरूरत है-फसल के पूरे दाम यानी आय की गारंटी के साथ। लेकिन स्वामीनाथन समिति की सिफारिशें लागू करने के वादे पर आई केंद्र सरकार ने अभी तक इस तरफ से मुंह मोड़ रखा है। पिछले पचास सालों में देश की सरकारों ने अपने किसानों से हर साल हजारों करोड़ रुपए छीने हैं। 66-67 के अकाल के बाद से ही सरकारों ने खाद्य उत्पादन बढ़ाने की चिंता में किसानों के हितों की अनदेखी की और उनकी उपजों के दाम कम कर रखे, ताकि खाद्यान्न महंगे न हों। इतना ही नहीं, गरीबों को सस्ते अनाज का सारा बोझ भी किसानों पर ही डाल दिया। अब किसानों को यह सब एक साथ लौटाने का वक्त है। उन्हें कर्ज से मुक्ति और आय की गारंटी दोनों दी जानी चाहिए। नजराना कहकर नहीं, हर्जाना कहकर।