इधर, इस प्रकार यौन उत्पीड़ित 37 महिलाओं ने साहस जुटाकर राष्ट्रीय मानवाधिकार के सामने पुलिस के दुष्कर्मों की जो शिकायत की थी, उसका संज्ञान लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक टीम ने बीजापुर जिले के उस क्षेत्र का प्रत्यक्ष अवलोकन किया, जहां स्त्रियां सन् 2015 में सुरक्षाकर्मियों की वासना की शिकार हुई थीं। दल द्वारा जुटाए साक्ष्य के आधार पर आयोग ने राज्य शासन को अपनी चिंता से अवगत कराया। अब राज्य सरकार का दायित्व है कि वह दोषी सुरक्षाकर्मियों के विरुद्ध तत्परता से कार्रवाई करे।
राज्य का मीडिया, स्वयंसेवी संगठन व सामाजिक कार्यकर्ता बार-बार कहते आ रहे हैं कि बस्तर में महिलाओं और निर्दोष आदिवासियों पर सुरक्षा कर्मियों का कहर टूटता रहता है। निश्चय ही ये हमारी व्यवस्था के अप्रिय सत्य का सुलगता पहलू है। परंतु इसका दूसरा पहलू भी उतना ही चिंताजनक है। वह है सुरक्षा कर्मियों की आहत संवेदनाओं का। उन पर चरम वामपंथी अथवा नक्सली अक्सर घात लगाकर हमले करते हैं। सरेबाजार इक्का-दुक्का सुरक्षाकर्मी को घेरकर मार दिया जाता है। बस में यात्रा करते समय भी वे सुरक्षित नहीं। नक्सली उन्हें सरेराह बाहर खींचकर गोलियों से भून डालते हैं। घने वनों की तन्हाई और लंबे समय तक परिवारों से दूर रहने को अभिशप्त सुरक्षाकर्मी अवसाद जैसे अनेक मनोविकारों से भी ग्रस्त पाए जाते हैं। जीवन का एक-एक पल उनके लिए असहनीय यातना बन जाता है। परिणाम स्वरूप वे अपने ही हथियारों से अपना जीवन ले लेते हैं। इसी सप्ताह के आरंभ में कांकेर जिले में पदस्थ कन्याकुमारी के एक जवान ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर से आत्महत्या कर ली। अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बन पाई है कि एक निश्चित अवधि तक ऐसे बीहड़ क्षेत्रों में पदस्थापना के पश्चात उन्हें अपेक्षाकृत सुरक्षित क्षेत्रों में तैनात किया जाए और उनके स्थान पर नए लोगों को वहां कुछ वर्षों के लिए रखा जाए।
इन विसंगतियों और विवशताओं के बीच भी सुरक्षाकर्मियों से अपेक्षा की जाती है कि वे स्त्रियों, बच्चों व आम आदिवासियों केप्रति मनुजता का व्यवहार करें। बस्तर को भीतर-बाहर से जानने-समझने वालों का अनुभव है कि स्त्री यहां कभी भी बाहरी लोगों की वासना से मुक्त नहीं रही। शासकीय कर्मचारी, ठेकेदार, व्यापारी व पर्यटक भी उन्हें भोग की वस्तु ही मानते रहे। परंतु तब ऐसे प्रशासक भी थे, जो इस प्रकार के अपराधियों की खबर लेने से गुरेज नहीं करते थे। 1970 के दशक का एक उदाहारण है कि बस्तर में अधिकारियों-कर्मचारियों ने आदिवासी युवतियों को अपने घरों में रख लिया था। उनसे अवैध संबंधों के कारण अनेक बच्चे भी पैदा हुए थे। जब उनको बेसहारा छोड़ दिया तब तत्कालीन कलेक्टर डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने उन सबको सामूहिक विवाह के लिए बाध्य कर उन आदिवासी युवतियों और उनकी संतान के पुनर्वास की व्यवस्था की थी। क्या वर्तमान शासन-प्रशासन ऐसी मानवीय संवेदना का परिचय देने के लिए सामने आना चाहेगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)