भारत एक नदी मातृक देश है। यहां की तमाम बड़ी-छोटी नदियों ने ही अपने तटों पर यहां हजारों बरसों से नाना सभ्यताओं और परंपराओं को उपजाया व सींचा है। बचपन से ही हर बच्चा सप्त-महानदियों का गुणगान सुनता है, जब-जब कोई जन किसी भी देवप्रतिमा का पवित्र जल से अभिषेक करे। ‘गंगेयमुनेश्चैवगोदावरिसिंधुकावेरी जलेऽअस्मिन्सन्न्धिं कुरु के परिचित मंत्र में हर पात्र के जल में सात बड़ी नदियों – गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी के समावेश की कामना है। जल ही जीवन है, इसलिए देवता भी बिना जल के अभिषेक के प्रसन्न् नहीं किए जा सकते। अन्य धर्मों में भी पारंपरिक वंदना वजू या मस्तक पर पवित्र जल के छिड़काव बिना संपन्न् नहीं की जा सकती।
जल का इस उपमहाद्वीप के जीवन में महत्व समझकर सन् 1858 में सर आर्थर थॉमस कॉटन नाम के एक अंग्रेज इंजीनियर ने पहले-पहल सरकार को सुझाव दिया था कि मानसून तो चार ही महीने का होता है, वह भी दैवनिर्भर। उसके बाद यह महादेश लगातार बाढ़-सुखाड़ से किसी न किसी इलाके में जूझता रहता है। लिहाजा भारत की कुछ बड़ी नदियों को क्यों न नहरों के जाल की मार्फत इस तरह से जोड़ दिया जाए कि एक साथ सारे देश को, हर मौसम में जीवन-यापन और खेती दोनों के लिए पर्याप्त पानी मिल सके। उनके इस सुझाव में दम था, लेकिन इसकी प्रस्तावित अभियांत्रिकी का काम बहुत पेचीदा और खर्चीला था। 57वनी क्रांति की मार से उबर रही ब्रिटिश सरकार के लिए करने को तब और भी कई जरूरी प्रशासकीय काम सर पर सवार दिखते थे। लिहाजा यह विचार कागजों पर ही सीमित रहा।
कोई डेढ़ सौ बरस बाद लोकतांत्रिक भारत में पानी की बढ़ती किल्लत के दबाव से इस विचार को फिर सामने लाया गया। पर इस बार जब बात निकली तो दूर तलक गई। कुछ बड़ी बातें सामने आईं, जिनके अनुसार आज की बुनियादी तौर से बदल चुकी भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में यह मामला परवान चढ़ाना आसान नहीं होगा। फिर ख्ार्चे की भी बात है। देश के सारे जल-संसाधनों की शक्ल बदलकर 30 बड़ी नदियों और 3000 अन्य जलस्रोतों को जोड़ने वाली इस विराट परियोजना को परवान चढ़ाने के लिए कम से कम 15,000 किलोमीटर नहरें बनानी होंगी। इसका कुल खर्च आकलन के अनुसार कम से कम तीन ट्रिलियन डॉलर बैठेगा, जो समयानुसार और भी बढ़ सकता है। क्या येन-केन अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने के लिए दिन-रात जूझ रहा देश इतना भारीभरकम व्यय सह सकता है? इस सबके बावजूद सरकार में योजना के पैरोकारों का कहना है कि तमाम जोखिमों के बाद भी नदी जोड़ने वाली जल व्यवस्था के तीन भारी फायदे होंगे। पहला फायदा, यह करीब 8 करोड़ सात लाख एकड़ जमीन की सिंचाई की व्यवस्था सुलभ कर देगा। दो, इससे बड़े पैमाने पर पनबिजली योजनाएं चालू की जा सकेंगी, जिनसे हमारे हर गांव को बिजली मिल सकेगी। फिर सालाना जल की उपलब्धि भारत की दो बड़ी तकलीफों- सुखाड़ और बाढ़ दोनों को भी कम करेगी, जो हर बरस लाखों लोगों को दरबदर करती और भूखा बनाती आई हैं।
अब आइए इस प्रस्ताव के विरोधियों की आपत्तियां भी समझें। इतनीबड़ी परियोजना एक ही तरह के नक्शे के तहत नहीं चलाई जा सकती। इसके तीन बड़े भाग कर उनके लिए तीन तरह के कार्यक्रम बनाने जरूरी होंगे। एक भाग वह होगा, जो दुर्गम होते हुए भी जलसंपन्न् सारे उत्तर भारत की उन बड़ी नदियों को जोड़ेगा, जिन सबके गोमुख हिमालय में हैं। पर उत्तरी जलक्षेत्र में किसी भी तरह के हस्तक्षेप से पहले दो पड़ोसी देशों- नेपाल और भूटान को भी अनिवार्यत: राजी करना होगा जिनसे हम जल साझा करते आए हैं। भूगर्भीय दृष्टि से इस बेहद नाजुक इलाके की लगातार बिगड़ती पर्यावरण दशा के मद्देनजर हिमालय में पहाड़ों से किसी तरह की बड़ी छेड़छाड़ के संभावित सभी नतीजों पर भी सोचना होगा। दूसरे हिस्से में दक्षिण भारत की 16 नदियों का क्षेत्र आता है, जो उत्तर की तुलना में कम जल संसाधनयुक्त रहा है। यहां की बड़ी नदियां एकाधिक राज्यों से होकर बहती हैं। इसके मद्देनजर योजना के तीसरे तथा खासे पेचीदा हिस्से में अंतरराज्यीय जल बंटवारे तथा बांध निर्माण से जुडे नाजुक मसलों को रखा गया है, जिन पर बहुत समय से तमिलनाडु व कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात, राजस्थान और गुजरात के बीच तनातनी चली आई है।
इस बिंदु पर गौरतलब यह है कि नदियों को जोड़ने की योजना का मूल खाका बहुत पहले की भौतिक स्थिति और नदी जलस्तर पर बनाया गया था। तब से अब तक ग्लोबल वार्मिंग तथा आबादी में बेपनाह बढ़ोतरी से भारत में बहुत बड़े पैमाने पर तरह-तरह के बदलाव आ चुके हैं। उदाहरण के लिए 1901 से 2004 तक के कालखंड के उपलब्ध मौसमी डाटा पर किए (मुंबई तथा चेन्न्ई के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के समवेत) शोध से यह जानकारी मिली है कि सौ बरसों में देश की आबादी तो 32 करोड़ से बढ़कर सवा सौ करोड़ हो गई, लेकिन उसी के साथ देशभर में होने वाली कुल बारिश 19 फीसदी घट गई है। नतीजतन महानदी तथा गोदावरी सरीखी दक्षिणी नदियों के क्षेत्र, जो कभी अतिरिक्त जल से संपन्न् थे, उनमें आज पानी की भारी कमी हो गई है। उत्तर में भी गंगा, यमुना व ब्रह्मपुत्र सभी के उद्गम-स्रोत ग्लेशियर तेजी से पीछे सरकते जा रहे हैं।
इसके अलावा एक बात और! मूल नदी जोड़ो योजना सारे भारत भूमि को एक सरीखा मानकर चलती है। जबकि भारत की बनावट कहीं पहाड़ी है, तो कहीं मैदानी। हमारी तकरीबन सारी नदियां ऊबड़-खाबड़, रेतीली, पथरीली हर तरह की भौगोलिक जमीन से गुजरती हैं। इससे उन सबके जल की कुछ रासायनिक विशेषताएं आ गई हैं और उनके ही बूते हर इलाके का अलग-अलग किस्म का जलचर, थलचर जीवन बना, और वानस्पतिक विकास हुआ है। नदियों को गैर-कुदरती तरह से जोड़ने से जब दो अलग तरह के जल मिलेंगे, तो हर नदी के गिर्द अनादिकाल से मौजूद तमाम तरह की वनस्पति और जलचरों में भारी भले-बुरे बदलाव आ सकते हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि उनके बारे में अभी कोई अंदाजा लगाना कठिन है। उधर लगभग 27.66 लाख एकड़ डूबने से कोई 15 लाख की आबादी भी बेघर हो जाएगी। उदाहरण के लिए केन तथा बेतवा नदियों को लें, जिन पर काम जारी है। उनको जोड़ने के दौरान उसइलाकेकी 5,500 हेक्टेयर जमीन डूब में आएगी। इससे पन्न्ा का अभयारण्य दुष्प्रभावित होगा और वहां के संरक्षित बाघों के साथ दोनों नदियों के दुर्लभ होते जा रहे घड़ियालों और मछलियों की प्रजातियों के लुप्त होने की भी आशंका बनती है। राजनीतिक चुनौतियां भी कम नहीं। पानी की लगातार बढ़ती कमी ने जल बंटवारे के मुद्दे को राजनेताओं के क्षेत्रीय वोटर समूहों की तुष्टि के लिए बहुत महत्वपूर्ण बना डाला है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक सभी सशंक हैं। संविधान के तहत चूंकि जल संसाधनों पर अंतिम राजकीय हक राज्य सरकारों के पास होता है, तो जिस भी राज्य को लगेगा कि नदी जोड़ने से उसके लोगों के लिए पानी कम हो जाएगा, वे तुरंत योजना पर अड़ंगा लगा सकते हैं। कुल मिलाकर नदी जोड़ो योजना की जितनी तारीफ की गई है, वह उसके लायक नहीं साबित होती। कम से कम अपने मौजूदा नक्शे के तहत!
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)