एक अर्थशास्त्री के रुप में आपने सरकार के किसी रुझान पर अंगुली उठाई हो, कहा हो कि सरकार के प्रवक्ता ऐसे रुझान से बाज आएं लेकिन एक प्रशासक के रुप में आप पर उसी रुझान से सोचने-बरतने की नैतिक जिम्मेवारी आन पड़े तो आप क्या करेंगे?
सितंबर महीने में अर्थशास्त्री राजीव कुमार जब देश के आर्थिक विकास की नीति और कार्य-योजना तैयार करने की शीर्ष संस्था नीति आयोग के उपाध्यक्ष पद की जिम्मेवारी संभालेंगे तो उनके सामने कुछ ऐसा ही नैतिक संकट उठेगा.
आयोग के उपाध्यक्ष के रुप में अरविन्द पनगढ़िया का कार्यकाल 31 अगस्त को खत्म हो रहा है और कार्यकाल की समाप्ति से चंद रोज पहले आयोग ने एनडीए सरकार के शेष बचे सालों के लिए एक त्रिवर्षीय योजना पेश की है.
और इस कार्ययोजना में देश में मौजूद बेरोजगारी के हालत को लेकर जो नजरिया पेश किया गया है वह नये उपाध्यक्ष राजीव कुमार की सोच के एकदम अलग है.
राजीव कुमार की राय और कार्य-योजना की सोच
सितंबर में नीति आयोग के उपाध्यक्ष का पद संभालने जा रहे राजीव कुमार की पिछले साल एक किताब आई ‘मोदी एंड हिज चैलेंजेज’ शीर्षक इस किताब में एक जगह एनडीए सरकार के प्रवक्ताओं को आगाह किया गया है कि वे दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था के रुप में भारत की कामयाबियों के किस्से बयान करने के अपने लालच से बाज आएं.
किताब में राजीव कुमार ने एक जगह लिखा है कि ‘आंकड़ों के सहारे किए जा रहे दावों की सच्चाई चाहे जो हो, हकीकत यह है कि अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में रोजगार और उत्पादन या तो घट रहे हैं या उनमें ठहराव आया है. सरकार की ऐसी बड़बोलियों से लोगों में यही संदेश जाता है कि उसे लोगों के वास्तविक सरोकारों की चिंता या जानकारी नहीं. इसके नतीजे बुरे हो सकते हैं.’
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